चौड़ी सड़कों और लंबी सुरंगों से आती तबाही

जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ

पूरे भारत में,विशेषकर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और केरल में मौत और तबाही का भयावह तांडव चल रहा है। एक आपदा पीछे नहीं जाती, दूसरी आ खड़ी होती है। यह सब जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। लेकिन जो चीज इसे और विकराल बना रही है, वह है नफा-नुकसान सोचे बिना ‘विकास’ के नाम पर हो रहे बड़े पैमाने पर ताबड़तोड़ निर्माण।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बेंगलुरु के वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी देते रहे हैं। वे कहते हैं, “सड़कें चौड़ी करनी हों या लंबी सुरंगें बनाना, अधिकारियों ने हमारे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर उसकी वहन क्षमता से ज्यादा बोझ डालने की अनुमति देने में कोताही नहीं की। ऐसे मानवीय हस्तक्षेपों के दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने हैं। सच है कि केंद्र और राज्यों- दोनों सरकारों का जोर विकास के त्रुटिपूर्ण मॉडल पर है। बार-बार हिमस्खलन और बाढ़ प्राकृतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं लेकिन पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में यही बड़ी आपदा बन जाते हैं।

केरल, जो कभी अपनी हरियाली और खूबसूरत मानसून के लिए जाना जाता था, अब इन महीनों के दौरान मौसम की अनिश्चितताओं के कारण होने वाली त्रासदियों का सामना कर रहा है। पिछले एक दशक में, राज्य ने जलवायु-प्रेरित कई आपदाओं को देखा है, जो जलवायु-लचीले बुनियादी ढांचे की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है। केरल राज्य के इतिहास की अब तक की सबसे भयावह पर्यावरण आपदा में वायनाड जिले के चूरलमाल, मुंडक्कई, अट्टमाला और नूलपुझा गांवों में भूस्खलन से 400 से अधिक लोगों की मौत हुई और कितने ही घर, दुकानें, पर्यटक रिसॉर्ट और पुल नष्ट हो गए।

केंद्र सरकार द्वारा गठित और प्रसिद्ध पारिस्थितिकी विज्ञानी माधव गाडगिल की अध्यक्षता वाले पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल ने पश्चिमी घाट का 75 प्रतिशत, यानी (गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और केरल में फैले) 129,037 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने की सिफारिश की थी। लेकिन हुआ क्या? गाडगिल की रिपोर्ट केरल सरकार ने ‘विकास विरोधी’ बताकर खारिज कर दी। संरक्षण के बुनियादी सिद्धांत हवा में उड़ा दिए गए क्योंकि भारी पैमाने पर सड़क निर्माण, अवैध उत्खनन और बढ़ते वाणिज्यिक वृक्षारोपण के लिए पहाड़ियां समतल हो रही थीं। निर्माण की तेज रफ्तार ने मिट्टी को ढीला कर दिया। नतीजा वर्षा के साथ मिलकर भूस्खलन था जिसका भयावह रूप सामने है। गाडगिल इसे “एक मानव निर्मित आपदा” कहते हैं।

राष्ट्रीय पृथ्वी विज्ञान अध्ययन केन्द्र, तिरुवनंतपुरम के अनुसार, वायनाड-कोझिकोड सीमा दुनिया के सर्वाधिक भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में से है। 1992 में हुए कप्पिकलम भूस्खलन में 11 लोगों की मौत हुई जबकि 2007 में वालमथोड भूस्खलन में चार लोगों की जान गई। 2020 में मलप्पुरम के कवलप्पारा और वायनाड के पुथुमाला में बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुए और 60 मौतें हुईं।
बीते दो दशकों में हर आपदा से पहले वैज्ञानिकों की चेतावनियां नजरअंदाज की गई हैं। ताजा घटना अपवाद नहीं। पुथुमाला गेज ने 48 घंटों में 572 मिमी बारिश दर्ज की थी। 30 जुलाई के भूस्खलन से 16 घंटे पहले, यानी 29 जुलाई को कलपेट्टा में ह्यूम सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड वाइल्डलाइफ बायोलॉजी ने सुबह 9.30 बजे भूस्खलन की चेतावनी जारी की। आपदा प्रबंधन और राज्य की दोनों एजेंसियों को चेतावनी मिली लेकिन वे जिला प्रशासन और स्थानीय लोगों को सचेत करने में विफल रहे।

दरअसल, केरल का यह भूस्खलन भू-उपयोग में बड़े पैमाने पर हुए बदलाव का दुष्परिणाम है। पिछले दस वर्षों में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील सिर्फ कैमल हंप पर्वत के आसपास ही 500 रिसॉर्ट बने हैं। बारिश का पैटर्न भी बदला है और बहुत ज्यादा वर्षा हो रही है।”

जानते हुए भी कि यह क्षेत्र कितना असुरक्षित है, सरकार पुथुमाला को मुथप्पमपुझा से जोड़ने वाली सुरंग की 3,500 करोड़ रुपये की योजना पर आगे बढ़ रही है। 8.17 किलोमीटर लंबी इस सुरंग पर पर्यावरण और समाजशास्त्रीय प्रभाव को समझने के लिए अध्ययन की जरूरत नहीं समझी गई। यह पश्चिमी घाट को और ज्यादा अस्थिर करने वाला हो सकता है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने पश्चिमी घाट को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ईएसए) घोषित करने के लिए एक मसौदा अधिसूचना जारी की है, जिसमें वायनाड के गांव भी शामिल हैं। पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ईएसए) वर्गीकरण का प्रस्ताव छह राज्यों और पश्चिमी घाट के 59,940 वर्ग किमी (क्षेत्र का लगभग 37%) को कवर करता है। अगर अधिसूचना को अंतिम रूप दिया जाता है, तो निर्दिष्ट क्षेत्रों में खनन, उत्खनन, रेत खनन, ताप विद्युत संयंत्रों और प्रदूषणकारी उद्योगों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। यह एक निश्चित सीमा से ऊपर नई निर्माण परियोजनाओं और टाउनशिप विकास पर भी रोक लगाएगा।

नवीनतम मसौदा जुलाई 2022 में जारी किए गए मसौदे के समान है। यह कदम 2011 में प्रख्यात पारिस्थितिकीविद् माधव गाडगिल के नेतृत्व वाले पैनल द्वारा पहली बार इस तरह के सीमांकन की सिफारिश किए जाने के 13 साल बाद उठाया गया है। तब से, प्रस्तावित संरक्षित क्षेत्र मूल 75% सिफारिश से घटकर वर्तमान 37% हो गया है।

मसौदे में कहा गया है: “20,000 वर्ग मीटर और उससे अधिक के निर्मित क्षेत्र के साथ भवन और निर्माण की सभी नई और विस्तारित परियोजनाएं, और 50 हेक्टेयर और उससे अधिक क्षेत्र या 150,000 वर्ग मीटर और उससे अधिक के निर्मित क्षेत्र के साथ सभी नई और विस्तारित टाउनशिप और क्षेत्र विकास परियोजनाएं प्रतिबंधित होंगी।इसके अतिरिक्त, जलविद्युत परियोजनाओं और कम प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को विनियमित किया जाएगा तथा एक निगरानी तंत्र स्थापित किया जाएगा।

मसौदा अधिसूचना के अनुसार, प्रस्ताव को स्वीकार करना या अस्वीकार करना पश्चिमी घाट की राज्य सरकारों (गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु) पर निर्भर है। पर्यावरण संरक्षण के इस दीर्घकालिक प्रयास का परिणाम अनिश्चित बना हुआ है, क्योंकि भारत के सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक में संरक्षण की ज़रूरतें विकास संबंधी आकांक्षाओं से टकरा रही हैं।अधिसूचना में यह स्वीकार किया गया है कि पश्चिमी घाटों के संरक्षण प्रयासों का इतिहास 2011 में गाडगिल पैनल की सिफारिश से शुरू होता है, जिसमें 129,037 वर्ग किलोमीटर की पर्वत श्रृंखला के 75% हिस्से को कवर करने की बात कही गई थी। इस सुझाव का कई राज्यों ने विरोध किया, क्योंकि उन्हें लगा कि यह बहुत ज़्यादा प्रतिबंधात्मक है। रॉकेट वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली दूसरी समिति ने 2013 में समग्र पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र को घटाकर 50% कर दिया, लेकिन इसकी सिफारिशों को भी कभी पूरी तरह से लागू नहीं किया गया।

शोध फर्म आईपीई-ग्लोबल के जलवायु परिवर्तन और स्थिरता के अनुसार कोई भी भूदृश्य-आधारित क्षेत्रीकरण महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आपको इस बात का बफर देता है कि भूदृश्य का कितना हिस्सा बहाल और पुनर्जीवित किया जा सकता है। इसके अलावा, यह किसी भी तरह के अतिक्रमण को रोकता है, जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन जैसे कठोर प्रभावों के खिलाफ कुछ सुरक्षा मिलती है। पश्चिमी घाट जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं। वास्तव में, भारत का कोई भी जिला इससे अछूता नहीं है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में पश्चिमी घाट पर जोखिम परिदृश्य में समग्र परिवर्तन थोड़ा धीमा है। इसका मुख्य कारण यह है कि पश्चिमी घाट में प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का प्रभाव अधिक है।”

जलवायु विशेषज्ञों के अनुसार, अरब सागर के गर्म होने के कारण हुई अत्यधिक भारी बारिश के कारण भूस्खलन हुआ। दक्षिण-पूर्वी अरब सागर गर्म हो रहा है, जिससे केरल सहित पश्चिमी घाट के बड़े हिस्से में वायुमंडलीय अस्थिरता पैदा हो रही है। गहरे बादलों वाले वर्षा वाले क्षेत्र दक्षिण की ओर बढ़ रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक वर्षा हो रही है।

2019 में केरल के पहाड़ी क्षेत्रों में भी इसी तरह की त्रासदी हुई थी। विशेषज्ञों की स्पष्ट चेतावनियों के बावजूद, अनियंत्रित निर्माण और पर्यटन संबंधी गतिविधियाँ बेरोकटोक जारी हैं। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध वायनाड एक इको-टूरिज्म हॉटस्पॉट बन गया है, जिसके कारण यहां निर्माण गतिविधियाँ बढ़ गई हैं। रिसॉर्ट्स की भरमार हो गई है, सड़कें बन गई हैं, सुरंगें खोदी गई हैं और वायनाड की वहन क्षमता का उचित आकलन किए बिना ही उत्खनन गतिविधियां शुरू कर दी गई हैं।

केरल का लगभग आधा हिस्सा पहाड़ियों और पर्वतीय क्षेत्रों से बना है, जिनकी ढलान 20 डिग्री से अधिक है, जिससे ये क्षेत्र भारी बारिश के दौरान भूस्खलन के लिए विशेष रूप से प्रवण हो जाते हैं। राज्य को जलवायु के अनुकूल बनाने के अलावा, भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में भूमि उपयोग परिवर्तनों और विकास गतिविधियों का मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है। भूस्खलन और अचानक बाढ़ अक्सर उन क्षेत्रों में होती है जहाँ जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग में मानवीय हस्तक्षेप दोनों का प्रभाव स्पष्ट होता है।

वायनाड में घटते जंगलों पर 2022 के एक अध्ययन से पता चला है कि 1950 और 2018 के बीच जिले का 62 प्रतिशत हरित क्षेत्र गायब हो गया, जबकि वृक्षारोपण क्षेत्र में लगभग 1,800 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित अध्ययन ने संकेत दिया कि 1950 के दशक तक वायनाड के कुल क्षेत्रफल का लगभग 85 प्रतिशत वन क्षेत्र के अंतर्गत था। अब, यह क्षेत्र अपने व्यापक रबर बागानों के लिए जाना जाता है। भूस्खलन की तीव्रता रबर के पेड़ों की वजह से बढ़ी, जो रोपण से पहले के घने वन क्षेत्र की तुलना में मिट्टी को थामे रखने में कम प्रभावी हैं।

संवेदनशील क्षेत्रों में बिना सोचे-समझे किए गए निर्माण ने देश भर में, खासकर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसी आपदाओं में बहुत योगदान दिया है। विशेषज्ञों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि केरल में सड़कों और पुलियों के व्यापक निर्माण में वर्तमान वर्षा पैटर्न और तीव्रता को ध्यान में नहीं रखा गया है, बल्कि पुराने डेटा पर भरोसा किया गया है। बाढ़ को रोकने के लिए निर्माण में नए जोखिम कारकों पर विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि कई संरचनाएं नदी के प्रवाह को समायोजित करने में विफल रहती हैं, जिससे महत्वपूर्ण विनाश होता है। अवैज्ञानिक निर्माण प्रथाएं वर्तमान विनाश का एक प्रमुख कारण हैं।
पश्चिमी घाट को पारिस्थितिक रूप से कमज़ोर क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारतीय विज्ञान संस्थान के विशेषज्ञों द्वारा हाल ही में किए गए शोध ने पश्चिमी घाट के 1.6 लाख वर्ग किलोमीटर को चार पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (ESR) में विभाजित किया है। वनों की कटाई, नियंत्रित वनों की कटाई और टिकाऊ कृषि जैसे स्थायी भूमि-प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा देना पहाड़ी स्थिरता बनाए रखने और मिट्टी के कटाव को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है, जिससे भारी बारिश के प्रभाव को कम किया जा सके।
हिमाचल और उत्तराखंड में तो स्थिति और खराब है जहां लगता है कि 2013 की केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं सीखा गया जिसमें 5,000 से अधिक मौतें हुईं थीं। सरकार ‘धार्मिक पर्यटन’ को बढ़ावा दे रही है। हर साल 45 लाख यात्री यहां आते हैं। उनकी यात्रा सुविधा के लिए व्यापक सतर पर 900 किलोमीटर लंबी चारधाम राजमार्ग परियोजना शुरू हुई। तथाकथित ‘हर मौसम के लिए अनुकूल’ ये सड़कें न सिर्फ तूफानों का सामना करने में विफल रहीं, इनके निर्माण ने पहाड़ी ढलानों को और कमजोर कर दिया। भूस्खलन या नदियों के उफान में हर साल सैकड़ों यात्री जान गंवा देते हैं।

पिछले साल भारी बारिश और बादल फटने के बीच एक दिन में आठ से ज्यादा भूस्खलन हुए। इसी 31 जुलाई को केदारनाथ के पास जंगलचट्टी में बारिश से तबाह ट्रैकिंग मार्ग पर बादल फटने से 17 तीर्थयात्रियों की मृत्यु हुई जबकि 10,000 से अधिक लोग फंस गए। गौरीकुंड और केदारनाथ के बीच 25 किलोमीटर का मार्ग बह गया और यात्रा अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई। 1 जुलाई की रात हिमाचल में एक साथ चार स्थानों पर बादल फटे जिससे भारी बाढ़ आ गई और मलाणा पावर प्रोजेक्ट स्टेज 1 बांध टूट गया। भारी जलभराव हुआ और व्यापक क्षति हुई। उसी रात, समेज (शिमला जिले के रामपुर क्षेत्र में झाकड़ी के पास) में 6 मेगावाट बिजली परियोजना के करीब बादल फटा जिसमें दो लोगों की मृत्यु हुई और 34 लापता बताए गए। समेज खाद में बादल फटने से 11 सदस्यीय परिवार के 9 सदस्यों ने जान गंवा दी।

मंडी, सोलन, शिमला और कुल्लू में बादल फटने की घटनाओं में 26 मौतें हुईं। पूरा का पूरा रामपुरन गांव बह गया। ऐसे क्षेत्र में बादल फटने की घटनाओं में अचानक हुई वृद्धि को कोई कैसे समझ सकता है, जहां पहले ऐसा कभी-कभार ही होता था। अध्ययनों से संकेत मिलता है कि हाल के वर्षों में संभवतः मानवजनित गतिविधियों में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के कारण ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। पहाड़ों में गर्मी और बारिश दोनों बढ़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन की बढ़ती प्रवृत्ति ने समुद्र से हिमालय क्षेत्र की ओर नमी से भरी हवा के लिए बड़े पैमाने पर रास्ता खोला है। इससे हिमालय पर्वत के ऊपर ऊर्ध्वाधर परिसंचरण बदल जाता है जो बादल फटने का कारण बनता है। 2024 के मानसून सीजन में हिमाचल क्षेत्र में अब तक 73 मौतें हो चुकी हैं और 648 करोड़ रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ है।

दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों का सिद्धांतहीन एवं अत्यधिक दोहन; वायु, जल, मृदा एवं ध्वनि प्रदूषण; जलवायु परिवर्तन और मानव जीवन पर इसका प्रतिकूल प्रभाव; विकिरण स्तर में वृद्धि; ओजोन परत का क्षरण; तथा पारिस्थितिकी तंत्रों पर दबाव एवं गड़बड़ी, इन सभी ने इस तथ्य को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर दिया है कि विगत सामाजिक-आर्थिक विकास, वास्तविक विकास नहीं रहा है।इसकी मानवीय कीमत बहुत ज़्यादा है। इसने सामाजिक-आर्थिक-पर्यावरणीय असंतुलन की स्थिति पैदा कर दी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *