जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
फोटो: बंसीलाल परमार
महिलाएं चाहें संभ्रांत हों, आर्थिक रूप से कमजोर हों या जाति के हिसाब से अंतिम पायदान पर हों पितृसत्तात्मक समाज उन्हें (औरत को) स्वतंत्रता और फैसला लेने का अधिकार नहीं देता। यह समाज हमेशा ही महिलाओं को सामाजिक रोक-टोक से जकड़कर रखना चाहता है। इससे राजनीति अछूती नहीं है। पिछड़ी जाति की राजनीति के धुरंधर खिलाडी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हाल ही में फिर विधानसभा में अपना आपा खो बैठे। उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल की महिला विधायक रेखा देवी पर भड़कते हुए एक विवादास्पद टिप्पणी करते हुए कहा, अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो! इन लोगों (आरजेडी) ने किसी महिला को आगे बढ़ाया था। क्या आपको पता है कि मेरे सत्ता संभालने के बाद ही बिहार में महिलाओं को उनका हक मिलना शुरू हुआ। 2005 के बाद हमने महिलाओं को आगे बढ़ाया है। बोल रही हो, फालतू बात… इसलिए कह रहे हैं, चुपचाप सुनो।
उनके इतना कहते ही सदन में हंगामा और बढ़ गया। अब नीतीश कुमार के बयान की काफी आलोचना हो रही है। यह पहला मौका नहीं है, तीसरी, चौथी बार ऐसा हुआ है जब नीतीश कुमार आउट ऑफ कंट्रोल हो गए। प्रजनन वाला बयान तो लोग अब तक नहीं भूले हैं। रही बात भूलने की तो सिर्फ नीतीश कुमार ही क्यों कई और नेताओं की ओर से महिलाओं के ऊपर की गई टिप्पणी को लोग नहीं भूले हैं। कभी टंच माल तो कभी परकटी और कभी नाचने वाली। ऐसे और कई उदाहरण हैं जब नेताओं की ओर से महिलाओं के ऊपर टिप्पणी की गई। जब हंगामा मचता है तो इनकी ओर से कुछ अपने फेवर का बयान देकर किनारा कर लिया जाता है। ऐसे नेता किसी एक दल के नहीं अलग- अलग पार्टियों के नेताओं ने अलग-अलग वक्त पर ऐसे कमेंट किए हैं।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आज के समय में महिलाएं घर की चारदीवारी से निकलकर सत्ता की बागडोर संभाल रही हैं। न केवल संभाल रही हैं बल्कि कुशल संचालन कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ममता बनर्जी, प्रियंका गांधी, स्मृति ईरानी, मेनका गांधी, मायावती को देखा जा सकता है। लेकिन देश में महिलाओं की आबादी के अनुसार देखें तो राजनीति में महिलाओं की संख्या अभी भी काफी कम है। भारतीय संसद में केवल 14 फीसदी महिलाएं हैं, जबकि संसद में महिलाओं की वैश्विक औसत भागीदारी 25 फीसदी से ज्यादा है। इसके अलावा, ग्रामीण अंचलों में पंचायत स्तर पर अधिकांश महिलाओं को केवल मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जाता है यानी चुनाव तो महिला जीतती है लेकिन सत्ता से संबंधित सभी निर्णय उसके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं।
वहीं, न्यायालय में भी महिलाओं की संख्या संतोषजनक नहीं है। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय सहित उच्च न्यायालयों में मौजूद न्यायाधीशों में महज 11 प्रतिशत महिलाएं हैं। समय की मांग है कि अब महिलाएं जाग्रत हों और अपनी क्षमता को पहचान कर, परंपरागत रूढ़ियों को खंडित कर देश की मुख्यधारा में अधिक से अधिक योगदान दें।
भारतीय राजनीति में महिला सशक्तिकरण का हाल आप इस तथ्य से समझ सकते हैं कि 18 सितंबर 2023 की शाम को तत्कालीन राज्यमंत्री प्रहलाद सिंह पटेल ने महिला आरक्षण का ट्वीट किया और कुछ ही देर में डिलीट भी कर दिया। हालांकि महिला आरक्षण बिल 2023 पास कर दिया गया लेकिन इसमें ताली बजाने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि यह बिल 2029 तक लागू होगा। सरकार की इस टालमटोल से आप सत्ता में महिलाओं की स्थिति का आकलन कर सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र महिला की रिपोर्ट के अनुसार 10 जनवरी 2024 तक, 26 देश ऐसे हैं जहां 28 महिलाएं राज्य या सरकार की प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं। इसके अनुसार अगले 130 वर्षों तक सत्ता के सर्वोच्च पदों पर जेंडर इक्वलिटी हासिल नहीं की जा सकती है। यह रिपोर्ट राजनीति के क्षेत्र में है लेकिन सवाल अभी भी कायम है कि अगर महिलाओं को सत्ता के सर्वोच्च पदों पर आने के लिए 130 साल और लगेंगे तो आज हम महिला सशक्तिकरण की बात कैसे कर सकते हैं?
इस रिपोर्ट के अनुसार केवल 15 देशों में एक महिला राज्य प्रमुख है और 16 देशों में एक महिला शासन प्रमुख है। इसके अलावा आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि मंत्रालयों का नेतृत्व करने वाले कैबिनेट सदस्यों में 22.8 प्रतिशत महिलाएं प्रतिनिधित्व करती हैं। ये आंकड़ें दुनियाभर के हैं। सिर्फ 13 देश ऐसे हैं जिनमें कैबिनेट मंत्रियों के 50% या उससे अधिक पदों पर महिलाएं हैं।
दरअसल पितृसत्तात्मक मानदंड भारतीय महिलाओं के शिक्षा एवं रोजगार विकल्पों को, जिनमें शिक्षा प्राप्त करने के विकल्प से लेकर कार्यबल में प्रवेश और कार्य की प्रकृति तक सब शामिल हैं, सीमित या प्रतिबंधित करते हैं। लेकिन हमारा संविधान न केवल महिलाओं को समानता की गारंटी देता है, बल्कि राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति भी प्रदान करता है ताकि उनके संचयी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अलाभ की स्थिति को कम किया जा सके। महिलाओं को लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किये जाने (अनुच्छेद 15) और विधि के समक्ष समान संरक्षण (अनुच्छेद 14) का मूल अधिकार प्राप्त है। संविधान में प्रत्येक नागरिक के लिए यह मूल कर्तव्य निर्धारित किया गया है कि वह महिलाओं की गरिमा के विरुद्ध प्रचलित अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करे।
भारत में वे कौन-से क्षेत्र हैं जहां महिलाओं ने असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है? हमारे समाज में पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिये शिक्षा के अवसर की समानता सुनिश्चित करने के सरकार के प्रयासों के बावजूद भारत में महिलाओं की साक्षरता दर, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, अभी भी बदतर है। ग्रामीण भारत में विद्यालय दूर स्थित हैं और सुदृढ़ स्थानीय कानून व्यवस्था के अभाव में बालिकाओं के लिये स्कूली शिक्षा के लिये लंबी दूरी की यात्रा करना असुरक्षित लगता है। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज और बाल विवाह जैसी पारंपरिक प्रथाओं ने भी समस्या में योगदान दिया है जहां कई परिवारों को बालिकाओं को शिक्षित करना आर्थिक रूप से अव्यवहारिक लगता है।
लैंगिक भूमिका: अभी भी भारतीय समाज का एक बड़ा तबका यह मानता है कि वित्तीय जिम्मेदारियां निभाने और बाहर जाकर कार्य करने की भूमिका पुरुषों की है। लैंगिक भूमिका के संबंध में रुढ़िग्रस्तता ने आमतौर पर महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह और भेदभाव को जन्म दिया है। उदाहरण के लिए, महिलाओं को बच्चों के पालन-पोषण संबंधी उनके कार्यों के कारण कर्मियों/श्रमिकों के रूप में कम विश्वसनीय माना जाता है।
समाजीकरण प्रक्रिया: भारत के कई भागों में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, पुरुषों और महिलाओं के लिए अभी भी समाजीकरण के मानदंड अलग-अलग हैं।महिलाओं से मृदुभाषी, शांत और चुप रहने की अपेक्षा की जाती है। उनसे निश्चित तरीके से चलने, बात करने, बैठने और व्यवहार करने की अपेक्षा होती है। इसकी तुलना में पुरुष अपनी इच्छानुसार कैसा भी व्यवहार प्रदर्शित कर सकता है।
विधायिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व: पूरे भारत में विभिन्न विधायी निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम रहा है। अंतर-संसदीय संघ और संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, संसद में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या के मामले भारत 193 देशों के बीच 148 वें स्थान पर था।
सुरक्षा संबंधी चिंता: भारत में सुरक्षा के क्षेत्र में निरंतर प्रयासों के बावजूद महिलाओं को भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार, तस्करी जबरन वेश्यावृत्ति, ऑनर किलिंग, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न जैसी विभिन्न स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
यूं तो पूरी मानवता का इतिहास ही विकास की सतत यात्रा है, लेकिन महिलाओं की आजादी और बराबरी की यात्रा सबसे लंबी और संघर्षपूर्ण है। आजादी की लड़ाई में जब हर जाति, धर्म, वर्ग की स्त्रियों को आंदोलन में शिरकत करने के लिए बुलाया जा रहा था, भारत में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति से जुड़े कुछ तथ्य इस प्रकार थे-
- महिला शिक्षा महज 1.8 फीसदी थी।
- देश के बड़े लॉ और मेडिकल कॉलेज में महिलाओं का दाखिला प्रतिबंधित था।
- सती और बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं सिर्फ आर्थिक और सामाजिक रूप से गरीब परिवारों तक ही सीमित नहीं थीं।
आजादी के बाद भी महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बदलाव आने में काफी वक्त लगा। हालांकि स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी, एकसमान पारिश्रमिक और सुरक्षा जैसे पैमानों पर यदि महिलाओं की मौजूदा स्थिति का आंकलन करें तो बहुत संतोषजनक तस्वीर नहीं उभरती, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पिछले 75 सालों में हमने कोई प्रगति नहीं की है।
दुनिया के बाकी हिस्सों में जहां औरतों को मतदान के अधिकार लिए सौ साल लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी, आजाद भारत के संविधान में पहले दिन से महिलाओं का यह अधिकार सुरक्षित रखा गया। 6 दिसंबर, 1946 को जब संविधान सभा का गठन हुआ तो कुल 296 सदस्यों वाली सभा में 15 महिलाएं थीं। राजकुमारी अमृत कौर, हंसा मेहता, दुर्गाबाई देशमुख, अम्मू स्वामीनाथन, बेगम ऐजाज रसूल, सुचेता कृपलानी, पूर्णिमा बनर्जी, रेनुका रे, एनी मसकैरिनी, कमला चौधरी, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, लीला रॉ और मालती चौधरी जैसी महिलाएं संविधान सभा के सदस्यों में शामिल थीं।
26 जनवरी, 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ तो भारत के प्रत्येक नागरिक के समान अधिकारों को सुनिश्चित किया गया. धर्म, जाति, वर्ग आदि के साथ-साथ लिंग के आधार पर भी किसी भी तरह के भेदभाव को असंवैधानिक करार दिया गया।
संविधान में जिस न्याय, समता और बराबरी की बातें थीं, उसे 36 करोड़ की तत्कालीन आबादी वाले देश पर लागू करना कोई आसान काम नहीं था। संविधान वह मूल भावना थी, जिस पर एक आजाद लोकतांत्रिक देश की नींव रखी गई थी. लेकिन उस विचार और भावना को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए लंबे सांस्कृतिक आंदोलन के साथ-साथ जरूरत थी ठोस कानूनों की।
कानून, जो महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक बराबरी को, अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकें। किसी तरह का भेदभाव होने पर महिला के पास न्यायालय का सुरक्षा कवच हो। आजाद भारत में बनाए गए इन सात कानूनों ने महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- हिंदू मैरिज एक्ट 1955 (हिंदू विवाह अधिनियम 1955)
- हिंदू सक्सेशन एक्ट 1956 (हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956)
- हिंदू अडॉप्शन एंड मेन्टेनेंस एक्ट 1956 (हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956) ।
- स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 (विशेष विवाह अधिनियम, 1954)
- डॉउरी प्रोहिबिशन एक्ट 1961 (दहेज निषेध अधिनियम 1961)
- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971)
- सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ विमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रॉहिबिशन एंड रिड्रेसल) एक्ट, 2013 (कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013)
महिलाओं को अधिकार और बराबरी देने वाले आजाद भारत के सात कानूनों ने जिस न्याय, समता और बराबरी की बुनियाद पर आजाद भारत के संविधान की आधारशिला रखी गई थी, उसे जमीनी हकीकत में बदलने का काम किया।
भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज रहा है, यहां पर पुरूषों को महिलाओं की तुलना में ज्यादा अधिकार दिए गए है। पितृसत्तात्मक समाज के अंतर्गत भारतीय समाज में पुरुषों को महिलाओं की तुलना में सामाजिक, आर्थिक, राजनीति, सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से श्रेष्ठता दी गई है। इस समाज में हमेशा से पुरूषों का वर्चस्व रहा है। मौजूदा परिदृश्य में पुरुष और महिला के मध्य जो असमानताएं देखने को मिलती हैं क्या प्रकृति ने उसे खुद बनाया है या इस पितृसत्तात्मक समाज ने इसे बनाया है। असल में इसे इस पुरुष प्रधान समाज ने बनाया है। इस रुढ़िवादी परंपरा ने स्त्रियों को विवशता की बेड़ियों में जकड़कर रखा है। ऐसी व्यवस्था जहां घर का सबसे बड़ा पुरुष घर का मुखिया माना जाता है और उसका निर्णय प्रभावी होता है। जबकि स्त्री उसके निर्देशों का पालन करती है। इसमें लड़की या स्त्री से ज्यादा लड़के या पुरुष को महत्व दिया जाता है और वही शक्ति का केंद्र होते हैं। चाहे घर पर सबसे बड़ी महिला हो पर व्यवहार में यह व्यवस्था अभी भी नहीं है कि उसकी बात मानी जाए। आज भी बेटे के पैदा होने पर सोहर गाना, केवल लड़का होने पर छठ पूजा करना आदि पितृसत्तात्मक समाज में मौजूद लड़के-लड़की के बीच मौजूद अंतर को दिखाता है।