तुम पकौड़े तलना सीखो के दौर में श्रद्धा निधि

– टॉक थ्रू टीम

समाज भले ही शिक्षक को सम्‍मान देना, तंत्र अपनी इस महत्‍वपूर्ण इकाई को गरिमा देना भूल गया है लेकिन बच्‍चे अपने शिक्षक के प्रति कृतज्ञता नहीं भूले। उनका स्‍नेह, श्रद्धा और अपनापन रोजरोज दिखाई नहीं देता लेकिन जब भी मौका आता है, वे इस भाव को यूं दर्शा देते हैं कि शिक्षक अभिमान से भर उठते हैं। शिक्षक दिवस पर इससे बड़ा सम्‍मान और क्‍या हो भला, अपमान के कड़वे घूंट पीने को 364 दिन शेष हैं।

यूं तो यह कोई सालाना कर्मकांड नहीं है, मगर फिर भी एक खास दिन है तो हमें सोचना चाहिए कि कुछ कहने से बचते रहने वाले व्यक्ति को, विषम परिस्थितियों में भी चुपचाप अपनी धुन में काम करते रहने वाले व्यक्ति को जब कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगे तो इसके पीछे कुछ तो वजहें होंगी। कहकर उसका मन हल्का हो जाए इसलिए आपको भी उसकी बातें सुन ही लेनी चाहिए।

एक शिक्षक, जिसे नौकरी की शुरूआत से एक-एक कक्षा में 100 से ज्यादा बच्चों के साथ रहने की आदत रही हो उसे एक दशक पहले एक मृतप्राय संस्था की जिम्मेदारी सौंप दी गई। अब या तो रोना रोते हुए पहले से चली आ रही व्यवस्था को आगे खींचा जाता या फिर उसे पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता जो कि एक बड़ी चुनौती थी। शिक्षक ने दूसरा विकल्प चुना। इसके लिए समय,श्रम,ऊर्जा और कुछ धन भी… जब जिसकी जरूरत लगी, खर्चा गया।

पहले घर-घर घूमकर लोगों को भरोसा दिलाना कि आप बच्चे को भेजिए तो सही…हम उसे पूर्ण सुरक्षा और बेहतर शिक्षा व सुविधाएं मुहैया कराएंगे। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उनका यकीन कर पाना मुश्किल था इसलिए ज्यादातर जगह निराशा हाथ लगती। ‘ ‘बच्चा अनपढ़ रह लेगा पर वहां नही भेजेंगे’ जैसे सद्वचन भी गाहे बगाहे सुनने को मिलते। पर कुछ लोगों ने भरोसा भी जताया और धीमी गति से ही सही… गाड़ी चल पड़ी। लोगों के विश्वास को अमानत की तरह संभाले, वह आगे बढ़े।
असली चुनौती अब थी। खस्ताहाल संसाधनों के बीच बच्चों का ठहराव सुनिश्चित करने की चुनौती। फर्श हर जगह से टूटी हुई, जगह-जगह गड्ढों से भरी हुई, जिसमें कभी चूहे तो कभी सांप दिख जाते। बैठने को दरियां ऐसी कि बिछाई जाती तो जमीन ढंकती कम खुली ज्यादा नजर आती। गर्मी ऐसी कि कमरों में बैठना मुश्किल। एक-एक कर फर्श को नए सिरे से बनवाया गया।फर्नीचर, पंखे, वायरिंग सारी चीजों की व्यवस्था की गई। सारा काम बगैर किसी विभागीय सहयोग के। रेडियो, सिलाई मशीन जैसे सामान बाद तक आवश्यकतानुसार आते रहे।

जब सरकार की नीतियों में स्वेटर, जूते मोजे आदि के वितरण की दूर-दूर तक कोई योजना नहीं थी तब स्कूल में इन योजनाओं को क्रियान्वित किया जा रहा था। परिसर में हरियाली के नाम पर एक तिनका नहीं था वहीं आज 40 से 45 की संख्या में छोटे-बड़े पेड़ फल-फूल रहे हैं। ये बेचारे भी समीपवर्ती लोगों की अराजक हरकतों के सम्मुख निर्लज्जता से डटे रहे तब जाकर अपना अस्तित्व बचा पाए हैं। जो निर्ममता की मार नही झेल सके, अकाल मारे गए।

एक बार मिनी प्रोजेक्टर लाने का विचार बना। दुकान, मूल्य सब कुछ पता कर लिया गया परंतु विभाग के रवैये से मन खिन्न हुआ और योजना वहीं स्थगित कर देनी पड़ी। यह कुछ ऐसा ही था जैसे निरीक्षण के लिए आने वाले अधिकारियों को हरे-भरे पेड़, क्यारियों में पंक्तिबद्ध पौधे, रंग-बिरंगे सुंदर फूल न दिखकर सिर्फ बढ़ी हुई घास ही दिखती है जिसकी सफाई का दायित्व सफाईकर्मी का है परंतु वे चूंकि क्षेत्र के निर्दिष्ट स्थानों को ही चमकाने में लगे रह जाते हैं। अतः कैम्पस की साफ-सफाई भी समय-समय पर मजदूर बुला कर करानी होती है।

प्रदर्शन और प्रशंसा की रत्ती भर आकांक्षा नहीं परंतु साहब! आप लोग एक शिक्षक की मेहनत और सकारात्मक बदलावों पर एक उड़ती सी नजर ही डाल लें तो कार्मिक लोग कृतार्थ हो जाएं। चलिए यह भी मत करिए। इतनी भी उम्मीद क्यों रखी जाए? पर आप लोग जो पूर्वाग्रह से भरे हुए, नेगेटिविटी का चश्मा चढ़ाए प्रविष्ट होते हैं, उसी नजर से सब कुछ देखते हैं और सारी नकारात्मकता निरीह शिक्षक पर उड़ेल कर चले जाते हैं तो बहुत स्वाभाविक है कि हम हतोत्साहित होते हैं। दो कदम आगे बढ़ाने को सोचता हुआ शिक्षक यकीन मानिए ऐसे में दस कदम पीछे चला जाता है।

जब शिक्षक का मूल कर्तव्य सिर्फ वही था जिसके लिए उसकी नियुक्ति हुई थी यानि पठन-पाठन, तब यह एक आनंददायक प्रक्रिया हुआ करती थी। हंसते-खेलते हुए अनुशासन का पाठ पढ़ते बच्चे आधा दिन स्कूल में बिता कर कुछ नया सीखने की खुशी से भरे घर लौटते थे और शिक्षक एक आत्म संतुष्टि के साथ। अब बीसियों शिक्षणेत्तर कार्यों में धकेल दिया गया शिक्षक स्कूल में रहकर भी ऑफलाइन पेपर्स और ऑनलाइन डाटा के जाल में इतना उलझा है, तय समय सीमा के अंदर इन्हें पूरा करने के दबाव में इतना घिरा है कि कक्षाएं लेने की बारी इन सबके बाद ही आ पाती है। और तिस पर भी माहवार निर्धारित समय पर सिलेबस पूरा करना है (जिसके मानक बनाते समय मान लिया गया है कि शिक्षक अपने आठ पीरियड में सिर्फ़ कक्षा शिक्षण के लिए समर्पित रहेगा)। मतलब आनंद से सीखना-सिखाना कहीं पीछे हुआ,पठन- पाठन की प्रक्रिया अन्य कार्यों की तरह यंत्रवत सी होकर ज्यादा रह गई है।

दिल मायूस हो जाता है जब बच्चों की नन्ही आंखों में ऊंचे सपने रोपने वाले शिक्षकों के सामने खबर बनकर बात आती है कि अब कौशल सिखाने के नाम पर स्कूलों में बच्चों को पकौड़े तलना, जूस बनाना,पंक्चर बनाना सिखाने की तैयारियां हो रही हैं ताकि आगे चलकर वे सुगमता से जीवन यापन कर सकें। आत्मनिर्भर बन सकें। मतलब पहले से तय मान लिया गया है कि सरकारी विद्यालयों के बच्चों! तुम इसी के योग्य हो अतः अच्छा होगा कि शुरू से इन स्किल्स में महारत हासिल कर लो Practice makes a man perfect.

अभी से लग जाओगे तो ज्यादा अच्छी तरह पंक्चर बना पाओगे। और तुम्हारे बनाए पकौड़ों की तो बात ही क्या होगी जो मन लगाकर अभी सीख लिया। बाजार की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जब तुम्हारी पीढ़ी के अन्य अप्रशिक्षित लोग ठेले लगा रहे होंगे, तुम प्रशिक्षण पाकर पारंगत हुए, उनसे आगे बढ़कर अपनी गुमटी खोल पाओगे। तुम्हारे ट्रेंड हाथों के स्वाद का जादू ऐसा होगा कि लोग दूर-दूर से आएंगे, अपनी गाडियां रोक कर तुम्हारी दुकान पर खाएंगे-पियेंगे और पत्नी-बच्चों को खुश करने को पैक कराके घर भी ले जाएंगे। तब तुम ग्रेटीट्यूड से भरे हुए, नतमस्तक हो, याद कर लेना अपनी स्कूली शिक्षा को।

ये सारी बातें एक खीझे हुए क्षुब्ध मन का शिकायती एकालाप सी लग रहीं। परंतु कहना पड़ रहा है क्योंकि इतने सब के बाद जब सिस्टम के साथ-साथ समाज भी सवालिया निगाहों से देखता है तो एक शिक्षक का मन आहत होता है।

फिर भी…अंततः काम ही शिक्षक को खुशी देता है क्योंकि इसकी बदौलत उनके पास बहुत कुछ ऐसा है जो सिर्फ उनका ही है, बच्‍चों से मिला सम्‍मान और श्रद्धा।

जब प्राइवेट स्कूल से आकर सरकारी स्कूल की आठवीं कक्षा में प्रवेश लेने वाली बच्ची सत्र के अंत में TC लेकर जाते हुए अफसोस जताती हुई कहती है, ‘ काश! मैं यहां और पहले आ गई होती तो मेरी पढ़ाई ज्यादा अच्छी हो गई होती…’ तब शिक्षक का खुद पर भरोसा गहरा जाता है।

जब रैली निकालते बच्चों के हाथों में तमाम तख्तियां देखकर सात साल पहले स्कूल से पासआउट लड़का अचानक सामने आकर खड़ा हो जाता है और कहता है, ये सब आपने लिखा है ना? कैसे मालूम? पूछने पर कहता है, आपकी राइटिंग मुझे आज भी याद है, तब जरा मान हो आता है खुद पर।

जब संवरी दाढ़ी-मूंछों वाला स्मार्ट सा नवयुवक बाजार में मिल जाता है और बताता है कि आपने मुझे पांचवी क्लास में पढ़ाया था। भावुक हो कर बोलता है, ‘मैंने जिंदगी में लोगों को माफ करना सीखा है आपसे (कभी उसकी किसी गलती पर सजा न देकर उसे प्यार से ट्रीट कर लिया गया था और वह ग्लानि से भर उठा था)।’ तब हतप्रभ होते हुए मन अजीब खट्टा मीठा सा हो जाता है।

जब बिन कुछ कहे सिर दर्द का अंदेशा होने पर बच्चे आपस में पैसे इकट्ठा कर पास के डॉक्टर के यहां से लाकर दो टैबलेट सामने रख देते हैं तब दुलार उमड़ आता है उन पर और फिर एक बार प्यार हो जाता है अपने काम से।

ऐसी कितनी ही बातें हैं, कितनी ही यादें… जो मन के कोने में गठिया कर रखी हुई हैं। ऐसी स्मृति तमाम दुश्वारियों में संबल का काम करती हैं।

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