राघवेंद्र तेलंग
सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
ये सारी जगमग आपसे ही तो है…
पीढ़ियों से अंतर्मन में बसी कॉस्मिक आवृत्ति के संगीत की तरंगें शुरूआती दौर से ही हर जीव में कॉस्मिक डांस करती रही हैं। सबको इसके स्पंदन बेचैन करते रहते हैं, मुझे भी। बचपन से ही इस खेल को बूझने की तमन्ना थी जिसके बोल हैं-गोल-गोल रानी,इत्ता-इत्ता पानी। आइए आज इस खेल की कहानी को समझते हैं। समझते हैं कि गोल का आखिर चक्कर क्या है!
गोल! यह ज्यामितीय आकार यूनिवर्सल ऊर्जा का है, इसे दिशा बस वही अनुप्राणित दे सकता है जिसे धड़कन अता हुई है और जिस कृतज्ञ को इसका अहसास है।
वह एक कोई, कोई भी हो सकता है, कोई भी। हां! सजीव भी, निर्जीव भी। पूरा गोल होकर निर्जीव फिर कांशस सजीवों के साथ एन्टैन्गल्ड हो जाता है। ऐसा इसलिए कि गोल यानी ओम्नी डायरेक्शनल होते ही वह बिंदु चतुर्दिक ऊर्जा के संपर्क में आ जाता है फिर उस बिंदु रूपी जीव की चेतना अधिक स्पष्टता के साथ दर्शित होकर कार्य करना प्रारंभ करती है। इससे पहले जब जीव आदर्श गोलाई धारण नहीं किए था, आकाश उसके शब्दकोश में नहीं था, अब बिना श्रम वह हर पल सितारों की निगाहों में है।
अनुभव बताता है कि गोल अगर स्वयं प्रकाशित एक गोला है,गेंद है तो सब लोग एक बच्चे की तरह उत्सुक होकर उस गोल की ओर ताकेंगे। उसको जानने के लिए उसकी ओर भागेंगे। बल्कि कहना तो ऐसे चाहिए कि उसकी प्रतीक्षा में सोएंगे और उसकी उम्मीद में ही जागेंगे। गोल अगर प्रकाशित नहीं है तो वह दूसरे प्रकाशित गोल की राह में आकर रिफ्लेक्टर, हो जाएगा। फिर वह भी एक तरह से ठंडी रोशनी का स्रोत बन जाएगा। फिर से वही होगा। सब एक बच्चे की तरह उत्सुक होकर रात में उसकी ओर ताकेंगे। उसको जानने के लिए उसकी ओर भागेंगे। बल्कि कहना तो ऐसे चाहिए कि उसके सान्निध्य में मीठी नींद सोएंगे और दिन भर की थकान के बाद अगली शाम उसकी उम्मीद में आसमान की ओर ताकेंगे।
जैसे ही आप एक आदर्श आकार ग्रहण करते हैं, आप पाते हैं आप जहां आ खड़े हुए हैं वह सतह भी एक आदर्श सतह में परिवर्तित हो चुकी है। लगने लगता है कि प्रतीक्षित मौसम अब आने वाला है और अभी यह जो बयार चल पड़ी है यह आनंद की ऋतु की है। फिर हर मुश्किल सरल लगने लगती है। फिर आप अपने बारे में सरल मना का विशेषण सुनते हैं। वह इसलिए कि लोग आपके चेहरे पर दो ही भाव पाते हैं,पहला मुश्किलों को हल करने के लिए मुस्कुराहट का होना और दूसरा मुश्किलों से दूर रहने के लिए खामोशी का स्थायी भाव। अब आप जो भी कर्म करते हैं अपने आनंद के अनुभव के लिए करते हैं। अब आपका आनंद शाश्वत के स्रोत की गुणवत्ता वाला है।
गोल! यह बात निर्विकार होकर खुद को तराश लेने और तलाश लेने की है। एक दुर्धर्ष यात्रा के बाद गोल फिर प्रकृति के लिए उपादेय हो जाता है। प्रकृति के योग्य, अनुकूल हो जाता है। फिर उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है, एकदम वर्टिकल, ठीक वर्टिकली एलाइन्ड उससे,हां उसीसे! और ऐसा सब कुछ प्रकृति के आदेश पर होता है। और ऐसा उस कोई एक,जो या तो निर्जीव था या सजीव, के संपूर्ण समर्पण के पश्चात घटता है।
गोल पृथ्वी की बेसिक और पुरा आवृत्ति है। यही विज्ञान की भाषा में साइकल्स, स्पंदन,फ्रिक्वेंसी है,जो हमें एक झूले में बने रहने का अहसास दिलाती है। फलत: इस तरंग के संस्पर्श से हमारी नींद मस्त की श्रेणी की होती है। अलस्सुबह स्वयं प्रकाशित एक गोल ही तो हमें गुनगुने अहसास के साथ हौले-हौले जगाता है।
जैसे ही कोई एक गोल आपकी नजरों में आता है,बच्चा या बुद्ध,आपका-सबका न्यूक्लियस हो जाता है। आकर्षण का केंद्र। गुरुत्व धारक। जैसे ही कोई भी, कोई भी एक, पूरा गोल हो जाता है उसमें कॉस्मिक धड़कन उतर आती है,प्राण उतर आता है। जैसे ही कोई एक पूरा गोल हो जाता है वह चारों फंडामेंटल फोर्सेस के प्रति अनुकूल हो जाता है। फिर वह काल प्रवाह का हिस्सा होकर स्वयं में समय हो जाता है, गजर हो जाता है, काल गणना का प्रतीक हो जाता है।
मूढ़ मति लोगों की विशेषता होती है वे सीखने वालों की राह में नित नए रोड़े अटकाते चलते हैं। मुसीबतें खड़ी करते हैं। यह तो उन्हें बहुत बाद में समझ आता है कि यह जो गोल होना है वह गहराई के तल पर टकराते-टकराते और रगड़ खाते रहने के फलस्वरूप ही घटता है। जब एक दिन पुराने दिनों का वह अनगढ़ शिक्षार्थी उनके सामने आता है तब वे स्वयं ही उसे परफेक्ट की, गोल की उपमा देते हैं। और ऐसा बहाव के साथ, अंडर करंट के साथ बहते हुए,लुढ़कते हुए ही हुआ होता है। ध्यान रहे इस यूनिवर्स में नकारात्मक शक्तियां अनजाने ही सकारात्मक शक्तियों के निर्माण का दायित्व ग्रहण करतीं हैं।
वहीं दूसरी ओर विनाशकाले विपरीत बुद्धि की उक्ति के अनुसार सकारात्मक लोग भ्रष्ट होकर नष्ट करने की प्रक्रिया में योगदान देते हैं। सतत निर्माण और निश्चित विनाश एक लूप प्रक्रिया के दो अलग-अलग मगर अनिवार्य हिस्से हैं, जिसका नाम ही इनफिनिटी है, अनंत है। और इस ट्विस्ट,घुमाव को खोल देने पर हम पाते हैं कि यह दरअसल एक गोल-वृत्ताकार बैंड है जिसका नाम समय है,काल है,महाकाल है। इसके अंदर यह जो समय घट रहा है वह सृष्टि है,एक खुली सीमाओं वाला वृत्त,गोला। कुल मिलाकर यह एक आग के गोले की बात है,एक गोल की बात है। आपस में करीने से गुंथीं हुई ऊर्जाओं के एक समुच्चय की यह बात है।
जड़-बुद्धि धारियों के लक्षण स्पष्ट होते हैं कि वे सूचना या जानकारी आधारित ज्ञान और अपने पूर्वाग्रहों,धारणाओं के प्रति बेहद हठी और दुराग्रही होते हैं। क्योंकि वह उनके संबंधों या संबंधियों से प्राप्त ज्ञान या विचार होता है। ये संबंधी वे लोग होते हैं जो परखे हुए नहीं होते,इनकी फैलाई सूचनाओं का,विचारों का स्व-अनुभूत अनुभव से कोई संबंध नहीं होता। अंतत: ये लोग कौरव सिद्ध होते हैं जिनकी गलत सूचनाओं,अफवाहों के कारण अर्जुन को कौरव रूपी विशेषण होने का सही अर्थ युद्धक्षेत्र में मालूम पड़ता है। यह सब हमेशा से ऐन वक्त पर श्रीकृष्ण की शरण में खड़े होने पर जाहिर होता है अपने-आप। फिर कृष्ण निगेटिव्ह और पॉजिटिव्ह के शाश्वत संघर्ष को इग्नाइट करते हैं और फिर पश्चिम दिशा में गोल प्रकाश स्रोत को लगे ग्रहण की घटना के बाद हमेशा के लिए अर्जुन की आंख खुल जाती है।
जब आप ऊर्जा के,बलों के कणों की तरह ही पूरे गोल आकार में हो जाते हैं,तो आपकी जड़ता या आपका आपको लगने वाला भारीपन चला जाता है। आप निर्भर हो जाते हैं। आपकी सोच दूसरों के मत पर निर्भर न रहकर अब आत्मनिर्भर हो जाती है। ऊर्जा के कणों के अनुकूल होते ही आपके अस्तित्व की नाव को कूल अर्थात किनारा मिल जाता है, आपमें की सारी प्रतिकूलताएं जाती रहती हैं। गोल होते ही आप में नीर-क्षीर विवेक आ जाता है। आपकी आंख छन्नी,फिल्टर बन जाती है। आप प्रिज्म हो जाते हैं। अब आपके स्वप्नों में रंग भर आते हैं। कल के ब्लैक एंड व्हाइट दिनों की यादें अब सात रंग के सपनें हुई जाती हैं। अब सारा कुछ नए तरह से घटित हो रहा है। आप अब नए हो चुके हैं। यह सब नयापन अब सोच में भी आ समाया है। यह प्रकाश हो जाने की बात है। समझ आया! ये सारी जगमग आपसे ही तो है।
कोई भी खेल हो चाहे फिर वह जीवन का खेल ही क्यों न हो या खिलाड़ियों वाला मैदानी खेल भी,सारा कुछ घटता एक गोल के भीतर ही है। उसका लक्षित नाम गोल ही कहाता है। इस सर्कस में सब रिंग में घट रहा है,जिसमें हम अपने अंदर के जानवर को खेल-खेल में आनंद की अनुभूति के साथ ट्रेनिंग देते हुए उसे मनुष्य जीवन के लिए तैयार कर अंतत: मनुष्य बनाते हैं। किसी कवि ने इस गोल सूरज के लिए कहा है-तुम निर्भय ज्यों सूर्य गगन में…। ऐसा इसलिए कि जो परफेक्ट है,निर्विकार है वही निर्भय है,फिर सारा गगन उसी का है। ऐसा इसलिए कि वह गोल है। तो,हे इस सर्कस के बाशिंदे! क्या तुमने इस जंगल में रहते हुए अपने अंदर के टाइगर को पहचाना! चेक करो! तुम्हारे अंदर का टाइगर जिंदा है भी कि नहीं!
हे गोल! हे ब्रह्मांड नायक! और क्या कहूं! कितना कितना,कैसे कहूं! ऊर्जाओं से संपृक्त सबके भीतर मौजूद उस अदृश्य आकृति के माहात्म्य के बारे में आखिर कहूं भी तो क्या! सोचता हूं कितना तो कम है अंदर-बाहर का स्पेस उसकी अभिव्यक्ति के लिए। वह गोल जिसमें हमारे सहित सब हैं,वस्तुत: एक खुली सीमा वाला गोल है, वृत्त है।
सोचा हंसध्वनि के इस आलेख का शीर्षक आखिर क्या दिया जाए। यह सब लिखते समय मैं एक पार्क में था जिसमें खेल का एक विशाल मैदान भी था। बच्चों को गेंद से खेलते देख देखा कि गोल का,गेंद का,ऊर्जा का माहात्म्य ही कुछ ऐसा है कि उसे देखकर जो नहीं भी खेलकर रहा होता,वह भी स्पंदित हो जाता है,वाइब्रेट हो जाता है। तरंगित गोल में से बाहर की ओर आकर्षक तरंगें फूटती रहती हैं। यह लिखते समय मेरी ओर गेंद आती दिखी तो लिखना छोड़ मैंने तुरंत उठकर वह तरंगित गेंद खिलाड़ियों की ओर वापस उछाल दी। फिर अपनी बेंच पर आकर बैठ गया। फिर आगे जाने क्या हुआ कि शीर्षक बनकर एक ख्याल मेरी सोच में आया और मैंने उसे लपक लिया। तो यह थी गोल-गोल रानी,इत्ता-इत्ता पानी के खेल की कहानी। कैसी लगी!
हां,एक बात और!
इस शरद पूर्णिमा पर आकाश में विराजमान आज के चांद को ज़रूर देखें। पाएंगे कि एक पवित्र गोल आकार के विविध ख्यालों से बाहर की ओर फूटती शीतल चंद्र किरणें हैं इस आलेख का हर वाक्। ये चंद्रामृत के स्वाद के अनुभव से निकली बातें हैं। कुल मिलाकर कहूं तो जो ऊपर है,वैसा ही नीचे है। एज़ एबव सो बिलो।
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