अपने में से गुजरकर मिलने वाली नई राह!

राघवेंद्र तेलंग

सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता

यह अस्तित्व दो जरूरी तत्वों से भरा है, जड़ और चैतन्य। ये दोनों ऊर्जा के समुद्र से घिरे उसमें डूबे हुए रहते हैं। जड़वत जीवन भी जीवंत जड़ समान अस्तित्व में है। वहीं इसका रूपांतरित रूप चैतन्य जीवन भी इसी अस्तित्व में बनता रहता है। जीवंत जड़ दो तरह की वाइब्स से ऑपरेट होती है। जब वह जड़वत महसूस करती है तो बाहर की दुनिया वाइब्स उसे नचाती है। और जब उसके अंदर मन, बुद्धि के द्वारा भावना व तर्क की तरंगें उसे डोलाती हैं तो उसकी दौड़ जड़, भौतिक के आसपास ही खत्म होकर रह जाती है। कभी हां कभी ना वाली जड़ बुद्धि की संगति में ऊर्जा को विनष्ट ही होना है अत: ऊर्जा संरक्षण के अभाव में यह भाव ही नहीं पनपता कि इससे कई गुना अधिक ऊर्जा के धारण हेतु योग्य भी हुआ जा सकता है। जब यह बोध जागृत हो जाता है तब वह जीवंत चैतन्य से परिभाषित होता है। फिर उसकी ओर से चैतन्य के प्रति समर्पण के कारण ऊर्जा के लिए हमेशा के लिए उसकी हां होती है, उसमें यूनिवर्सल धड़कन आकर धड़कने लगती है।

सत्य वास्तव में इस अस्तित्व के होने के भीतर में है। क्रिएशन या निर्माण की एक डायनामिक चक्रीय व्यवस्था में जो भी कुछ ऑर्गेनिक होता चलता है, बनता चलता है उसके भीतर सतत् एक संगीत, एक रस धारा की तरह तैरता चलता है, उसी का नाम आनंद है जो सत्य का दर्शित रूप है। लेकिन दिलचस्प यह है कि जब सत्य बतौर सिद्धांत हमारे सोचने में आता है तब वह हममें विचार के रूप में आता है। आज हम इस विचार की प्रणाली को सीढ़ी बनाते हुए आगे बढ़ेंगे और एस्केप प्वांइट तक पहुंचकर विचार से परे दूसरे ऑर्बिट तक पहुंचने का प्रयास करेंगे।

सबसे पहले बात साइलेंस से, ध्यान से शुरू करते हैं। ध्यान, दरअसल अपने को खोलने की कुंजी है, एक्सप्लोर करने की क्रिया है। बाहरी दुनिया ने हमारे होने पर जो लॉक या ताला लगा रखा है उसे खोलने अनलॉक करने का नाम ध्यान है। हम समझते हैं बाहर घूम-फिर कर, नाते-रिश्तेदारों के बीच मौज-मस्ती कर, मनोरंजन के माध्यम से अपने को बहलाकर हम ख़ुद को एक्सप्लोर कर लेंगे, लेकिन नहीं इस भुलावे में न रहें। यह भ्रांति है। यह अपने को जानना कतई नहीं है।

विचार हमारे अंदर इस कदर जमे हुए हैं कि इनसे अपने आपको खाली करने का विचार कभी हमें आता ही नहीं। इस तरह कुल मिलाकर हम विचारों के ही पूंजीपति होकर रह जाते हैं। जरा सोचिए विचार के अलावा भला हम और आप आखिर हैं ही क्या! विचार द्वैत की दुनिया के औजार हैं इसीलिए विचारों के जरिए निरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता। विचारशून्य होकर ही तो शून्य यानी असीम ऊर्जा क्षेत्र में अवस्थित, विराजमान हुआ जा सकता है। विचार से जुड़ा कुछ भी हो चाहे फिर वह कोई प्रश्न हो या प्रणाली या सिद्धांत या धारा या जीवनशैली वह सदा आपको एक बायस्ड स्टेट, इनक्लाइन्ड-वे या अभिमुख स्थिति में ही बनाए रखेगा। स्व का तंत्र विचार के सिस्टम की परत को उधेड़ लेने के बाद ही सामने दृष्टव्य होता है। तदुपरांत ही स्व का अस्तित्व समष्टि अस्तित्व से कम्पेटिबल या संयुक्त होने के योग्य बनता है। विचारों के माध्यम से यात्रा कर आप शून्य स्थिति के बिंदु तक नहीं पहुंच सकते। बीच यात्रा में ही आपको विचार मॉड्यूल से डिटैच, असंयुक्त होना पड़ेगा।

जब आपके अंदर किसी भी घटना, व्यक्ति, चीज के बारे में पहले से बनी हुई कोई धारणा, अनुमान, पूर्वाग्रह नहीं होता। जब आप एकदम खाली, रिक्त होते हैं तब आश्चर्य वह भी क्रमिक रूप में और सुखद व आनंददायक प्रकार की अनुभूति लिए सतत् एक दुर्लभ संयोग बनकर आपके जीवन में प्रवेश करता है। आश्चर्य के कीमिया को जान लेना आनंद को जान लेना है। निरपेक्ष होकर, न्यूट्रल होकर आप संसार की सारी रेसिपी के ज्ञाता हो सकते हैं, आनंद के साथ आनंददायक स्वाद के पकवान बना सकते हैं। अपने जीवन को सुस्वादु बनाने का काम आपका ही तो है। इससे बढ़कर बिग मंत्र भला और हो भी क्या सकता है!

जब आप बिना शब्दों-तर्कों, बिना विचार, बिना कारण, बिना नाम या उपमा, बिना तुलनात्मक दृष्टि के, बिना फॉर्म के, बिना योजना के दुनिया को देखा करते हैं तब शरीर के अस्तित्व को महसूस करने के सारे उद्देश्य निरर्थक हो जाते हैं और फिर ऐसे में शरीर का भास जाता रहता है। तब आपको समय के पैमाने की, जो तुलना के लिए द्वैत की दुनिया का मीटर स्केल है, जरूरत नहीं रह जाती। बस फिर क्या! तब आप टाइमलेस स्टेट में आ जाते हैं और यह स्टेट मूलत: अस्तित्व के साथ समागम की हो जाती है। यहां आप अस्तित्व के उपकरण की भूमिका में आ जाते हैं। शरीर जो स्वयं को पहले अपने और इस अस्तित्व का नियंता मानता था, जा चुका है, तिरोहित हो चुका है। चूंकि यहां विचार नहीं हैं, शब्द नहीं हैं तो इस स्थिति में सारे द्वंद्व, प्रश्न ढह जाते हैं। अस्तित्व का गुणधर्म भी ऐसा ही है वह प्रश्नातीत है इसीलिए वह सहज है, उसकी अनुभूति निर्दोषता, सहजता, पारदर्शिता में है। बिना सहज हुए, न्यूट्रल हुए अस्तित्व की अनुभूति हो ही नहीं सकती।

अस्तित्व का नियम है जब आप उसके होने में उसकी हर घटना में होने की तरह समा जाते हैं तब अस्तित्व की संपूर्ण शक्ति आप में उतर आती है। ऐसे में आप चीज़ों-घटनाओं को होने देते हैं, तब आप भी उस होने में हो जाते हैं। बहाव में बहाव के साथ निष्चेष्ट तैरते हुए। ऐसा तभी संभव है जब समग्रता का भाव आप में हो और अस्तित्व से उसका जुड़ाव होता चला जाए। भौतिकतावादी, जिसका एकमात्र उद्देश्य अस्तित्व को अपने मतलब भर के उद्देश्य के लिए उसे रस की भांति चूसना है, लेट-गो या त्याग या समर्पण उसकी प्राथमिकता के शब्द नहीं हैं सो वह लगातार होती हुई घटनाओं को अपने पक्ष में मोड़ने के प्रयास में रहेगा। वह सदा अस्तित्व के विपरीत प्रकृति के कार्य करेगा। वह जड़मति हमें ऑर्गेनिक होने देने के विरूद्ध की प्रतिरोधात्मक शक्ति होता है, जो हर बहती हुई ऊर्जा के निषेध का विश्वासी है। जब आप समष्टिगत चेतना संसार के साथ एकमेव होकर हर होने देने को होने देते हैं तब वहां कर्ताभाव का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। अकर्ता होकर किया गया कार्य अहं मुक्त या इगो फ्री होकर किया गया कार्य होता है। इसी के परिणाम की अनुभूति और अस्तित्व में व्याप्त आनंदानुभूति का एक-सा होना तब समझ आ जाता है।

गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि अहं की मिलावट वाले सारे कार्यों में जटिलताएं होंगी या कहें वे कॉम्पलिकेटेड होंगी। वहीं दूसरी ओर अस्तित्व की स्पिरिट को ध्यान में रखकर तथा इगोलेस होकर किया गया हर कार्य सहज व सिंपल होगा। अहं के कार्य प्रतिद्वंद्विता या काम्पीटीटिव्ह भाव से और खुलकर कहें तो लगभग बलात् या जबर्दस्ती के भाव से संपन्न होते हैं। उसमें जीत -हार के, सुख-दुख के पहलू समाहित होते हैं। अकर्ता भाव या इगोलेसनेस से किए गए कार्य का श्रेय अस्तित्व का होता है इसीलिए उसके परिणाम में उसकी रसानुभूति अंदर उतरती है। द्वैत से हुए कार्य में दुख आना, अफसोस होना सुनिश्चित है। वहीं अकर्ता या अद्वैत से हुए कार्य को दुख छू भी नहीं सकता। जब कोई करने वाला नहीं तब जो है वह एकमात्र ब्रह्म है, ब्रह्मांड है, अस्तित्व है, आत्मन है। ऐसी स्थिति में आ जाना सत्यम् शिवम् सुंदरम् भाव के शीर्ष पर टिक जाना है। इस शीर्ष पर, इस स्थिति पर कोई भी हो वह नितांत अकेला ही होता है। जीवन में आनंद की खोज का सूत्र इन्हीं पंक्तियों में है इसे फिर से ध्यान से पढ़िए!

मनुष्य के बारे में मूलभूत तथ्य यह है कि वह जीवन को और उसमें शामिल हर कार्य को, हर बार स्वतंत्रता के साथ करना चाहता है, फ्री विल के साथ करना चाहता है। अपरिहार्य परिस्थितियों, आकस्मिक क्षणों या आसन्न खतरों के एकदम से प्रकट हो जाते वक्त जीवन के बचाव के तौर पर रिफ्लेक्स एक्शन में यही फ्री विल काम में आती है। स्वतन्त्र चेतना का यह भाव अद्वैत का, नॉन डुएलिटी का भाव है। इसी स्थिति में ही आपका रीयल सेल्फ, आपका वास्तविक आप बाहर आता है और यह सब एक अनायास रूप से, एफर्टलेसनेस में, एक तरह की निस्तब्धता के ज़ोन में, साइलेंस में होता है, यही अक्रिया की क्रिया है, अकर्ता का कर्तापन है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने अंदर वैक्यूम पैदा करना है, ध्यान या साइलेंस को साधकर। जैसे ही आप अपने अंदर का पहले से भरा हुआ सारा कुछ खाली कर लेंगे और फिर जब इसके बाद आप नए तरह के ऑब्जर्वेशन के अंतर्गत बॉडी और माइंड को हर तरह से खुला छोड़ते हुए संसार के हर दृश्य को अपने सामने से (और यहां तक कि अपने में से होते हुए भी!) बिना कुछ भी पकड़े हुए (स्टोर करने की आदत से छुटकारा पाकर) स्वतंत्र चेतना से हर दृश्य को च्वाइसलेसली होने देते हैं, जाने देते हैं तब ऐसे में आपके भीतर से जो एक्शन निकलता है वह इनसाइट से या आत्मा का होता है। सौ प्रतिशत, फुल्ली पावर्ड। आपने देखा होगा कि शिकारी जीव इसी अंत: प्रेरणा के जरिए अपना भोजन जुटाते हैं। किसी भालू का बहती नदी में से मछलियां पकड़ने का वह दृश्य तो आपने देखा ही होगा। ऐसा इसलिए कि आपके अंदर से ऊर्जा का लीकेज (यहां तक कि तरंग रूप में उसकी सूचना, इन्फॉर्मेशन का भी) या व्यय, खर्च अंतिम बिंदु तक नहीं हुआ है। यह सौ टका टंच खरा पावर हर बार अन्य हरेक उस सांसारिक मनुष्य पर भारी पड़ता है, क्योंकि वह अपनी ऊर्जा के लीकेज के बिंदुओं के प्रति जागरूक और ऊर्जा के संरक्षण के प्रति सजग ही नहीं है।

आइए, अब इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म बात की पहली बारीक परत को देखते हैं। शरीर हर क्रिया में अपने फोर्स या बल का प्रयोग करने से पहले सबसे पहली जो गतिविधि करता है वह है देखना। इसलिए दृश्य का या ऑब्जेक्ट का देखा जाना, वह भी सारी डिटेल्स के साथ, अनुभव के रूप में आकर मस्तिष्क में पहुंचे सो जरूरी है कि वह ऑब्जर्वेशन च्वाइसलेस हो, उसमें किसी किस्म का पूर्वाग्रह न हो, विचलन न हो, भार न हो, या कहें वह देखना पूरी तरह से पारदर्शी व पवित्र हो, उसमें मात्र देखने भर की क्रिया के प्रति समर्पित वफादारी हो और ऐसा तभी हो सकता है जब वह दृश्य सिर्फ उस समय के वर्तमान को प्रतिबिंबित करता देखा जाए, बिना टूटन के। उसे भूतकाल की स्मृतियों या भविष्यकाल की अपेक्षाओं की मिलावट के बगैर देखा जाए। तो इसके लिए दृष्टा को सारा देखना केवल और केवल वर्तमान में रहकर आना चाहिए। तभी इनसाइट का प्योर एक्शन च्वाइसलेसनेस की स्टेट के बाद की परिस्थिति के निर्माण से पैदा होता है। यही विजय का कीमिया है। कृष्णमूर्ति के जरिए इसको और गहराई से जाना जा सकता है। यह इनसाइटेड एक्शन त्वरित होगी मगर इसके पीछे की क्रियाप्रणाली लंबी चेननुमा होगी। दरअसल, यह मानव शरीर इस कीमिया के लिए एक संपूर्ण कैप्सूल है, तीर है। इसका संधान आंखों के धनुष के बीच स्थित त्रिनेत्र से समक्ष के लक्ष्य को देखकर उसकी गति से तादात्म्य बैठाकर किया जाता है। निष्णात धनुर्धर का अष्टांग आवृत्ति पर बने रहकर यह योग करना अपरिहार्य है।

जब तक आप में यह समझ नहीं उतरेगी कि आपके ऑपरेटिंग सिस्टम का मैनुअल वास्तव में आपके अंदर बैठे अंतर्मन का ज्ञान है और बाहरी दुनिया से इसका कोई लेना-देना नहीं है, तब तक आप यथास्थिति में ही पड़े रहेंगे। जैसे ही आपमें इस समझ का विश्वास प्रविष्ट करेगा कि हमारा बसेरा हमारे अंदर है किसी और के या बाहर के अंदर नहीं तब ऐसे में बाहरी संसार के कंट्रोलर अपने-आप आपसे दूर छिटक जाएंगे और आप बहुत हद तक स्वयं को मुक्त महसूस करेंगे। आप के रूप में यह स्वतंत्रचेत्ता यहां आकर जागृत होगा। स्वतंत्र चेतना या मुक्ति को पा चुकने के बाद आप अपने दूसरे पड़ाव यानी आत्मबोध की ओर आगे बढ़ेंगे। बोध हां जीवन का बोध, अपने में से गुजरकर मिलने वाली नई राह!

यही स्वयं के पार जाना है और पार होकर उस अगम्य तल में प्रवेश करना है जहां सच्चिदानंद का वातायन है। यहां किसी भी प्रकार की कोई गति नहीं होती क्योंकि कोई आना-जाना ही नहीं घटता, सो जहां होते हैं उसे ठहरना न कहा जाकर तब इसे होना कहा जाना अधिक उचित होता है। यही बीइंग है। यही स्वयं अस्तित्व हो जाना है। यही खुद ही स्पेस के गुणधर्म का हो जाना है, शून्य हो जाना है।

raghvendratelang6938@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *