एक ही घूंट में दीवाने जहां तक पहुंचे…
हर ऊंचाई पर पहुंचकर महसूस होता है कि यह वह ऊंचाई नहीं है जिसकी तमन्ना रही है। तो फिर वहां कैसे पहुंचा जा सकता है?
एक ही घूंट में दीवाने जहां तक पहुंचे… जारी >
हर ऊंचाई पर पहुंचकर महसूस होता है कि यह वह ऊंचाई नहीं है जिसकी तमन्ना रही है। तो फिर वहां कैसे पहुंचा जा सकता है?
एक ही घूंट में दीवाने जहां तक पहुंचे… जारी >
सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में क़ैद समझ कर चलने वाला तो अभी ख़ुद को भी नहीं जानता है। वह कौन है, उसकी ताक़त क्या है?
ठहरो-ठहरो मुझे अपनी तो ख़बर होने दो… जारी >
आधुनिक हिंदी कवियों ने राजनीतिक, सामाजिक मुद्दों के साथ यथार्थ को अपनी कविताओं में रेखांकित किया है। वहीं आशीष कुमार शर्मा ‘भारद’ की रचनाओं में हमें छायावाद की विशेषताओं की झलक मिलती है।
जो कुछ आया सम्मुख सब उपमान तुम्हारे नाम किए… जारी >
मंज़िल का मिलना उतना ख़ास नहीं है जितना ख़ास रास्तों की तकलीफ़ों का सामना करना और समझना।
सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है… जारी >
इसे ज़िन्दगी की ज़रूरियात और इंसानी हक़ों के नज़रिए से समझना नए अर्थ खोलता है। सरपरस्त जब अपनी रिआया को नज़रंदाज़ कर देता है तो उसे कहीं सहारा नहीं मिलता है।
जिस को तुम भूल गए याद करे कौन उस को… जारी >
जो बंदा बंदगी के रंग में डूबता है वह दुनियादारों से कुछ इसीलिए अलग होता है क्योंकि वह अपने भीतर छुपे हुए राज़ को राज़ नहीं रहने देता। वह सब कुछ सामने लाने की हिम्मत करता है।
मंज़िल पर पहुंचने की चाह में रास्तों से गुज़रना भूल जाते हैं… जारी >
दो मिसरों में दो ख़याल बांधते हुए उनमें रब्त कायम करना यह शाइर की ख़ूबी होती है। इस लिहाज से जनाब जसवंत राय शर्मा उर्फ़ नक्श लायलपुरी का यह शेर विराधाभासों में ख़ूबसूरती पैदा करता है।
अभी तो खुश्क पैरों पे मुझे रिमझिम भी लिखनी है… जारी >
जो बंदा बंदगी के रंग में डूबता है वह दुनियादारों से कुछ इसीलिए अलग होता है क्योंकि वह अपने भीतर छुपे हुए राज़ को राज़ नहीं रहने देता। वह सब कुछ सामने लाने की हिम्मत करता है।
इस शेर के ज़रिए बखूबी समझी जा सकती है ‘थ्योरी ऑफ कनेक्टिविटी’ जारी >
इस शेर को अगर सिर्फ़ प्रेम के पहलू से देखा जाए तो एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को देखने की चाह में उसकी गली से इस तरह गुज़रने की बात करता है कि उसे ख़बर नहीं होती लेकिन वह उसे छू कर गुज़र जाता है।
तेरी गली से गुज़रता हूं इस तरह ज़ालिम… जारी >
सत्यम श्रीवास्तव की किताब ‘स्मृतियाँ जब हिसाब माँगेंगी’ को पढ़ते हुए हम कोविड 19 से मिले दंश को दोबारा महसूस करते हैं। बल्कि यह कहना सतही होगा। उपयुक्त तो यह है कि इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम उन बातों से रूबरू होते हैं जो उस वक्त बड़े समाज के गौर में नहीं आई।
लॉकडाउन के 6 साल: सत्यम श्रीवास्तव के मार्फत स्मृतियाँ हिसाब माँग रही हैं… जारी >