
- राघवेंद्र तेलंग
सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
व्योम में व्याप्त अनुनादित स्वरों का दर्पण: संदर्भ विनय उपाध्याय के दस्तख़त
आत्मिक शब्दों का राग: आज हंसध्वनि के इस मंच पर वाक् की, मंत्र की, मंत्रमुग्ध क्रिया के रहस की बातें, वाग्देवी की बातें, वाइब्रेशन, आवृत्ति, तरंगों की बातें होने जा रही हैं। थोड़ा स्पिरिचुअलिटी यानी जड़ों की बात, थोड़ी अक्ष यानी तने की बात और कुछ-कुछ वर्तमान दौर की शाखाओं की बात। उधर, तरंगों से फूल खिलने की बात पर सोचने का काम आप पाठकों के हिस्से।
सर्वप्रथम नैसर्गिक शायर अहमद फराज़ साहब की झंकृत कर देने वाली ये पंक्तियां देखिए:
सुना है बोले तो बातों से फूल झरते हैं।
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं।।
यह आलेख मुंबई में लिखा जा रहा है और हाल ही में दरभंगा घराने के यशस्वी ध्रुपद गायक पंडित समित मल्लिक की लाइव प्रस्तुति सुनकर सतत महसूस होती अनुगूंजों से कंपायमान हूं। उन्होंने एक वाक्य में यह कहकर सारा सार प्रकट कर दिया कि संगीत पुकारने, आवाज़ देने की कला है। कुछ व्यक्तित्व होते ही ऐसे हैं कि लगता है उनमें वाक् की संपदा उनके डीएनए में ही बसी चली आई है। मैं अनुभव के बाद जान सका हूं कि ध्वन्यात्मकता की प्रज्ञा बहुधा अपनी व्यापकता, विस्तार के लिए स्वयं ऐसे पात्रों का चयन करती है जो जनचेतना में जीवन का सौन्दर्य लयात्मक परसेप्शन के, विजन को फोकस में लाए, इम्प्लांट करें।
जी हां! आज हम एक ऐसी ही वरेण्य विभूति को लक्षित कर अपनी शब्द संपदा का अर्घ्य दे रहे हैं, जिनके सप्तवर्णी प्रकाशित स्वरों ने मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक दूत का काम तो किया ही साथ ही इस कॉलम के लेखक को भी आलोकित किया है।
जी! आज हम आवाज़ से चंदन की सुगंध को कानों में घुलता महसूस कराने वाले एक विनयशील ‘परसोना’ या कहें चुंबकीय व्यक्तित्व की बात कर रहे हैं। ठीक! भोपाल निवासी विनय उपाध्याय की बात कर रहे हैं। आज संभव है आपको इस कॉलम में कुछ अधिक मिठास लगे क्योंकि विनय जी मेरे पुराने अभिन्न हमराही, सखा, मित्र जो ठहरे! ऐसा होता आया है कि कोई भी नैसर्गिक लेखक अपने लेखन में जो कुछ भी कहने से रह जाता है उसकी संपूर्ति वह अपने काव्यमय स्वर के माध्यम से, वाक् से पूरी करता है। अक्सर यह अकेले में की बात हुआ करती है, पर यही गुण विशेष जब मंच के जरिए समक्ष आता है तो शब्द के लयबद्ध कंपन, उनकी जादुई आवृत्ति श्रोता के अंतर्मन में दिव्यता का फॉर्म लेती है। ऐसा घटने के लिए शर्त मगर एक ही है कि स्वर संप्रेषण का वह पात्र मां शारदा की दृष्टि में चयनित हो।

विनय उपाध्याय के सुरीले व्यक्तित्व को संगीत के तीनों सप्तकों के रूपक से समझें तो अधिक आसानी होगी। इस बात को ऐसे समझें कि तार सप्तक और मंद्र सप्तक के अक्ष भले ही क्षैतिज तल पर आंदोलन के श्रम से उपजते हों पर मध्य पर जो नाभिक स्थित हुआ करता है वह परिणामी अक्ष होता है। हां! वह होता है, प्रस्फुटित होता है, परंतु क्षणिकजीवी है वह। हां! आनंद का वह बिंदु कण मध्य सप्तक में ही ऑसिलेट करता हुआ आता है और साधक की स्मृति के वृत्त पर दीर्घजीवी बनकर वहीं बना रहता है।
विनय जी के बारे में इसी बात को आगे विस्तार देते हुए कह सकता हूं कि बहुमुखी व्यक्तित्व होने के नाते वे व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि के तथ्यों को हमेशा अपने विज़न में रखते हैं। उनको सुनकर साफ झलकता है कि वाकई मनुष्य की सीमित ऐंद्रिक क्षमता के चलते साहित्य, कला और संगीत विज्ञान ही वे माध्यम या उपकरण हैं जो मनुष्य को उसकी संपूर्णता की खोज के लिए संभावित दूसरी दो अन्य दुनिया की परिधि से छुअन संभव कराते हैं। विनय जी का स्वर सुनते ही कहीं अंतर्मन से एक आवाज आती-सी लगती है कि परम आनंद की हमारी अनुभूति के हार्मोन का स्राव सौ पर्सेंट नेचुरल, नैसर्गिक माध्यम में की गई कंपित आवृत्ति पर ही होता है। जिसके अंदर सौ होने, हो सकने का एलिमेंट नहीं उसके भीतर निसर्ग के आनंद के स्वरों का प्रवेश भी नहीं।
हां! इस कांक्रीटी दुनिया में अब भी अल्ट्रा और इंफ्रा बैंड की संवेदनाओं की दुनिया कुछ समर्पित साधकों की पूर्वांग-उत्तरांग आवृत्तियों की प्रतीक्षा दृष्टि आपको पुकार रही है, इसे सुग्रीवा विनय जी के अंतस के अदृश्य स्पेस में अंदर बरकरार चमकती सतह पर गाहे-बगाहे झिलमिलाती सप्तकी बूंदों में मैंने देखा है। एक आभा में गुंफित द्युति, बाहर आकर सबको छूने को बेताब। यही चमक, द्युति ही एकमेव कारण है कि जो विनय उपाध्याय में से आविर्भूत स्वर का मल्टी डायमेंशनल इफेक्ट अंतत: श्रोतावृंद को मोहपाश में बांध ही लेता है।
कुछ दस्तकें, कुछ दस्तख़त: एक सांस्कृतिक दर्पण
हाल ही में कलाविद, सांस्कृतिक पत्रकार, संपादक विनय उपाध्याय की मील का पत्थर कही जा सकने वाली किताब प्रकाशित हुई है। शीर्षक है, कुछ दस्तकें, कुछ दस्तख़त। यह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और भारतीय कला संस्कृति जगत की तात्विक चर्चा के ललित गद्य और इस क्षेत्र से जुड़े शिखर विभूतियों से किए गए आत्मीय संवादों पर आधारित ललित गद्य- आलेखों का संग्रह है। बल्कि तो कहना चाहिए कि इस संग्रह का कुल कंटेंट परस्पर घटित सिंक्रोनाइज्ड संवादों का द्योतक है जिसमें छुपा हुआ वह स्पार्क पाठक में ‘कुछ’ की कौंध बनकर उतर जाता है। काव्याभासी गद्य के जरिए कहा हुआ इसमें का सारा कुछ कहीं से भी वैचारिक नहीं लगकर स्पष्टत: आत्मिक दर्शित होता है। संग्रह के ब्लर्ब पर प्रेमशंकर शुक्ल भी इसी बात की पुष्टि करते हैं कि यह पुस्तक समझ को संस्कारित करने के लिए एक जरूरी दस्तावेज है जिसके बगैर सत्य की पवित्रता की वास्तविक अनुभूति असंभव है।
कलाकारों के माध्यम से कही गई कहन के कथ्य और कथ्य की लाइनों के बीच के स्पर्शित अंतर्मन की अनुभूति यह है कि विनय जी की औत्सुक्य भाव भरी प्रश्नावलियां कलाकार की रचना प्रक्रिया और यात्रा को और विस्तारित होने को सहज भाव से बाध्य कर ही देती है और यूं भारतीय संस्कृति के रूट्स में पिरोई नमी का परिचय क्वांटम लेवल से मैक्रो लेवल तक जाता हुआ-सा लगता है। इस सबका श्रेय विनय जी को ही है जिसके कारण पाठक पुस्तक में उपस्थित हर कलाकार को बेहद नाज़ुकी और सलीके से पढ़कर उसकी समझ के करीब जाने का प्रयास करता है। इस संग्रह में विविधवर्णी कलाकारों के संवादों के जरिए अभिव्यक्त कलात्मक संवेदनाओं की परख कंटेम्परेरी धारदार आंखें फाड़कर नहीं की जा सकती। बल्कि ‘कुछ दस्तकें, कुछ दस्तख़त’ के केनवस पर उड़ान के पंख की कलम से लिखे गए चमकीले सुवर्ण हर्फ-हर्फ इस तरह महसूस किए जा सकते हैं जैसे ब्रेल लिपि के पाठक करते हैं।

इस संग्रह के स्वर्णिम आलेखों में टैगोर, पंडित जसराज, पंडित रविशंकर, गिरिजा देवी, एम.एस.सुब्बलक्ष्मी, ज़ाकिर हुसैन, लता मंगेशकर, वसुंधरा कोमकली, बेगम परवीन सुल्ताना, तीजनबाई, हृदयनाथ मंगेशकर आदि पर केंद्रित पठनीय सामग्री है।
इस संग्रह को पढ़ते हुए समझा जा सकता है कि सिर्फ आर्थिक समृद्धि के शॉर्टकट रास्तों, हुड़दंग और शोर पर फोकस्ड आधुनिकता की इस संस्कृति में एक संवेदनशील कलाकार संगीतमय रस की संस्कृति के अनुकूल माहौल तैयार करने की जद्दोजहद आखिर तक करता रहता है। जीवन में भला आनंद रस के सिवा और किस तत्व की आवश्यकता है! वहीं क्रिया की विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया बतौर दूसरी ओर निष्ठुर आधुनिक संस्कृति अपने मुताबिक कलाकार का अनुकूलन करने पर आमादा है। ‘कुछ दस्तकें, कुछ दस्तख़त’ का ऐसे समय में आना इसी द्वंद्व भरे माहौल में मात्र संघर्ष की ही नहीं बल्कि एक बागबां की छत्रछाया में अंकुरित होने की जिजीविषा की एक कसमसाती-सी सांगीतिक आवाज है। ऐसे समय में जब अधिकाधिक लोगों के जीवन और स्मृति से सरगम का इंद्रधनुष विदा ले चुका हो विनय उपाध्याय ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि संगीत-संस्कृति से हमारा रिश्ता पहले जैसा जरूर हो सकता है। अब हमारी बारी है कि हमारी सोच में संगीत की उस शक्ति पर विश्वास उतरे कि हां! ऐसा हो सकता है, बशर्ते अब तक सूत की काती हुई उस महीन डोर पर से हमारा विश्वास भंग न हुआ हो।
साक्षात्कार के अनुभवों से उपजे विभिन्न आलेखों में विभिन्न काव्यात्मक चर्चा से विविध रागों-बंदिशों और सांगीतिक वातावरण के शाब्दिक प्रभाव को अनुभूत कर लेखक ने इस संग्रह के पन्नों पर शब्दों और शब्दों के बीच खाली स्पेस में किस तरह आत्मिक सांगीतिक बोध को सूक्ष्मता से पिरोया या कहें उतारा है,यह देखना बहुत दिलचस्प है। दिव्य शब्दावली से संपूरित साहित्य और संगीत के विरल अंतरसंबंधों के प्रकटीकरण के लिए यह संकलन स्मरणीय रहेगा और इस समझ को प्रकट करने के लिए भी कि अपरोक्ष ईश्वरीय अनुभूति के लिए साधना ही वह एकमात्र पथ है जिस पर सिंधु घाटी सभ्यता,सनातन नागरी संस्कृति से लेकर अब तक समूचा पूरब ही टिककर चल सका है। ऐसी कृति को रचने के लिए उद्भट सृजनशीलता और धैर्य चाहिए जो मित्रवर विनय उपाध्याय ने संभव कर दिखाया है। उनके लिए कहना सार्थक होगा कि
विद्यां ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम्॥
विनय जी के नामकरण को सार्थक करती इस कृति के लिए शुभकामना और साधुवाद।
अब आलेख समापन के पूर्व विनय जी के रचनाशील सक्रिय साहित्यिक व्यक्तित्व पर कुछ और विशिष्ट बातें।
मेडिटेशन में संगीत की महत्ता को आज सबको स्वीकार्य हैं ही। ध्यान और मनन के पहलू किसी साहित्यिक कृति में जब समझ और दृष्टि के साथ तिनका-तिनका पिरोये जाते हैं तब कहीं जाकर ‘कुछ दस्तकें कुछ दस्तख़त’ जैसे कलावंतों के अप्रतिम संवादात्मक लेखों का संचयन का प्रकाशन संभव हो पाता है। आईसेक्ट का भी अभिनंदन है इस अप्रतिम कृति की रचना संभव करने के लिए। कहना न होगा कि जो स्थायी चौरंगी मंच इन्हें नौ बिंदुओं की क्रीडा के सातत्य से एक-सा स्पंदित रखकर सृजनशील बनाए हुए है वह मानस का एक सरोवर है जहां साक्षात सरस्वती अपने हंसों में नीर-क्षीर विवेक का बोध जागृत कराती है। जब ऐसा घट में घट जाता है तब मानस तल पर कॉस्मिक ऑर्केस्ट्रा अर्थात संगीत की नक्षत्र गाथा पुस्तकाकार रूप में स्वत: प्रतिबिंबित हो उठती है। पाठक स्वयं अनुभूत करेंगे कि आईसेक्ट प्रकाशन से प्रकाशित यह ग्रंथ संगीत-साहित्य के रसिकों के लिए एक अविस्मरणीय भेंट है।
एक तरह से देखा जाए तो भारतीय शास्त्रीय संगीत अपने आप में ही नाद योग है। संगीत के स्वरों और शब्दों के अंकन के ऐसे लयात्मक संगम को योग के ध्यान और मनन पक्ष के फलित से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए, ऐसा सूक्ष्म आग्रह विनय उपाध्याय के शब्दों में से आती ध्वनि की तरंगों के अनुनादित स्वरों की गूंज को सुनते हुए लगता है। अब जब भी कभी आप पूर्वांग अंग की वह धीर-गंभीर पुकार सुनें और भाव-विभोर होने लगें तो समझ लीजिए संस्कृति की पारंपरिक जड़ों के कंपनों को स्वर देने वाली उस मधुर आवाज़ के पीछे वही एक नाम है यानी कलावंत विनय उपाध्याय।
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