पंकज शुक्ला, पत्रकार-स्तंभकार
आज गीतकार शैलेंद्र का जन्मदिन हैं। हमारे ‘हीरामन’ शैलेंद्र। राजकपूर के ‘पुश्किन’ और फणीश्वरनाथ रेणु के ‘कविराज’ शंकर शैलेंद्र। ऐसा संवेदनशील मन जिसकी कसम ‘मारे गए गुलफाम’ के हीरामन की कसम जैसी थी, निर्मल लेकिन उतनी ही सुदृढ़ कि उसके बदले जान चली गई मगर कसम न टूटी। ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिश’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘सीमा’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘गाइड’, ‘जंगली’, ‘बंदिनी’, ‘चोरी चोरी’, ‘दूर गगन की छांव में’, ‘जागते रहो’, ‘मधुमती’, ‘संगम’ तथा ‘मेरा नाम जोकर’ आदि जैसी फिल्मों के गीतकार शैलेंद्र। ‘तीसरी कसम’ के निर्माता शैलेंद्र।
जिन्होंने लिखा था, ‘सबकुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’। जिन्हें होशियार बनाने के लिए, मुनाफे कमाने के लिए सलाहें दी गई, मिन्नतें की गईं, दबाव बनाया गया, साथ छोड़ दिया गया मगर वे सबकुछ सह गए। गौर से देखा जाए तो शैलेंद्र के जीवन के तमाम रंगों में संवेदशीलता का रंग सबसे ज्यादा चमकीला, चटकदार और प्रभावी है। ‘मारे गए गुलफाम’ या कि ‘तीसरी कसम’ में हीरामन तो राजकपूर बने थे लेकिन इस कथा के दो हीरामन और हैं, कथा लिखने वाले फणीश्वरनाथ रेणु और इसे पर्दे पर उतारने वाले शैलेंद्र।
अद्भुत शख्स थे कवि-गीतकार शैलेंद्र। यह भी तय है कि फिल्मों में नहीं आते तब भी शैलेंद्र प्रगतिशील रचनाकार होते। लेकिन तब फिल्म जगत को वे गीत नहीं मिलते जो शैलेंद्र ने लिखे हैं और जिनकी वजह से हिंदी सिनेमा प्रगतिशील कहलाने का गर्व कर सकता है।
‘मैं पैसे के लिए नहीं लिखता’ कहने के पीछे की ताकत सिद्धांत की ताकत थी। एक प्रतिबद्धता थी। ऐसी प्रतिबद्धता जो जीवन की सबसे बड़ी बाजी तक कायम रही। अभिन्न मित्रों तथा वितरकों की सलाह, दबाव और असहयोग को नजर अंदाज करके भी शैलेंद्र का साहित्यिक कृति ‘मारे गए गुलफाम’ के प्रति संवेदनशील बने रहना इसी प्रतिबद्धता के कारण संभव हो पाया था। खुद खत्म हो गए मगर साहित्य की आत्मा को ठेस पहुंचाना गंवारा नहीं हुआ। यूं तो फिल्म दुनिया राजकपूर, मुकेश और शैलेंद्र की दोस्ती को याद करती है लेकिन मुझे लगता है आज का दिन शैलेंद्र और रेणु की दोस्ती को याद करने का दिन है। वे दोस्त जो एक फिल्म के बहाने मिले और उसी फिल्म के लिए साथ जिये, फिर उसी के कारण जुदा भी हो गए। मुझे लगता है, आज का दिन शैलेंद्र के गीत को गुनगुनाते हुए अपने दोस्तों को याद करने का दिन है।
मूलरूप से बिहार के निवासी केसरीलाल दास फौज में थे। जब वे रावलपिंडी में पदस्थ थे तब 30 अगस्त 1923 को बेटे का जन्म हुआ। नाम रखा गया शंकरलाल दास। शंकरलाल केसरीलाल दास। शंकरलाल की शिक्षा-दीक्षा मथुरा में हुई थी। स्कूली जीवन से ही कविताएं लिखने लगे तो उपनाम रखा शैलेंद्र। बाद में कवि का नाम हो गया शंकर शैलेंद्र। 1940 में रेलवे में नौकरी के सिलसिले में मुंबई आए। 1942 के अगस्त क्रांति में शामिल हुए और जेल भी गए। वे इंडियन नेशनल थिएटर शरीक हो गए और जेल गए। जेल से बाहर आने के बाद वे रेलवे में नौकरी करने लगे और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़ गए। इप्टा के ही एक काव्य-पाठ कार्यक्रम में 1947 में राज कपूर ने शैलेंद्र को काव्य-पाठ करते सुना तो उनके मुरीद हो गए। राजकपूर ने फिल्म ‘आग’ के लिए गीत लिखने को आमंत्रित किया तो शैलेंद्र ने स्वाभिमान से कहा, मैं पैसों के लिए नहीं लिखता हूं।
यह पूरी कथा इसलिए बताई गई है कि बचपन से ही कविताएं लिखने वाले शैलेंद्र के मुंबई आगमन, भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने और इप्टा से जुड़ने और लिखने-पढ़ने ने एक ऐसे रचानाकार को गढ़ा जो जितना संवेदनशील था, उसका स्वर उतना ही प्रगतिशील था। शैलेंद्र हिंदी फिल्म जगत के सर्वाधिक प्रगतिशील गीतकारों में शुमार होते हैं। सहज काव्य उनके लेखन को लोकप्रिय बनाता है और वंचितों की फिक्र उन्हें लोकवादी। फिल्म ‘बरसात’ से शुरू हुआ गीतों का कारवां 1951 में जब ‘आवारा’ तक पहुंचा तो इसके शीर्षक गीत में शैलेंद्र का यही रूप नुमायां हुआ। इसमें शैलेंद्र ने लिखा: ‘आवारा हूं, गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं’। ऐसे गीतों की सूची लंबी है। जैसे, ‘श्री 420’ का गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’, फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का गीत ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?’ आदि, आदि।
‘तू जिंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर’ जैसे गीत को कैसे भूला जा सकता है? बुझे मन को हौसला देने में इस गीत का कोई मुकाबला नहीं है। इसे जनगीत की तरह गाया जाता है। संघर्ष की घोषणा करने वाले शैलेंद्र ने ही लिखा है:
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है।
हमारे पसंद के कई गीत है जिनकी सूची लंबी है। इन्हीं गीतों में से तीन को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1958 में ‘यहूदी’ के गीत ‘ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर’, 1959 में ‘अनाड़ी’ के गीत ‘सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी’ तथा 1968 में ‘ब्रह्मचारी’ के गीत ‘तुम गाओ मैं सो जाऊं’ के लिए। आखिरी अवार्ड प्राप्त करने के लिए शैलेंद्र जीवित नहीं थे। यही पुरस्कार क्यों वे तो अपनी प्रतीक कृति ‘तीसरी कसम’ की सफलता को देखने के लिए भी जीवित नहीं रहे।
‘तीसरी कसम’ से जुड़ाव की कथा भी कम दिलचस्प नहीं है। बासु भट्टाचार्य से मिली ‘पांच लंबी कहानियां’ नामक पुस्तक में छपी रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पढ़ कर इतने प्रभावित हुए कि उसपर फिल्म बनाने का फैसला कर लिया। राजकपूर भी कथा सुन कर उछल पड़े लेकिन फिर चिंता जताई, कविराज, फिल्म निर्माण आपका क्षेत्र नहीं। आप गीत ही लिखो। शैलेंद्र कहां मानने वाले थे? अड़ गए, दर्द की यह कविता तो रजत पट पर उतारेंगे ही। जब मित्र की जिद थी तो राजकपूर ने भी मात्र एक रुपए में फिल्म करनी स्वीकार की। राजकपूर ही क्यों ‘तीसरी कसम’ फिल्म के निर्माण से जुड़े बासु भट्टाचार्य (निर्देशक), नवेंदु घोष (पटकथा-लेखक), बासु चटर्जी एवं बाबूराम इशारा (सहायक निर्देशक) ने भी अपने स्तर पर सहयोग किया।
‘तीसरी कसम’ फिल्म की निर्माण प्रक्रिया शुरू होने से पहले तक रेणु और शैलेंद्र के बीच कभी कोई संपर्क नहीं रहा। कहानी के लेखक को खोजने के पीछे भी बहुत मेहनत हुई। इस कथा के लेखक का पता लगाने में ही लंबा वक्त खर्च हो गया। उस वक्त साहित्य में रेणु नए-नए थे। अज्ञात से लेखक को खोजने के लिए बासु भट्टाचार्य ने कई हवाई यात्राएं कीं। इसका खर्च भी जाहिर है फिल्म के बजट में जुड़ा। 14 जनवरी 1961 को रेणु के गृह जिले पूर्णिया में ‘तीसरी कसम के मुहूर्त कार्यक्रम के साथ फिल्म की शूटिंग शुरू हुई।
खुद रेणु ने लिखा है कि फिल्म ठीक वैसी बन रही थी जैसी उन्होंने अपनी कहानी में कल्पना की थी। लेकिन बात अंत पर आ कर टिक गई। राजकपूर सहित तमाम वितरकों का मानना था कि अंत सुखद होना चाहिए। दुखांत से फिल्म चलेगी नहीं। शैलेंद्र इतने संवेदनशील थे कि कहानी की एक-एक पंक्ति को हूबहू रील में उतार देने का हर जतन कर रहे थे, उन्हें लेखक की मूल कृति में बदलाव कैसे स्वीकार होता? उन्होंने इंकार कर दिया। रेणु बुलाए गए।
अपने संस्मरण में रेणु लिखते हैं: ‘तीसरी कसम पुरी हो चुकी थी। शैलेंद्र के बुलावे पर मैं बंबई आया। इस बार मुझे होटल में ठहराया गया, क्योंकि मैं शैलेंद्र का नहीं, फाइनांसर का अतिथि था। शैलेंद्र ने बताया कि वे लोग फिल्म का अंत बदलकर हीरामन-हीराबाई को मिला देना चाहते हैं। शैलेंद्र का रोम-रोम कर्ज में डूबा हुआ था फिर भी वे इसके लिए तैयार नहीं थे। उनका जवाब था कि बंबईयां फिल्म ही बनानी होती तो वे ‘तीसरी कसम’ जैसे विषय को लेते ही क्यों? और जब वह विषय लिया है तो उसका मतलब है कि वे कुछ अलग काम कर दिखाना चाहते हैं। दबाव से तंग आकर आखिर उन्होंने कह दिया कि लेखक को मना लीजिए तो वे आपत्ति नहीं करेंगे।
रेणु ने लिखते हैं, शैलेंद्र ने मुझे सारी स्थिति समझा दी। टक्कर राज कपूर जैसे व्यक्ति से थी, जो न केवल फिल्म के हीरो थे, बल्कि उनके मित्र और शुभचिंतक भी। भाषण शुरू हुआ। उपन्यास क्या है? साहित्य क्या है? फिल्म क्या है? पाठक क्या हैं? दर्शक क्या हैं? कहानी लिखने से पाठक तक पहुंचने की प्रक्रिया क्या है? खर्च क्या है? फिल्म निर्माण क्या है? उसका आर्थिक पक्ष क्या है? ऐसे विचार-प्रवर्तक भाषण शायद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में भी नहीं होते होंगे। इतना ही नहीं तो शैलेंद्र पर चढ़े कर्ज़ और उसे उबारने की भी दुहाई दी गई। और तो और, पैसा लगाने वाला मारवाड़ी भी जो आंखें बंद किए बैठा था, कहने लगा- ‘आप यह मत समझिए कि मैं सो रहा था। मैं तो कहानी का अंत सोच रहा था। चेन खींचकर गाड़ी रोक लो और दोनों को मिला दो।’
रेणु ने लिखा है, आखिर मैंने कह दिया कि वे जो चाहें कर लें। मेरा पारिश्रमिक मिल चुका है। हां, अगर कुछ परिवर्तन होता है, तो मेरा नाम लेखक के रूप में न दिया जाए। जब मैं अंतिम निर्णय देकर लौटा तो शैलेंद्र छाती से लगकर सुबकने लगे। ऐसा निर्माता आज तक किस लेखक को मिला होगा?”
मगर यह दुखांत फिल्म का ही नहीं शैलेंद्र का दुखांत भी साबित हुआ। राजकपूर अपने मित्र को वणिक बुद्धि में नहीं ढाल पाए। एक-एक कर यूनिट के सदस्य दूर होते गए। अंत में रह गए शैलेंद्र और ‘तीसरी कसम’। सोचा था फिल्म ढ़ाई-तीन लाख में बनेगी लेकिन बजट 22 लाख तक पहुंच गया। शैलेंद्र अपनी कृति के साथ अकेले थे। वितरकों ने हाथ खींच लिए तो बड़ी मुश्किल से फिल्म रिलीज हो पाई। बकाया मांगने वालों ने कोर्ट का वारंट ले रखा था सो शैलेंद्र अपनी फिल्म के प्रीमियर पर भी नहीं जा सके। पहली बार फिल्म को दर्शक ही नहीं मिले लेकिन फिल्म के शानदार बनने की तारीफ हुई।
ऐसी तारीफ कि खुद रेणु ने अपने मित्र को पत्र में लिखा था, ‘तस्वीर मुकम्मल हो गई और भगवान की दया से ऐसी बनी है कि वर्षों तक लोग इसे याद रखेंगे। अपने मुंह अपनी तारीफ नहीं- कोई भी व्यक्ति यही कहेगा। ‘सजनवां बैरी हो गए हमार’ तो ऐसा बन गया है कि पुराने ‘देवदास’ के ‘बालम आय बसो मेरे मन में’ की तरह युगों तक गाया जाएगा। मैं ही नहीं- कई लोग ऐसे हैं जो इस गीत को सुनकर आंसू मुश्किल से रोक पाते हैं।’
ऐसी बनी थी ‘तीसरी कसम’ लेकिन इसकी सफलता देखने के लिए शैलेंद्र नहीं रहे। 29 सितंबर को उन्होंने रेणु को फिल्म के रिलीज होने की सूचना दी। 14 दिसंबर 1966 को महज 43 वर्ष के शैलेंद्र नहीं रहे। शैलेंद्र के गुजर जाने के बाद ‘तीसरी कसम’ देश भर में प्रदर्शित हुई और लोकप्रिय भी। फिल्म को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला लेकिन यह सब देखने के लिए शैलेंद्र नहीं थे। वे जिन्होंने सबकुछ सीखा केवल व्यापार नहीं सीखा।
शैलेंद्र के असमय गुजर जाने का आघात रेणु के लिए इतना बड़ा था कि वे तीन साल कुछ लिख नहीं पाए। वे मानते थे कि न वे कहानी लिखते, न शैलेंद्र फिल्म बनाते और न उनकी असमय मौत होती। उन्होंने लिखा है कि शैलेंद्र को शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक ‘धर्मयुद्ध’ में लड़ता हुआ शहीद हो गया। उन्हें लगता था ‘तीसरी कसम’ के चक्कर में ही उनकी मृत्यु हुई, इसलिए उसके जिम्मेदार वही हैं।
सोचने को बहुत कुछ है। जैसे शैलेंद्र या रेणु फिल्म का अंत बदलने को तैयार हो जाते। या फिल्म ग्रामीण परिवेश के हूबहू फिल्मांकन की शर्त को कुछ कर कम कर बजट घटा दिया जाता। वितरक तैयार हो जाते। ऐसा नहीं है कि राजकपूर से लेकर अन्य मित्रों ने शैलेंद्र की सहायता नहीं कि लेकिन तमाम सहायता के बाद भी कुछ कम पड़ गया। यह जो कम पड़ा यह तो फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा से कम था लेकिन शैलेंद्र में कूट-कूट कर भरा हुआ था। संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तक रचनात्मक आग्रह। ‘तीसरी कसम’ के निर्माण में आई तमाम बाधाओं के बाद भी हमारे हीरामन शैलेंद्र ने अपनी संवेदनशीलता, अपनी प्रतिबद्धता और अपनी प्रगतिशीलता के साथ किसी तरह का समझौता करने की कोई कसम नहीं खाई।
रेणु परंपराओं और आस्थाओं में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। संकट और मुश्किल घड़ी में वे अपने प्रभु को याद कर लिया करते और तनावमुक्त हो जाते थे। किंतु शैलेंद्र के पास यह विकल्प नहीं था, वे नास्तिक थे। अपने दु:ख-दर्द वे दोस्तों के साथ बांट सकते थे पर वे ऐसा न करते और अंदर ही अंदर घुटते रहते। तबीयत ठीक न होने पर रेणु शराब छोड़ देते थे, किंतु शैलेंद्र का पीना बढ़ जाता था। कुछ लोग मानते हैं कि अपने गम को भुलाने के लिए शैलेंद्र बहुत ज्यादा शराब पीने लगे थे और यही उनकी जान का दुश्मन बन गई।
फिल्म ‘तीसरी कसम की कव्वाली दोनों को अत्यंत प्रिय थी। जब भी दोनों मिलते इन पंक्तियों को साथ साथ गाते और अपने पत्रों में भी इनका जिक्र करतेः
अरे तेरी बांकी अदा पर मैं खुद हूं फिदा
तेरी चाहत का दिलबर बयां क्या करूं?
यही ख्वाहिश है कि तू मुझको देखा करे
और दिलोजान मैं तुझको देखा करूं।
बेहतरीन
बेहतरीन किस्सागोई। शैलेन्द्र की ज़िंदगी सबसे अलहदा थी। बस यही, कि वे कुछ और बरस जीते तो भारतीय साहित्य और फिल्मों को एक से एक उम्दा नग्में मिलते।