मंच पर ‘बूढ़ी काकी’: काकी का अधीर मन और इच्छा का प्रबल प्रवाह

बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वास्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियां, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे! पृथ्वी पर पड़ी रहती। और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता, अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थी। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।

बचपन में पढ़ी यह कहानी तो आपको याद होगी? कथा सम्राट प्रेमचंद की प्रख्‍यात कहानी ‘बूढ़ी काकी’। यह कहानी कई स्‍तरों पर मन को छूती है और इसके कई बिम्‍ब के रूप में हमारे साथ चलती है। इस प्रख्‍यात कहानी को भी अलग-अलग निर्देशकों ने मंच पर भी प्रस्‍तुत किया है। इस बार मध्‍य प्रदेश के झाबुआ जिले के रायपुरिया में स्थिति संपर्क बुनियादी शाला के कक्षा 10 वीं के बच्‍चों ने वार्षिकोत्‍सव में इसे मंचित किया। ‘बूढ़ी काकी’ कहानी का नाट्य रूपांतरण,निर्देशन व संवाद लेखक विद्यालय की सूत्रधार सुश्री प्रक्षाली देसाई ने बच्चों के साथ मिलकर किया।

अपनी सक्रियता से अचंभित करने वाली प्रक्षाली देसाई ने ही बूढ़ी काकी के किरदार को मंच पर सजीव किया। वे बताती हैं कि बहुत सालों के अंतराल के बाद एकबार फिर अभिनय किया। नाटक की विधा रंगमंच का मेरा पहला प्रेम रहा है हमेशा… नृत्य मेरे लिए दूसरे नंबर पर ही रहा। वैसे भी जिस व्यक्ति ने रंगमंच का रंग पहली बार मुख पर पोता है…वह कभी उतरता नहीं।

12 मिनट में ‘बूढ़ी काकी’ कहानी की संवेदना को प्रस्‍तुत करने का जतन अनूठा है।आप भी देखिए, यह प्रस्‍तुति भा जाने वाली है।

मंच पर प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’

One thought on “मंच पर ‘बूढ़ी काकी’: काकी का अधीर मन और इच्छा का प्रबल प्रवाह

  1. कहानी पढ़ते हुए, पढ़ाते हुए हर बार काकी की बेचारगी द्रवित करती है।
    स्वार्थी रिश्तों के ताने-बाने के सत्य को उजागर करती हुई कहानी का बेहतरीन मंचन हुआ है।

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