
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
अपने होने का सबूत देना भी ज़रूरी
किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता,
मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ, ज़िंदा क्यूँ नहीं होता।
बहुत बारीकी से ज़िन्दगी के अलहदा हिस्सों को पकड़ने वाले शाइर राजेश रेड्डी का यह शेर सादगी के साथ गंभीरता का रंग लिए हुए है। लफ़्ज़ों पर ग़ौर किया जाए यह शेर एक ऐसे करिश्मे के न होने पर अफ़सोस जताता है जो जागने और ज़िन्दा होने के बीच के फ़र्क को ख़त्म करता है। मगर यह शेर सिर्फ़ यहीं तक महदूद नहीं है। इसके बहुत से अक़्स उभर कर सामने आते हैं। यह बहुत सलीस लहजे में कहा गया ऐसा शेर है जो ज़िन्दगी के उस फलसफे की तरफ ले जाता है जहां ज़िन्दगी के सही मायने समझ में आते हैं।
हम इंसानों की ज़िन्दगी में बदलाव बहुत से तरीकों से होते हैं। अक्सर इन बदलावों को चमत्कार की संज्ञा दे दी जाती है। यहां शाइर द्वारा शेर में उपयोग किए गए ‘करिश्मा’ पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। अमूमन ज़िन्दगी में जब कुछ अप्रत्याशित घटनाक्रम होता है तो यह कहा जाता है कि ये करामात है या फिर मोजज़ा है या चमत्कार है या करिश्मा है। मगर शाइर यहां इन सभी में बहुत ख़ूबसूरती से अंतर करते हुए यह समझा रहा है कि हर अप्रत्याशित घटनाक्रम वह नहीं होता है जैसा वह समझा जाता है। यह सब अलग-अलग बातें हैं। शाइर ने जब यहां करिश्मा का ज़िक्र किया है तो वह करिश्मा को बाकी सबसे अलग करता है। वह कह रहा है कि करिश्मा एक व्यक्ति का गुण है, जबकि चमत्कार और मोजज़ा दोनों ही अलौकिक घटनाओं को संदर्भित करते हैं। चमत्कार ईश्वरी शक्ति से होते हैं और मोजज़ा पाक अवतरित शक्ति के ज़रिए होने वाले अविश्वसनीय कार्य हैं।
करिश्मा एक इंसान ही कर सकता है। वह उसकी नीयत और मेहनत से संभव होता है। शाइर अगर कह रहा है कि ज़िंदा होने और जागने में फ़र्क है तो इसे समझना होगा।
किसी की ज़िंदगानी में करिश्मा अगर होता है तो वह उसकी सोच और समझ से ही होता है। यदि इंसान ठान लेता है तो उसकी ज़िन्दगी में कुछ ऐसे करिश्मे हो जाते हैं जिनकी वह कल्पना भी नहीं करता है , सिर्फ़ उसके लिए अपनी कोशिशें करता है।
जागना एक नैसर्गिक क्रिया है और ज़िंदा होना व्यक्ति की अपनी कोशिश का नतीजा। शाइर कह रहा है कि इंसान को अपनी दिनचर्या जागने की तरफ तो ले आती है लेकिन जागने के बाद एक इंसान ऐसा कुछ नहीं कर पाता कि वह ज़िंदा भी महसूस हो। यहां शाइर उन लोगों पर भी तंज़ कर रहा है जो ज़िंदा होकर भी मुर्दों की तरह ज़िन्दगी बिताते हैं। जिनकी ज़िन्दगी में न कोई ख़्वाब होता है, न ख़ुद को मुकम्मल करने की चाहत। जो सिर्फ़ अपनी ज़िन्दगी को ढोते हैं, समय को काटते हैं और बिना किसी भूमिका के अपनी तमाम उम्र बिता देते हैं। शाइर की उंगली ऐसे लोगों की तरफ़ ही उठ रही है जो अपनी ज़िन्दगी में ज़िंदा होकर भी ज़िंदा महसूस नहीं कर पाते। जो अपनी ज़िन्दगी को समझ ही नहीं पाते और सिर्फ़ सांस लेने को ज़िंदा होने का सबूत मानते हैं, जबकि असलियत में ज़िंदा होना अपने होने को साबित करना है। ज़िंदा होना इंसान होने को साबित करना है।
शाइर हर दिन जागने की बात कर रहा है। यह हर ज़िंदा मनुष्य करता है। इसके बावजूद वह यह नहीं समझ पाता कि रात के बाद सवेरा होता है। अंधेरे के बाद उजाला आता है। और यह सब एक नई ज़िन्दगी के होने की सूचनाएं हैं। गहरी नींद के बाद इंसान का जागना एक नई ज़िन्दगी की तरह है। काली रातों को काटकर जो उजाला फैलता है वह अपने ज़िंदा होने का सबूत देता है। एक लंबे संघर्ष के बाद काली रातों से लड़ते हुए उजाला अपने होने को महसूस कर पाता है जो उसे ज़िंदा होने का सबूत देते हैं। यह सब कुछ हर रोज़ हो रहा है मगर इंसान इसे देखकर भी यह महसूस नहीं कर पा रहा है कि वह रोज़ जागने के बाद भी ज़िंदा क्यों नहीं हो पा रहा है। अपने होने को साबित नहीं कर पा रहा है। यानी उसका जीवन निरर्थक हो रहा है।
चलता-फिरता हाड़-मांस का पुतला जीवित ज़रूर कहलाता है लेकिन वह ज़िंदा नहीं होता। शाइर ज़िन्दगी के इसी फलसफे की तरफ़ बहुत गहराई से अपनी बात पहुंचा रहा है।
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