राघवेंद्र तेलंग, सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
चलिए आज स्मार्ट शब्दों की रचना करते हैं। ऐसे शब्द जो हमें हमारे सेल्फ की ओर ले जाएं। जिनमें हमारा प्रतिबिंब यानी सेल्फी झलके। ऐसे शब्द जिनमें हमारा और हमारी आवाज़ का एक मिला-जुला चेहरा दिखे। ऐसा चेहरा जिसमें ग्रेविटी हो और जिसे सब शेयर करें,साझा करें। सब जिस चेहरे को पसंद करें,वही तो आदर्श सेल्फी होगी,है कि नहीं! यही तो हर सेल्फी की चाह है। आज हम सेल्फी को आत्म-अनुसंधान यानी कि स्व-दर्शन या आत्म-आविष्कार या सीधे-सीधे कहूं तो सेल्फ एक्सप्लोरेशन के अर्थों में ढूंढेंगे।
आपका प्रोफेशन कैसा है इस पर आपकी प्राइवेट लाइफ निर्भर करती है। प्रोफेशनल लाइफ में अगर मॉनीटर करना, संदेह करना, जासूसी करना, अपराध से साबका आदि हैं तो वैसा ही मानस क्षेत्र के वातावरण का निर्माण होगा, पूछताछ से ही सब जानकारी होगी, सहजता से नहीं। आपकी भाषा के शब्दों में, बातों में और आपके विजन, दृष्टिकोण में भी यह सब झलकेगा। कहना न होगा कि सत्य का पीछा करने से सत्य आज तक किसी की पकड़ में नहीं आया। सत्य तो आपके भीतर तब उतरता है जब आप समर्पण भाव से साधनारत होकर ठहरे हुए होते हैं।
अब आगे बढ़ते हैं। ढूंढने की क्रिया वहीं शुरू होती है जब यह पता हो कि कुछ खो गया है। कुछ खो जाने पर सर्च या छापामार कार्रवाई ही हमारे दिमाग में आती है। यह समझ के पहले सतह की बात है, यह सतही बात है। मगर यहां तो हम अपना पता ढूंढ रहे हैं, हम खो गए हैं, हम खुद को ढूंढ रहे हैं। अपने आप को ढूंढने की तड़प सत्य की पहली आहट है, दस्तक है, पहला स्पंदन एक भ्रूण का जो आप में से जन्म लेने को बेताब हैं। जो आपके अंदर से जन्म लेगा तो निश्चित ही वह आपके केंद्र में विराजमान होगा। ख़ैर, अब साफ-साफ कहूंगा कि अगर आप अपना केंद्र ढूंढ रहे हैं तो ये शब्द आपके लिए हैं।
अगर आप अपना केंद्र ढूंढ रहे हैं तो इसका अर्थ है आप परिधि के किसी बिंदु पर हैं। यानी जितना आप अंदर हैं उतने ही आप बाहर हैं। यानी आप अपने मध्य बिंदु पर हैं। जब-जब आप अपनी तलाश में अपने अंदर जा रहे होते हैं या बाहर अपने को ढूंढ रहे होते हैं,आप ढूंढने की मुद्रा में आ जाते हैं। यह बदलाव आम लोगों के व्यवहार से मेल नहीं खाता और लोग-बाग़ आप पर शक़ करना शुरू कर देते हैं और यहां बाहरी दुनिया, जिसमें अपराध ही पहला थॉट, विचार होता है, के द्वारा आपकी जासूसी का, इन्वेस्टिगेशन का कार्य प्रारंभ हो जाता है। आपसे जुड़ी हर बात की, हर चीज़ की तलाशी शुरू हो जाती है। जहां जासूसी है, निगरानी है फिर वहां यह आक्रमण की बात है, युद्ध की बात है और वहां फिर क्षेत्र में काला धुआं घोलने की बात है। जहां पहले ही कदम पर समर्पण है वहां युद्ध शून्य है। उसकी बात ही नहीं उठती,कल्पना में भी नहीं, वहां निश्चितंता की नींद है। जहां निश्चितंता है वहां संगीत और सिर्फ संगीत है।
यूं तो तलाश और तलाशी के अर्थों में बहुत दूरी है, तलाशी और जासूसी के शब्दों में दिखता फर्क मामूली-सा है। एक जाहिराना है और दूसरा छिपा हुआ। तलाश में यात्रा के शामिल होने का संकेत है उसमें पवित्रता का भाव है। सत्य की तलाश वाली उक्ति इसीलिए पवित्र होने के भाव से जुड़ी है। तलाशी और जासूसी यात्रा नहीं हैं शार्टकट हैं। सत्य की जासूसी करोगे तो पकड़े जाओगे। सत्य न्यायाधीश है वह तुम्हें पहले से जानता है। तुम्हें तुमसे भी पहले से जानता है। तुम्हारे डीएनए को जानता है। कोई भी क्रिया जो सत्य से विमुख होकर की गई हो, वह पाप की, अपराध की श्रेणी में मानी जाती है। जैसे हर क्रिया से परिणाम का बोध अनिवार्य रूप से संबद्ध है। उसी तरह हर अपराध किए जाने से पहले अपराध बोध का जन्म हो चुका होता है और हर बोध चूंकि एक गंध है इसलिए बोधि पुरूष उसे पहचान जाते हैं,स्मरण रहे यह बात यहां सत्य के और तुम्हारे संदर्भ में है। यह गंध या तो तुम्हारी सांस से बाहर आ रही होगी या तुम्हारी आंख की पुतलियों में घुली होगी। यह कहीं से भी महसूस की जा सकती है जिसे सिर्फ न्याय का नियंता ही पढ़ सकता है भले ही उसकी आंखों पर पट्टी बंधी हो। बरसों-बरस बनी रहने वाली यह गंध हवा में अलग तासीर के कारण चीन्ह ही ली जाती है, तुम्हारी मौजूदगी इसे आसान बनाती है। कोई भी हो,कुछ भी हो,अदृश्य होने की चेष्टामयी उपस्थिति भान करा ही देती है।
तुम हर समय एक विद्यार्थी हो,परीक्षार्थी हो और परीक्षक की परीक्षा का विचार भी तुम्हारी विचार प्रक्रिया के विचार में आना नहीं चाहिए,यह निष्ठा का मामला है। जासूसी करते हुए तुम हर पल सतर्क हो यह दीखता है। यह दिखता है कि तुम सामान्य होने का नाटक कर रहे हो, इसे पहचानना बिलकुल भी मुश्किल नहीं। तुम्हारी यह सूक्ष्म अतिरिक्त सक्रियता अति सूक्ष्म बुद्धियुक्त पात्र पढ़ लेगा,यह मेधा की बात है। यह एकलव्य की वैसी भी इकतरफा पुरा-मेधा नहीं जो वह द्रोणाचार्य की आगामी मंशा को पढ़ने में असफल रही। तुम दोनों में मूलभूत अंतर यह है कि तुममें जो जड़त्व है उससे तुम्हारा बोध अछूता नहीं है,इसलिए उसकी सीमा है। वहीं जो ऊर्जा से संपृक्त है वह जड़ता से मुक्त हो चुका है,वह किसी की बुद्धि पर मंडराते हुए उसे पढ़ सकता है। इस वाक्य में शहद घुला है इसे महसूस करो! सोचो! उस भंवरे के अस्तित्व का इस मायने में ही अर्थ है कि वह गंध की अनुभूति को ठीक समय पर ताड़ जाता है। जासूसी के अपराध बोध की गंध सत्य तक पहले ही पहुंच जाती है, इसीलिए सत्य के जासूस को सत्य का कभी पता नहीं चल पाता।
फिर याद दिला दूं कि अगर आप अपना केंद्र ढूंढ रहे हैं तो ये शब्द आपके लिए हैं। यह भी कि अभी हम मध्य बिंदु पर खड़े होकर ये सब बातें कर रहे थे। अब हम कुछ गहरे उतरेंगे। बाहर विराट की, भौतिक की दुनिया यानी क्लासिकल दुनिया है और वहीं दूसरी तरफ अंदर की दुनिया सूक्ष्म की, अभौतिक की यानी क्वांटम की दुनिया है। दोनों दो दर्पण हैं। एक बाहरी चेहरा यानी दृश्य का चेहरा दिखाता है और एक आपकी आवाज का चेहरा दिखाता है, आत्मा का चेहरा। दोनों को एक साथ देखने से जो दृश्य बनेगा उसी दर्पण की तलाश है सबको और वे दोनों दर्पण केंद्र में रखे हुए हैं, उसी को लाने हम निकले हैं। ये दोनों दर्पण दो नहीं हैं,एक हैं। चांद के दो चेहरों की तरह। इनमें से एक दर्पण प्रकाश में दृश्य दिखाता है तो दूसरा आवाज से दृश्य बनाता है।
जीवन तीन दुनियाओं का नाम है। बचपन, यौवन और विरामदिशा अवस्था। बचपन आगे की दोनों दुनिया की ओर जाने का शुरुआती बिंदु है। यहां पर फोकस तैयार होता है। ऊपर हमने दो दुनियाओं क्रमशः क्लासिकल और क्वांटम दुनिया की बात की। आगे इन्हीं दो दुनियाओं के पड़ाव हैं। क्षेत्र की मूल गति दोनों को स्पंदित करती है तीन गतियों के आपसी संचार-संवाद से जीवन है। सेल्फी के दौर में यह सबक दोहराना ज़रूरी है कि आत्म सौंदर्य की आत्ममुग्धता अंधा कर देती है, बाद में आंखें जाती रहती हैं।
यह साफ देखने में आता है कि आज तकनीक के आगे सब नतमस्तक हैं। वहीं अब धरती की सारी जमीनी चलायमान ऊर्जा के मुख्य पुर्जे आकाश में हैं वहीं से दिशानिर्देश हैं चीजों को चलने के, गति का निर्धारण आकाश की आराधना से होगा। हाथों को विशाल ऊर्जा को हैंडल करना सीखना होगा। सेल्फी के फैशन का अंधाधुंध एडाप्टेशन इस बात को जाहिर करता है कि तकनीक आपकी बुद्धि को कंट्रोल कर रही है। वह जहां चाहे आपको बहाए चली जा रही है और आप बहे चले जा रहे हैं। आपकी सेल्फी में आपका कुछ भी नहीं है,जो कुछ कमाल है तकनीक का है,आप एक सूखे पीले पत्ते की मानिंद भर हैं। रोशनी का पता अंधेरे में चलता है। ओशो कह गए कि रोशनी नहीं पीछा अंधेरा करता है। ये तो आप हैं जो रोशनी का पीछा करते हैं जबकि आपका पीछा अंधेरा करता है।
सेल्फी के बहाने जिस शाश्वत बेचैनी का यानी अपने आप की तलाश का जिक्र इस आलेख में किया गया उसे मशहूर शायरा परवीन शाक़िर की दो पंक्तियों की आवाज में डूबकर साफ़ सुना जा सकता है। इन लाइनों के अर्थ मनुष्य की सारी तड़प को बयान कर देते हैं। इन लाइनों की बात आखिर में विराम पंक्तियों के रूप में समझें;
उसकी मुहब्बत ने मुझे अजब इक नज़र बख़्शी,
मैं अब इस दुनिया को पहले से बेहतर देख सकती हूं।
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