स्‍मरण कुमार गंधर्व: अजुनी रुसून आहे, खुलतां कळी खुले ना

राघवेंद्र तेलंग

सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता

जीवन से बड़ा शिक्षक और जीवन की पगडंडियों से बड़ा कोई स्कूल नहीं। ऐसा कोई शैक्षणिक संस्थान नहीं जो दावा कर सके कि वह आनंदमय जीवन जीने का कौशल सिखा ही देगा। जीवन की नदी में तैरने का हुनर जानने वाले भी अक्सर दूसरों को बचाने में डूब जाते हैं और यह भी हुआ है कि किनारे खड़े तैराकों के भरोसे बैठे रहकर आप गले तक के पानी में ही डूब जाएं। भरोसा ही ले डूबा एक सच्चा वाक्य है। सबसे भरोसेमंद जो है वह है आत्मविश्वास। अपने आपसे प्रेम करना शुरू करके और खुद से दोस्ती करके अपने आत्मविश्वास को तलाशने की यात्रा शुरू होती है। प्रेम कौशल या हुनर की श्रेणी में नहीं देखा जा सकता। जिस भाव की पथप्रज्ञा में समर्पण हो वहीं अंकुरित होता है प्रेम का बीज।

जीवन के वृत्त के भीतर कई अन्य छोटे वृत्तों का बसेरा है। गणित के वेन डायग्राम की तरह। ईश्वर आपको अपनी उम्र भर के व्यास का व्यापक वृत्त देकर निश्चिंत हो जाता है कि उस वृत्त के अंदर आप नैतिक बोध के जरिए प्रेम की फसल उगा लेंगे। एक बार कृष्ण का प्रकाश जग जाए तो दूरी कोई मायने नहीं रखती।

जिनकी प्रेम की निगाहें होतीं हैं वे बहुत दूर तक देखते हैं तारों को पढ़ते रहते हैं। जैसे प्रेम का सूत संकेतों की भाषा में काता जाता है, फिर प्रेम संबंध की गुंथी हुई डोर बनती है, आप किसी से आबद्ध होते हैं, उसी तरह प्रकृति भी आपकी प्रेयसी है वह लगातार संकेत देती रहती है कि आप उसके रहस्य को बूझें और उसमें प्रवेश करें,शर्त मगर यह है कि आपका उस पर ध्यान भर लग जाए। सारे रिश्ते-नाते समय की परिधि के अंदर सांस लेते हैं। समय बंधनयुक्त जुड़ाव के कारण है और अगर यह बंधन दृष्टव्य रूप में है तो फिर वहां इस बंधन से मुक्त होने की चाह उठना,विद्रोह उठना स्वाभाविक ही है। अतः इस चाह की उम्र सीमित है क्योंकि समय सीमित है। शाश्वत प्रेम में ऐसा बंधन नहीं है सो वह अदृश्य के तार से जुड़ा है उस पर जुड़ाव के प्राकृतिक नियम काम करते हैं। भौतिक दुनिया में इस जुड़ाव की परिभाषा बंधन के रूप में है। यहां आदमी रोज़ बंधता चला जाता है, पैसे, नाते-रिश्ते, चीजें और भी बहुत कुछ से दूरियां भौतिक पैमाने की ही होकर रह जाती हैं। यह प्राकृतिक सूत जिसे प्यार-मोहब्बत और नफ़रत के भावों से काता गया है ये दूरियों के प्रतीक हैं,कम दूरी-अधिक दूरी के। वहीं प्रेम की पराकाष्ठा, थ्रेशहोल्ड की स्टेट में जैसे ही कोई मिटने को तैयार हो जाता है उसी क्षण वह महसूस करता है कि वह तो बना बनाया है, वह तो कभी भी न मिटने के लिए बना है। आज जब प्रेम के विषय पर हम बात कर रहे हैं तो ऐसे में एक ऐसे मराठी भावगीत का विस्तृत उल्लेख करना ज़रूरी लग रहा है जो प्रेमभाव की पराकाष्ठा को बहुत ही बेहतर तरीके से दर्शित करता है।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के शिखर पुरुष और महान गायक पंडित कुमार गंधर्व का गाया वह मराठी भावगीत तो आपने सुना ही होगा जिसकी एक पंक्ति में यह सांकेतिक भाव कहा गया है कि खुलता कळी खुले ना। माधुर्य रस से सिक्त अजून ही रूसून आहे शीर्षक के इस गीत के अंतरे में दर्शाया गया है कि नायिका अभी तक रूठी हुई है, अपने में ही सिमटी हुई है, जैसे खिलने को बेताब कोई एक कली अपने को अभी तक खिलने से रोके हुए है, स्थगित रखे हुए है। कितना महीन अवलोकन है ये,है ना!

आपको बताता चलूं कि इस गीत को मराठी के प्रसिद्ध कवि ए.आर.देशपांडे ‘अनिल’ ने अपनी पत्नी कुसुमवती के प्रति प्रेमाभिव्यक्ति स्वरूप समर्पित करते हुए लिखा था।

क्या कभी आपने सोचा है कि वास्तव में यह खुलना-खिलना आखिर होता क्या है? क्यों मनुष्य के रूपांतरण के पश्चात दृष्टव्य होते उसके सौन्दर्य की उपमा एक कली से फूल बन जाने की कथा के रूप में की जाती है? इक प्यार का नगमा है जैसा अमर गीत लिखने वाले यशस्वी गीतकार संतोष आनंद फिल्म प्रेम रोग के एक गीत में इस बारे में इशारा करते हुए यही तो कहते हैं कि मोहब्बत है क्या चीज हमें भी बताओ…! जिस दिन आपको अपने में कुछ नया-सा घटित होते हुए लगता है उस दिन आप अपने से पूछते फिरते हैं…हमें भी बताओ!

बात शुरू हमने सकुचाती हुई उस कली से की थी जो बस खिलने को है और समय को कसकर पकड़े हुए है। वह इस कदर मासूम है कि उसे लगता है कि समय उसकी मुट्ठी से फिसलेगा नहीं और वह उसे अनंत काल तक थामे रहेगी। तो कवि अनिल एक प्रेमी के रूप में इस भावगीत में आगे यह अभिव्यक्त करते हैं कि इस नायिका की नाराज़गी भी इस कदर है कि उसने जानबूझकर बंद किए होंठ बंद किए हुए एक रहस्यमय चुप्पी धारण की हुई है ऐसी जैसे स्थिर मुद्रा में संकोच और अकड़ से भरी हुई कोई पंखुड़ी।

वे कहते हैं हां ! तुम इसीलिए रूठी हुई हो ना कि मैं हमेशा की तरह आऊं और तुम्हें मनाऊं, यह भेद जाहिर होते ही हर बार मेरी रोती हुई नायिका तत्क्षण सकुचाती हुई अपनी मोतिया हंसी बिखेर देती है। परंतु फिर आज वह स्नेहिल समझाइश घट क्यों नहीं रही है। इस अबूझ भाव का चक्रव्यूह भी है ऐसा कि तोड़े नहीं टूटता। नायिका ने ऐसा अबोला ठान रक्खा है कि बोलते बोल भी नहीं फूट रहे। यह कोई अंडर करंट है जिसकी वजह से नायिका को डिकोड कर पाना आज मुश्किल जान पड़ रहा है,यह कोई ऊपरी तरंग या कारण तो नहीं ही है जिससे समझने में आसानी हो। यह उसके अंतर्मन के ताले की बात है, ऊपरी तौर पर कवच से दीखती अभेद्य। मेरी प्रिये यह कैसा आखिर तुम्हारा रूठना जिसे मैं समझ नहीं पा रहा हूं। एक द्वंद्व प्रेम का जो अंतरंग में दोलायमान होकर वाइब्रेट होता चलता है, गायक के द्वारा श्रोता के मन में हिलोरे लेता है।

अजुनी रुसून आहे शीर्षक के इस मराठी गीत की मूल पंक्तियां इस प्रकार हैं;

अजुनी रुसून आहे, खुलतां कळी खुले ना,
मिटले तसेच़ ओठ की पाकळी हले ना!
समज़ूत मी करावी म्हणुनीच तू रुसावें,
मी हास सांगतांच रड़तांहि तूं हसावें,
ते आज कां नसावे, समजावणी पटेना,
धरिला असा अबोला की बोल बोलवे ना!
की गूढ़ कांहि डाव,वरच़ा न हा तरंग,
घेण्यास खोल ठाव,बघण्यास अंतरंग?
रुसवा असा कसा हा,ज्या आपले कळेना?
अजुनी रुसून आहे, खुलतां कळीं खुले ना!

कवि अनिल के भावों की ही तरह यह कविता भी बिना विचार या बिना देखे छुए जानने के आत्मिक तरीके पर पुख्ता विश्वास को अभिव्यक्त करती है और जता जाती है कि अनुभूति की तरंग से ही जाना गया वास्तव में जानना है, ज्ञान है, अनुभव है।
चलिए आईए इसे एक कविता के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं:

देखना जानना नहीं है
जानना देखे बगैर हो सकता है
जानना समझना भी है
समझना पूरा जानना है
जाने बगैर समझना असंभव
समझना आसान
समझाना हमेशा से मुश्किल।
(शीर्षक:कई क्रियाओं का एक गुच्छा)

आप समझ ही गए होंगे कि हंसध्वनि के इस मंच पर आज का यह आलेख अप्रतिम गायक कुमार गंधर्व को उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर याद करते हुए भावांजलि है।

raghvendratelang6938@gmail.com

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