शिव-पार्वती: तूफानों में स्थिर दाम्‍पत्य, भारतीय लोकमानस का आस्‍था केंद्र

शैरिल शर्मा, साहित्‍य अध्‍येता

लोक मन… निश्छल मन, भोला मन, अंधा मन, मूर्ख मन—सीधा-सादा, सहज और स्वाभाविक। यह मन मिन्नतों से मन्नतों तक सिमटा रहता है, स्वहित से परहित तक की चेष्टा में लिपटा रहता है। एक चूड़ी टूटने में अपशकुन ढूँढ़ता है तो मेहंदी के गाढ़े रंग में शगुन। स्त्रियों के साथ से परंपराएँ संबल पाती हैं, और स्त्रियाँ अपनी आस्था में अपने भरोसे को साधती रहती हैं।

आज शिवरात्रि है। कहते हैं, इस दिन शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। आज भी विवाह के समय इन दोनों को ही आदर्श माना जाता है। यहाँ तक कि रामचरितमानस में स्वयं सीता गाती हैं- “जय जय गिरिवर राज किशोरी।” भारतीय दाम्‍पत्य सम्‍बंधों की संकल्पना में दो प्रमुख प्रतिमान हैं: लक्ष्मी-नारायण और शिव-पार्वती। लक्ष्मी-नारायण की जोड़ी आदर्श छवि है, एक फ्रेम में जड़ी हुई मूर्ति, जबकि शिव-पार्वती जीवंत सम्‍बंध हैं- एक निरंतर संवाद, जहाँ शिव गौरीशंकर हो जाते हैं। लक्ष्मी-नारायण के बीच एक तय दूरी है- लक्ष्मी के लिए भी कहते हैं, “पद्मासने पद्मनिभे पद्मपत्रे पदोद्भवे…” वे जहाँ भी हैं, नारायण के चरणों में ही हैं। लेकिन शिव और पार्वती अर्द्धनारीश्वर हैं- जहाँ कोई ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, पति-पत्नी का अनुशासन नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा का मिलन है। यही कारण है कि भारतीय लोकमानस में शिव-पार्वती का दाम्‍पत्य तूफानों में स्थिर रहता है।

मेरा एक विचार यह भी है कि रामचरितमानस को भारतीय सनातन परिवेश में आदर्श मानने के पीछे उसकी व्यावहारिकता एक बड़ा कारण है। इसके पात्र व्यवहार-कुशल हैं- वे परिस्थितियों को समझते हैं, उसके अनुरूप आचरण करते हैं। शिव परिवार diverse yet united है- गण, भूत-प्रेत, नाग, मानव; सब समाहित हैं। एक आदर्श परिवार जहाँ तमाम जद्दोजहद के बावजूद एकता बनी रहती है।

वहीं भागवत आत्म-साध्य है; यह प्रेम-प्रधान है। इसमें प्रेम अपने मूल तत्व में है- universal love, जिसमें प्रकृति और पुरुष के मिलन का सूत्र समाहित है। लेकिन यह प्रेम किसी सामाजिक ढाँचे में नहीं बंधा। कृष्ण का जीवन ही इस विडंबना का परिचायक है- 16108 पत्नियाँ उनके हिस्से आईं, लेकिन प्रेमास्पद नहीं।

राधा कृष्ण की miswritten image हमारे मानस में सबसे अधिक बसी है। हम प्रेम की अनगिनत शक्लें बना सकते थे समझ सकते थे क्योंकि उसकी अनगिनत शक्लें हैं, पर हमने उसे एक सांचे में डालकर जबरन सीमित कर दिया। प्रेम, जिसकी असंख्य परिभाषाएँ हो सकती थीं, उसे हमने बस एक रूप में गूँथ दिया। कृष्ण के हिस्से relationship आया, पर togetherness नहीं। “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः,”– जो राधा के प्रेम की अमरता को सिद्ध करता है, वह सामाजिक नियमों में कभी फिट नहीं हो सका।

हम सबसे अधिक असहज हुए प्रेम से। और असहजता वहीं होती है, जहाँ डर होता है। प्रेम के नाम पर हमने केवल दैविक प्रेम को स्वीकार किया और जब वह देवता हमारे दायरे से बाहर प्रेम करते दिखे तो हमने उसे पूज्य बना दिया लेकिन सामाजिक स्तर पर अस्वीकार कर दिया।

नारद भक्ति सूत्र में एक सूत्र दिया गया है- “प्रेमास्पद के सुख में सुखी होना।” यह सूत्र जितना सरल है, उतना ही गहरा। नारदजी अपने समय से आगे के विचारक थे, इतने आधुनिक कि हमारे आज के तमाम बौद्धिक विमर्श उनके आगे फीके लग सकते हैं। यह विचार पश्चिमी दार्शनिक John Stuart Mill के Utilitarianism से मेल खाता है जिसमें अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख को नैतिकता की कसौटी माना गया। Jean-Paul Sartre के Existentialism में भी प्रेम को स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति कहा गया- “If you love someone, set them free.”

शिव हमारे पूरे सांस्कृतिक विमर्श में संतुलन स्थापित करते हैं। वे न केवल योगी हैं, न केवल गृहस्थ, बल्कि संतुलन के प्रतीक हैं। वे त्याग और स्वीकार, परिवार और वैराग्य के बीच का मार्ग चुनते हैं। उनका प्रेम पार्वती से है, लेकिन उनकी करुणा पूरे लोक से।

अतः यदि हमें प्रेम और पारिवारिक संबंधों को नए सिरे से समझना है, तो हमें शिव को देखना होगा- जहाँ प्रेम और आदर्श एक-दूसरे के विरोध में नहीं, बल्कि एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। यही कारण है कि शिव शुभ हैं, सत्य हैं और इसलिए सुंदर हैं।

पर्व शुभ हो।

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