
सुपरिचित कवि,लेखक राघवेंद्र तेलंग की ‘पापा ने कहा’ शृंखला की 12 कविताएं
/1/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
बेटा!
यह कभी मत भूलना कि
तुम ही मेरी इकलौती बेटी भी हो
मैंने कहा-
मैं समझ सकती हूं मम्मी!
और
उनसे लिपट गया
पापा पहले मुस्कुराए
फिर अपने आंसू पोंछे
मैंने जाना
आ और ई की मात्रा में
जरा भी फर्क नहीं है।
/2/
दुनियादारी सीखते हुए
मैंने पापा से पूछा-
पापा! ऐसा क्यों लगता है कि
लोग सच नहीं बोलते
पापा ने कहा-
ऐसा इसलिए कि
यह सुविधा की दुनिया है
लोग सुविधा के हिसाब से जीते हैं
मैंने कहा-
तो यह सच्ची दुनिया नहीं है पापा?
पापा ने कहा-
यह सिक्कों वाली दुनिया है
जिसके दोनों पहलू कभी एक-से नहीं होते
तभी तो द्वंद्व से
पहिया घूम रहा है
मैंने कहा-
यानी
दोनों के बीच संतुलन में ही दुनिया का सच है
पापा ने कहा- हां!
फिलहाल पूरे तराजू की तरह सोचो
एक पलड़े की तरह नहीं
सीधी-सी बात समझाकर
पापा मुस्कुराए!
/3/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
हम सब अपनी नाव के नाविक हैं
तैरना सबको आना चाहिए
मैंने कहा-
पापा!
समंदर तो हमसे बहुत दूर है
हमारे यहां तो
चिकनी सड़क है,चमचमाती गाड़ी है!
पापा ने कहा-
यह अपने हाथ में
अपनी कमान लेने के बारे में है
इसके पहले कि
समंदर से उठा तूफान
तुम्हें डुबोने यहां आ जाए
पहले ख़ुद बचना सीखो
फिर
दुनिया की फ़िक्र करो
सावधान!
दुनिया वैसी नहीं है
जैसी वह अपने को दिखाती है!
/4/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
बिट्टू तूने गौर किया!
यहां हर कोई
ढोल बजाते हुए
अपने नाम और दाम को ढो रहा है
कभी सोचा!
ऐसा क्यों है?
मैंने कहा-
क्योंकि सब बेचने में लगे हैं
अपने को भी
पापा ने कहा-
हां! गुड्डी
लोगों को
बिना नाम और चेहरे के देखना सीख
भीतरी तरंग को पढ़ना सीख
तू कब्भी धोखा नहीं खाएगी
गरीबी चेहरों की समझ जाएगी
सही सलामत
घर पहुंच जाएगी।
/5/
दुनियादारी सीखते हुए
पापा से मैंने पूछा-
कुछ अधूरा है सबके भीतर
तभी हर कोई बेचैन-सा
बाहर भटक रहा है
यह क्या है?
पापा ने कहा-
अपने से बाहर जीवन में प्राण कहां
ऐसे में तो वह फिर लाश की तलाश है
मैंने कहा- तो फिर!
पापा ने आगे कहा-
कुंआ जहां है
वहीं अंदर उसकी प्यास है
ये महसूस करने की बात है
और कहीं नहीं
सच पहले से ही वहीं है
ये भटकन
बेकार की तलाश है?
पापा ने आखीर में कहा-
मेरे बच्चे!
और कहीं नहीं
तू तेरे ही आसपास है।
/6/
दुनियादारी सीखते हुए
पापा से मैंने पूछा-
जीवन में दु:ख है तो क्यों है?
पापा ने बताया-
यह मैं-मेरा की दुनिया है
जो सबका हक़ और खुशी छीन लेती है
सो दु:ख है
पापा ने आगे कहा-
लेकिन!
दु:ख के पास एक हथौड़ा है
जिसने ही ‘मैं’ के दर्पण को तोड़ा है
मैंने पूछा-तो?
पापा ने बात पूरी की-
ये तो वो सदा का बचा आख़िरी ‘मैं’ था
जिसने अपने हर टूटे हुए को
टुकड़ा-टुकड़ा
फिर से जोड़ा है
और
नया वह बनाया है
जो कहता है-
वो मैं नहीं!
मैं मुस्कुराई समझ गई-
सच ही तो है!
‘मैं’ मर जाए तो दु:ख कहीं भी नहीं
कभी भी नहीं।
/7/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
बिटिया! किसी एक फूल का नाम लो
मैंने कहा-गुलाब!
मेरी समझ को समझकर
पापा भीगी आंखों में मुस्कुराए
हां!
सुगंधित जीवन जीने के लिए
कांटों से भी
निबाह जरूरी है
और
यह कहने की बात नहीं है।
/8/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
बिटिया!
हमने तुझे पनपने को ज़मीन दी
हो सके तो
तू भी किसी को
अपना आसमान देना
मैंने कहा-
जरूर पापा!
जिसके साथ से मेरे पंख उगेंगे
मेरा आसमान भी
उसी के नाम होगा।
/9/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
जीवन अनुभव है
अनुभव ही रस है
रस यह
अपनी मिट्टी में घोलो
अपने को बो लो
फिर बोलने को अपने फल को बोलो
पापा ने बात पूरी की-
पके हुए ऐसे हरेक फल की बानी सुनो!
मीठा-सा लगता
यही जीवन संगीत है।
/10/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
सदा सच बोल! कि तू कुछ नहीं जानता
मैंने कहा-
मैं कुछ नहीं जानता
सुनकर पापा मुस्कुराए फिर कहा-
यही तो!
सारा जानना यही है
कि
‘मैं कुछ नहीं जानता’।
/11/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
जीवन से बड़ी कोई किताब नहीं
मगर इसे अपनी रोशन नजर से पढ़ना
मैंने कहा-
जरूर पापा!
अपना सूरज उगाना
आपके साथ ने सिखा ही दिया
अब!
अब हमारी बारी है।
/12/
दुनियादारी सिखाते हुए
पापा ने कहा-
हर बार आकर मैं क्या कहना चाहता हूं
क्या तुझे पता है? बिटिया!
मैंने कहा-हां,पापा!
यही कि एक दिन सबको जाना है
सुनकर पापा मुस्कुराए
भीगी आंखों से विदा कहा
फिर कहा-
समय हो रहा है
चलता हूं
तुम दोनों खुश रहो
फिर
जाते हुए सूरज को
हमने फिर
प्रणाम किया।
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