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सत्यजीत रे: स्त्रियों को ऊँचा करने के लिए पुरुषों को कमतर नहीं आँका

सत्यजीत की फिल्मों में स्त्री वस्तु नहीं है, वह सज्जा की सामान भी नहीं है। वहाँ महिलाओं के अधिकारों को बरकरार रखने की जद्दोजहद है लेकिन पुरुषों की कीमत पर नहीं।

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गुरु के सान्निध्य में रियाज़ की प्रोसेस

संगीत से जुड़े मनुष्य के मनोवैज्ञानिक और व्यवहारगत पक्षों से भी हर कलाकार को परिचित होना चाहिए। आज की भाग-दौड़ भरी जीवनशैली में बढ़ते स्ट्रेस और एंग्जायटी से निपटने के लिए भी लोग संगीत के निकट आ रहे हैं। यह उजला पक्ष भारतीय समाज के जागृत विवेक का स्वत: परिचायक है।

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हे मेरे मरण, आ और मुझसे बात कर

अहा! उसकी वे स्नेह भरी आँखें! आँखे भर क्यों? चेहरा, देह, देह का रोम-रोम जिस स्नेह से, जिस प्रेम से भरा है। खासकर तब, जब वह अपनी बेटी को गले लगा रहा है! पीछे ही वह दूत प्रतीक्षा में है जिसके साथ उसे उस पार चले जाना है।

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काम में आनंद ढूंढना और आनंद से काम करना, जिनका जीवन दर्शन

आज हम बात कर रहे हैं ऑर्गेनिक संवाद को बनाए रखने के लिए गठित प्रोफेशनल्स के समूह संवाद और संपर्क की। इस ग्रुप में के सदस्‍य बंद दरवाज़ों के लोग नहीं हैं बल्कि ये सब फ्रेश हवा की दुनिया के लोग हैं।

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ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे… कहने का अर्थ क्या है

सोचकर देखिए! यात्रा में एक बार बगल में किसी की नेविगेटर सीट पर अगर ईश्वर सहयात्री के रूप में बैठ जाए तो फिर उस सफर को तो तब सफल होना ही है।

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धरती की धड़कनें सुनने के लिए, बीज होना होता है… हवा में बहना होता है

गुरुडोंगमर की चुप्पी और कन्याकुमारी की गर्जना- दोनों एक ही संगीत के स्वर। जीवन इस संगीत में बहता है, हर कण में, हर तरंग में। पत्थर रेत बनते हैं, सागर शीतलता बुनता है, और यह लय हमें अपने भीतर समेट लेती है।

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… जैसे किसी को सदियों बाद अपनी प्रेमिका की चिट्ठी मिल गई हो

जब कोई प्रेम कविता लिखी जाती है तो उसमें महुआ का नाम भले न हो लेकिन उसकी गंध ज़रूर होती है। वह हर प्रेम की तह में बैठा होता है, जो सब जानता है लेकिन कहता कुछ नहीं।

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जीवन महज एक अनुभव है, हमें जिसे केवल देखना है

रातों में तारों को हमारा निहारना कहीं हमारे होने की दिशा से हमारा बतियाना ही तो नहीं! एक फूल जब झरता है तो अंततः वह अपनी ही जड़ों के सबसे निकट होता है। जड़ें जहां से वह चला था। जड़ों के निकट ही तो बने रहते हैं सोते, झरने, जो अस्तित्व के हर हाल में होने, होते रहने की ओर एकमात्र इशारा हैं।

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अपने में से गुजरकर मिलने वाली नई राह!

विचार हमारे अंदर इस कदर जमे हुए हैं कि इनसे अपने आपको खाली करने का विचार कभी हमें आता ही नहीं। इस तरह कुल मिलाकर हम विचारों के ही पूंजीपति होकर रह जाते हैं। जरा सोचिए विचार के अलावा भला हम और आप आखिर हैं ही क्या!

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इश्‍क रूहानी: क्‍यों मैंने ताजमहल नहीं देखा…

मैं अक्‍सर जिद किया करता था, मुझे आगरा जाना है। समझाइश मिलती, छुट्टियों में जाएंगे। कई छुट्टियां आईं और गईं। मैं कई जगह गया। मगर राह में आगरा आया ही नहीं।

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