पर्दा गिरा… हिंदी रंगमंच के नटसम्राट आलोक चटर्जी विदा

  • टॉक थ्रू टीम

जबलपुर में जन्मे संघर्षशील, मिलनसार, हंसमुख कलाकार और रंगनिर्देशक… आलोक चटर्जी नहीं रहे। रंग गुरु बव कारंत के गुणी शिष्‍य आलोक चटर्जी अपने सिद्ध रंगकर्म के कारण ख्‍यात थे। आलोक चटर्जी कारंत द्वारा तैयार ‘भारत भवन’ के रंगमंडल में 1982 से 1984 तक रहे। फिर राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) पहुंचे और 1987 में गोल्ड मेडलिस्ट रहे। एनएसडी से ग्रेजुएट होने के बाद वे 1988 से 1990 तक एक अभिनेता के तौर पर जुड़े रहे। 2018 से 2021 तक मप्र नाट्य विद्यालय के निदेशक भी रहे। आलोक जी को रंगमंच में उनके योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था।

कई साल पहले आलोक जी के पिता का नौकरी के सिलसिले में पश्चिम बंगाल से दमोह आना हुआ। इनका जन्म जबलपुर में हुआ और यहीं शिक्षा भी हुई। साइंस कॉलेज में आलोक जी अरुण पाण्डेय जी के जूनियर थे. उस वक़्त कॉलिज में आयोजित हुए एक क्रिकेट मैच में अरुण दादा इनकी क्रिकेट कमेन्ट्री से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपने साथ विवेचना में थिएटर करने का प्रस्ताव रखा जिसे इन्होने सहर्ष स्वीकारा। सन 1980 के करीब, विवेचना में उस वक़्त अलखनंदन जी के निर्देशन में काफी काम हो रहा था। उन्हीं के निर्देशन में आलोक जी की रंग यात्रा शुरू हुई, जिसमें अरुण पाण्डेय जी, नवीन चौबे जी सहित अन्य कलाकार उनके साथी बने। सन 1981 के लगभग भोपाल में भारत भवन बन चुका था. वहां की रेपेट्री में कलाकारों की आवश्यकता का विज्ञापन निकला। कई लोगों ने इंटरव्यू दिए जिसमें विवेचना जबलपुर के कुछ लोगों का चयन हो गया जिसमें आलोक चटर्जी भी थे।

‘मृत्‍युंजय’ और ‘नट सम्राट’ नाटकों के लिए सदैव याद किए जाने वाले आलोक चटर्जी का रंग मंच पर हर विन्‍यास अनूठा और यादगार था। रंगकर्मी असीम दुबे लिखते हैं कि 1991 में प्रख्यात रंगकर्मी जयंत देशमुख ने जब शिवाजी सावंत के उपन्यास मृत्युंजय पर नाटक करना चाहा तो कर्ण के चरित्र के लिए उनके सामने एक ही नाम आया और वो था आलोक चटर्जी का। भारत भवन के खुले आकाश के मंच पर जब नाटक मृत्युंजय में आलोक चटर्जी कर्ण के किरदार में अवतरित हुए तो दर्शकों को लगा वे महाभारत के कर्ण को साक्षात देख रहे हैं।बाड़ी मूवमेंट, एक्सप्रेशन्स और संवाद अदायगी ऐसी कि दर्शक मंत्रमुग्ध। आलोक भाई के साथ एनएसडी से पास आउट अनेक अभिनेताओं ने फ़िल्म इंडस्ट्री का रुख कर लिया और कामयाब भी हुए पर रंगकर्म और रंगमंच को पूरी तरह से समर्पित आलोक भाई ने रंगमंच को ही अपनी कर्मभूमि माना और अंतिम समय तक रंगमंच को अपने अभिनय से एक ऊर्जा और ऊंचाई प्रदान की।

आलोक भाई ने विगत लगभग 40 वर्षों में भोपाल के जाने कितने ही अभिनेता-अभिनेत्री को नाट्य विद्या की शिक्षा दी और उनमें रंगकर्म के प्रति आस्था जगाई। मेरी उनसे पहली मुलाकात तब हुई जब मैंने अनिल दुबे, अनंत तिवारी और मनोज जोशी के साथ आलोक भाई की संस्था दोस्त में उनके निर्देशन में काम करना शुरू किया। ‘मृत्युंजय’, ‘नटसम्राट’ और ‘अंधा युग’ के अश्वत्थामा में आलोक भाई ने अभिनय की उत्कृष्ट मिसाल पेश की। आलोक भाई का जाना देश के रंगमंच से अभिनय के एक अध्याय का समाप्त होना है।

प्रख्‍यात कवि प्रोफेसर आशुतोष दुबे लिखते हैं, आलोक चटर्जी न मेरे परिचित थे, न उनसे कभी मिलना हुआ । वे रंगकर्मी थे। अभिनेता। हम दर्शक। यही सम्बन्ध था। यही वास्तविक सम्बन्ध है। भारतभवन के रंगमंडल के शिखर दिनों में आलोक की रंगऊर्जा एक अलग ही जादू जगाती थी। वे अक्सर केन्द्रीय भूमिकाओं में होते थे। उनकी आवाज़, उनका स्पीचवर्क, उनकी देहगतियाँ: आलोक हर पैमाने पर एक जबरदस्त अभिनेता थे। कोई ताज्जुब नहीं कि एन एस डी में भी उन्होंने इस श्रेष्ठता को फिर सत्यापित किया। उनके साथ के और उनसे जूनियर अनेक अभिनेता सिनेमा में चमके और बुझे लेकिन वे रंगमंच पर जगमगाते रहे। उन्होंने अनेक को प्रशिक्षित किया, सँवारा। मैं उनके निजी जीवन के बारे में नहीं जानता, न उनके संघर्षों के बारे में, न बीमारियों के बारे में। कुछ ही समय पहले मैंने, अंतिम बार, उन्हें ‘नटसम्राट’ में मंच पर देखा था। नाटक देखते हुए याद नहीं आता कि कभी आँसू आए हों लेकिन इस नाटक ने रुला दिया। उम्र के साथ साथ आँखों का बरबस गीला होना भी बढ़ता जाता है। अभिनेताओं की एक उम्र होती है लेकिन उनके द्वारा अभिनीत पात्र दर्शकों की स्मृति में जीवित रहते हैं।
आलोक भी अपने जिए पात्रों में रह गए हैं। विली लोमन में, कृष्ण में, देवदत्त में।

आलोक चटर्जी की स्‍मृति में ….

  • वसंत सकरगाए

दाख़िल होते ही भारत भवन के स्वाद रेस्टोरेंट में
हाथ उठाकर कहता था शिल्पकार
कैसे हो आलोक भाई!

कैसे हो आलोक भाई! पूछता था चित्रकार
टेबल पर थप जमाता आलाप भरता कोई गायक
कोई साजिन्दा उठाकर उंगलियां
कहता था- हाय आलोक भाई!

यहीं किसी कुर्सी पर बैठा
सिगरेट के कश-दर-कश खींचता
टेबल पर माचिस बजा-बजाकर
जब छेड़ता था आलोक चटर्जी
व.बा कारंत का रंग-संगीत
गूँज जाता था और गुथ जाता था सारा माहौल-
वाह..वाह आलोक भाई!
और भीतर ही भीतर झूम उठती थीं
माचिस की तीलियां
मंत्रमुग्ध सुनती थीं फूलों पर बैठी तितलियाँ

नाट्य-मंचन के अगले दिन
जब अख़बारों में छपती थी तस्वीरें
सफ़ह पर दिखता था अभिनय का शिल्प
भाव-भंगिमाओं का अनूठा चित्र
जैसे तैर रही हो अख़बार के पन्ने पर
अमीर ख़ान की स्वर लहरियाँ ध्रुपद का आलाप
कारंत की विरासत

नाटक का कीड़ा था आलोक चटर्जी
रेशम का कीड़ा!
जिसकी संवाद-अदायगी की लार से निकलता था
रेशम का एक नया व्याकरण
और शागिर्दों के लिए बनता था रेशमी कपड़ा

कभी देखा है आलोक चटर्जी को
नाटक शुरू होने से पहले ग्रीनरूम में
आँखे बंद किए
जैसे बैठा हुआ है नाट्यशास्त्र का कोई तपस्वी
ध्यानमग्न!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *