
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि, अनुवादक रतन चौहान की शख़्सियत को समझने के लिए उन रास्तों की पड़ताल करना बेहद ज़रूरी है, जिनसे गुज़र कर रतन चौहान रचनाकार रतन चौहान बने। बेहद सहज, सरल और सौम्य प्रवृत्ति के प्रो. रतन चौहान के कृतित्व और व्यक्तित्व पर केंद्रित पुस्तक ‘उजली सुबह की आस में’ का विमोचन 12 अक्टूबर रविवार को रतलाम में हो रहा है। बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का संपादन साहित्यकार आशीष दशोत्तर ने किया है। संपादक आशीष दशोत्तर द्वारा लिखा गया यह आलेख रतनजी के व्यक्तित्व से रूबरू करवाता है।
कालिदास और तिलोत्तमा या विद्योत्तमा के बीच का संवाद एक प्रसिद्ध भारतीय कथा है। इस कथा के बीच आज के वरिष्ठ कवि और अनुवादक प्रो. रतन चौहान के जीवन की भी एक महत्वपूर्ण कथा छिपी हुई है। इस कथा से गुज़रें तो पता चलता है कि एक बेहतरीन रचनाकार, वक्ता बनने से पहले हर किसी को किन-किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
यह उस समय की बात है जब विद्यार्थी रतन चौहान रतलाम के दरबार हाई स्कूल यानी आज के माणक चौक हायर सेकेंडरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। विद्यालय के साहित्यिक आयोजन के अंतर्गत उन्हें कालिदास और तिलोत्तमा के बीच हुए संवाद की प्रस्तुति देना थी।
यह सर्वविदित है कि यह संवाद इन महान व्यक्तित्वों की विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता और अहंकार के बीच के टकराव को दर्शाता है। इस संवाद से महाकवि कालिदास के ज्ञान के महत्व को समझा जा सकता है। विद्यार्थी रतन चौहान ने इस संवाद को बहुत अच्छी तरह याद किया और आयोजन वाले दिन अपनी बात कहने के लिए खड़े हुए। विद्यार्थी रतन चौहान अपने सहपाठियों के समक्ष अपनी बात कह रहे थे। एक दुबले-पतले, छरहरे लड़के, जिसकी आवाज बहुत पतली थी, वह इस प्रसंग को सभी के सामने सुनाते हुए कहने लगा, ‘तिलोत्तमा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा, वह उसी के साथ विवाह करेगी। जब तिलोत्तमा ने शास्त्रार्थ में सभी विद्वानों को हरा दिया तो हार को अपमान समझकर कुछ विद्वानों ने बदला लेने के लिए तिलोत्तमा का विवाह महामूर्ख व्यक्ति के साथ कराने का निश्चय किया। उन्हें एक वृक्ष दिखाई दिया जहां पर एक व्यक्ति जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। उन्होंने सोचा कि इससे बड़ा मूर्ख तो कोई मिलेगा ही नहीं। उन्होंने उसे राजकुमारी से विवाह का प्रलोभन देकर नीचे उतारा और कहा- ‘ तिलोत्तमा से हम तुम्हारा विवाह करवा सकते हैं। बस तुम मौन धारण कर लो और जैसा हम कहते हैं वैसा ही करना।’
उन लोगों ने विद्वान बना कर कालिदास को तिलोत्तमा के सामने प्रस्तुत किया और कहा, ‘ हमारे गुरु आप से शास्त्रार्थ करने के लिए आए हैं। गुरुजी अभी मौनव्रती हैं, इसलिए हाथों के संकेत से उत्तर देंगे। इनके संकेतों को समझ कर वाणी में आपको उसका उत्तर हम देंगे। शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ।’
यहां तक तो विद्यार्थी रतन चौहान अपनी बात बहुत प्रभावी ढंग से कहते रहे। इसके बाद कहने लगे, ‘ तिलोत्तमा मौन शब्दावली में गूढ़ प्रश्न पूछने लगी। प्रथम प्रश्न के रूप में तिलोत्तमा ने संकेत से एक उंगली दिखाई कि ब्रह्म एक है। परंतु कालिदास ने समझा कि ये राजकुमारी मेरी एक आंख फोड़ना चाहती है। क्रोध में उन्होंने दो अंगुलियों का संकेत इस भाव से किया कि तू मेरी एक आंख फोड़ेगी तो मैं तेरी दोनों आंखें फोड़ दूंगा।’
यहां विद्यार्थी रतन चौहान की जैसे ही दो उंगलियां उठीं, वे उठी ही रह गईं। इसके बाद क्या बोलना है, कुछ याद नहीं आया। घबराहट इतनी थी कि न तो कुछ याद आ रहा था और न ही उंगली नीचे हो रही थी।
उस दौर में हूटिंग भी काफी होती थी। कोई विद्यार्थी भाषण भूल जाता था तो साथी शोर कर उसे और घबरा देते थे। वहां भी विद्यार्थी चिल्लाने लगे, ‘ अरे बैठ जा, बैठ जा।’ …. ‘ हाथ नीचे कर दे।’ …… ‘ कालीदास ऐसे ही खड़ा रहेगा तो तिलोत्तमा कैसे मिलेगी?’
इस शोरगुल में, जो याद आना था , वह भी नहीं आ रहा था। हूटिंग होते देख विद्यार्थी रतन चौहान की आंखों से आंसू बहने लगे। वह भागे-भागे विद्यालय की छत पर बने कमरे में पहुंचे। यहां विद्यार्थी रतन चौहान काफी समय तक फूट-फूट कर रोते रहे ।
इस असफलता ने रतन जी को व्यथित तो किया लेकिन इसी घटना ने सफलता के नए द्वार खोले। इस स्कूल से शिक्षा प्राप्त कर रतन जब महाविद्यालय में पहुंचे तो महाविद्यालय में उन्होंने फिर से कालिदास पर अपना भाषण तैयार किया। इस बार हिंदी में नहीं अंग्रेज़ी में भाषण देने की चुनौती स्वीकारी। वहां कालिदास पर उन्होंने जो धाराप्रवाह भाषण दिया तो पूरे महाविद्यालय में चर्चा का केंद्र बन गए। विद्यार्थी चर्चा करने लगे, ‘एक नया लड़का आया है, जिसकी लड़कियों जैसी आवाज है लेकिन अंग्रेज़ी में बोलता बहुत अच्छा है।’

तिलोत्तमा की उलाहना के बाद जिस तरह कालिदास विद्वान बनाकर लौटे और दरवाजे पर पहुंचकर आवाज़ दी थी, ‘ सुंदरि:! अनावृत्त कपाटम् द्वारं देहि! कपाटम् उद्धाट्य।’ ठीक वैसे ही स्कूल की असफलता और उलाहना ने रतन को भी मज़बूत बनाया। उन्होंने भाषण में अपने प्रदर्शन के बाद साहित्य जगत के द्वार पर दस्तक दी और कहा, ‘ साहित्य जगत में प्रवेश करने के लिए मैं तैयार हूं। ‘
साहित्य जगत भी उनकी प्रतिभा को देखकर चकित रह गया। देखते ही देखते वे कॉलेज के प्रतिभावान विद्यार्थियों में शामिल हो गए और फिर सफलता का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज देश के प्रभावी कवि, अनुवादक, कथाकार, रचनाकार के रूप में हमारे समक्ष है।
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