पंकज शुक्ला
वसंत आ रहा है…
सखी, देखो वो चला आ रहा है चुपचाप… बिना पदचाप… जैसे कोई देख ना ले… कोई सुन ना ले… उसके आने की आहट।
वसंत हां, वसंत ऐसे ही तो आता है, जीवन में भी। जाने कब आ कर हथेलियों पर बिखरा देता है मेंहदी। स्वप्न कुसुम केसरिया रंग ओढ़ लेते हैं…।
वसंत का आना पता ही नहीं चलता… इस दौड़ती भागती जिंदगी में।
ऐसे ही चुपचान आया था वसंत, उस दिन, उस साल।
मानो कल ही की बात हो जैसे।
यूँ लगता था जैसे आँगन में लगा हर पौधा गुलमोहर हो गया हो और मन के भीतर तमाम तरफ बोगनवेलिया उग आए हों। रंग-बिरंगे जंगली फूलों की तरह खिले सपने, बेतरतीब जरूर थे… बेपरवाह लोगों को कहाँ अनुशासन की फिक्र? उनका उन्मुक्त होना ही तो सौंदर्य के गुलदस्ते में बँधने से ज्यादा जरूरी था। ऐसे ही थे सपनों के नील गगन में ऊँची उड़ान भरते इरादे।
यूँ होगा तो ऐसा कह देंगे… ऐसा हुआ तो वैसा कर लेंगे। ख्यालों के केनवास पर बनते-बिगड़ते विचार। पतंगों के पेंच की तरह लड़ते, ढील देते, काट करते विचार।
अपना धागा-अपनी पतंग। खूब उड़ाओ… न आसमान खत्म होता न ख्वाबों की डोर छोटी पड़ती।
और एक दिन जब…ख्याल सच करने की बारी आई… छोटा रह गया सबकुछ।
हाथों से छूट गई डोर, डोलने लगी पतंग, यकायक बेआब हो गए फूल सारे, छोटा पड़ गया साहस अपना।
न बोल फूटे, न हाथ बढ़े।
अरे, कहीं इसे ही तो काठ मारना नहीं कहते हैं?
बल्लियों उछलने वाले उस क्षण पाताल में जम गए थे सारे। मन ही मन जो बुना था, ख्याली साबित हुआ सबकुछ।
क्या हो गया था नैन तुमको? तुम ही रोक लेते पलछिन उनको। पर तुम्हें फुर्सत कहाँ बहने से और…
और वे चले गए जैसे गुजर जाता है हर लम्हा, अच्छा हो या बुरा।
कितना रोकना चाहा, लेकिन कहाँ मैंने कहा और कहां उसने सुना?
चले गए वे भी…जैसे सब जाते हैं।
अब कहने से क्या होता है- सखी वे कह कर जाते?
सचमुच अगर वे कह कर जाते तो क्या जा पाते?