राघवेंद्र तेलंग
सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता
आएगा आने वाला, आएगा… आएगा…
हमारे भीतर की विचार प्रक्रिया अदृश्य को जानने की एक लैब है। इसका महत्व वही समझ पाता है जिसने दृश्य और अदृश्य को देखने के लिए दो अलग-अलग माध्यमों का उपयोग करना सीख लिया है।
वह जिसे विचार के माध्यम से ही देखा जा सकता है,जाना जा सकता है,उसे विचार के द्वारा पाया भी जा सकता है। हां! यह भी संभव है कि वह स्वयं भी तुम्हारे विचारों में प्रवेश कर सकता है। बशर्ते तुम उसी के विचार के जैसे हो जाओ। एक ही भाव के विचार का उसी तरह के भाव से मिलन होना एक वैचारिक सहयुग्मता है,एन्टैन्गलमेंट है। किसी के करीब होने के पहले उसके करीबी विचारों को पढ़ना सीखो,फिर उन विचारों के मुताबिक होना सीखो। फिर होगा यह कि वह तुम्हारे मुताबिक होता चला जाएगा,तुम्हारे करीब आ जाएगा। एकदम करीबी हो जाएगा।
इलेक्ट्रॉन आऊटर ऑर्बिट में होता है, सबसे पहले बाहरी द्वार पर सभी आगंतुकों से संक्रिया यही करता है, यह द्वारपाल है, रक्षक है। इसका आवेश ऋणात्मक है। यह आग का कैरियर है। रूई के फाहे जैसे नर्म और मुलायम रिश्तों को इस आवेश रूपी आग से बचाए रखो। आग फैलाने वाले विचार चेन रिएक्शन प्रकृति के होते हैं। गॉसिप और परस्पर विद्वेष फैलाने की क्रियाओं के विचार इस आग के प्रतीक हैं। इनके लिए स्थान की निर्मिति होने ही मत दो। अपने को क्रिएटिव्ह कामों में झोंके रहो। इस तरह सतत प्रोटान यानी धनात्मक बादलों का निर्माण करते रहो। थकान के वक्त यही ठंडी हवा देंगे। इसको पार करके ही आप सकारात्मकता के प्रतीक धनावेश और न्यूट्रलेटी के केंद्रीय स्थान में पहुंच सकते हैं।
इलेक्ट्रान टाइप विचारों की ऊर्जा ही हमें दिन भर की दौड़-भाग के लिए ताकत देती है। वहीं प्रोटान टाइप विचारों की ऊर्जा हमें विश्राम के समय अपनी गोद उपलब्ध कराती है। दोनों आवेशित विचारों में आपसी सहमति से संयोजन बैठ जाए तो एक दिलचस्प राह फूटती है जिस पर यात्रा करते हुए असीम शांति मिलती है। और यह राह न्यूट्रान की, न्यूट्रल की, न्यूट्रेलिटी की है। यहां इस राह पर पांव जमते ही आप जीवन के वास्तविक अर्थों के संधान की ओर चल पड़ते हैं। एक बार इस पंथ के पथिक हो जाने पर फिर पीछे लौटने का विचार ही नहीं आता। इसीलिए इस राह को पाथ ऑफ नो रिटर्न कहा गया है। अभी जब आप यह पढ़ रहे हैं तो आपको अहसास हो गया होगा कि लेखक के विचारों की टॉर्च का काम इशारा भर करना है सिर्फ। निरपेक्ष होने के लिए,असीम शांति की राह पर चलने की शुरूआत कभी न कभी खुद हमें ही करना होती है। हमने ऊपर बात की ही है कि कैसे ऋण और धन प्रकार के विचारों के बीच संयोजन हो जाए तो यह युति या गठबंधन एक चाबी का काम करता है। एक बार यह सध जाए तब फिर आपको यह भी समझ आ जाता है कि दरअसल सारे इत्तफाक तयशुदा होते हैं और बहुतेरे मामलों में लक्ष्य सुनिश्चित करना हमारे अपने ही हाथ में होता है।
विचारों को भी तीरंदाजों की-सी साधना करके साधा जाता है। जिस तरह मन में अनिच्छा के बावजूद लगातार विचार आते रहते हैं,निर्बाध, द्रुत गति से, बिना ब्रेक के, एक के बाद एक,वैसे ही इस झंझावात को रोकने के लिए,उन पर नियंत्रण करने के लिए सायास एक विचार प्रणाली का विकास करना पड़ता है। यह सोचा समझा विचार-सिस्टम मन या माइंड नामक इल्युज़िव्ह-सिस्टम के सापेक्ष खड़ा करना पड़ता है। और यह काम बोधयुक्त विवेक करता है, ब्रेन या मस्तिष्क नहीं।
हमने प्रारंभ में ही यह वाक्य कहा कि हर अदृश्य को जानने की एक लैब है और वह है विचार प्रक्रिया। दुनिया की अधिकांश समस्याएं पहले-पहल समस्या के विचार से ही शुरू होती हैं। गड़बड़ तब होती है जब हम लोग विचार की शक्ति को अलक्षित कर विचार जनित समस्याओं के समाधान भौतिक स्रोतों के संसाधनों में देखते हैं। सबसे जरूरी है वैचारिकी यानी थॉट प्रोसेस रचने के कौशल का खुद में पनपना-पनपाना। थॉट प्रोसेस रचने के लिए पहले एक केनवस को रचना होगा,वह भी अपने विजन में। विजन आगे जाकर यह तय करने लगता है कि कब यह केनवस एक परावर्तक सतह हो जाए ताकि अवांछित, ऋण टाइप के विचार रिफ्लेक्ट हो जाएं, दूर हो जाएं और कब वह धन टाइप के उपयोगी विचार अवशोषित कर ले, एब्जॉर्ब कर ले, समाहित कर ले।
हमने बात विचार के विचार से शुरू की थी। आगे हमने इसे विचारों की परस्पर सहयुग्मता या एंटेंगलमेंट से भी जोड़ा। यहां से और आगे जाते हुए हम निरपेक्ष विचार प्रणाली की महत्ता तक पहुंचे। और आगे जाकर हमने परमानंद की प्रतीति स्वरूप ईश्वरीय अनुभूति के अदृश्य पहलू को छुआ। यह सब कहने से साफ हो गया होगा कि विचार की यात्रा दृश्य से अदृश्य की ओर जाती है। इस तरह यह समझा जा सकता है कि हरेक के भीतर विचार की यह प्रयोगशाला अस्तित्व में रहती है।
विचारशून्य होने पर फिर सदा आप एक ही काल में अवस्थित होते हैं। यह गुण आपको एक-सा मगर ठोस प्रवृत्ति वाला बना देता है,आपके ही लिए विश्वसनीय। अब यह एक-सा भाव आती-जाती दृश्यावलियों में से सिर्फ वर्तमान के दृश्यों में से बाहर फूटते विचार की तरंगों के प्रति ग्रहणशील होता है और उन्हें बेस्ट निर्णय में तब्दील करता है। ठीक आविष्कार के नवोन्मेषी तथ्यों, सत्यों की तरह। इस तरह आप पाते हैं यही वास्तविकता में आश्चर्य के विचार की प्रक्रिया है। जीवन का ज्ञान अनुभवों के चलायमान दृश्यों को ऑब्जर्वर की तरह देखते रहने से और उनमें से छनकर आती सीख और आपकी बोध दृष्टि से मिलकर बनता है।
हर बार आप आश्चर्य से सीखते हैं। जो ज्ञान अचानक प्रस्फुटित हो, वही सिखा जाता है। हर अचानक घटना एक आश्चर्य का होना है। आश्चर्य स्मृति की तलहटी में सीधे तुरंत जाकर बैठ जाता है। इस तरह से आए हुए ज्ञान को सायास स्मृति में बैठाने के लिए जोर नहीं देना पड़ता। यह आते ही फूट पड़ता है। यह स्मृति के लिहाज से स्टोरेबल नहीं होता। यह होने में है। यह डायनामिक है। इसे रोका कि यह छूटा। इसीलिए सत्य विचार नहीं है। यह गति में साथ चलते रहते हुए भीतर उतरा हुआ रहता है। रूककर कहने से यह अपने स्वरूप में नहीं बचता। ठहरे हुए पानी पर बन आई झिल्ली, मेंम्ब्रेन को गौर से देखिए,इस परत की सरफेस टेंशन मजबूत है। यह बाहरी बलों से प्रतिरोध के लिए बना किला भी है। इस पर बारीक कीट-जीव एयरपोर्ट की तर्ज पर लैंड करते हैं, विश्रांति लेकर फिर उड़ जाते हैं। अपने सारे विचारों को इस एयरपोर्ट पर उतारिए। यह उदाहरण भारहीन विचार प्रणाली और हमारे मन की ओर संकेत है। मन की उथल-पुथल ठहर जाए तो हर विचार भारहीन लगेगा, आएगा, ठहरेगा और आप न चाहें तो उड़ जाएगा। मिनिमल के साथ जीना यही है। इस तरह सब कुछ नियंत्रण में हुआ जाता है, बस एक विचार प्रक्रिया की मशीनरी को समझ लेने से।
जब आप दृश्य के मुताबिक विचार करना सीख जाते हैं तब फिर यह सब वर्तमान में घटता है। ऐसे में पहले और बाद की चिंताएं खो जाती हैं। इस तरह मृत्यु का विचार फिर नहीं सताता। आप आगत सहित सबके बारे में नीति बना लेते हैं कि अब आगे जो भी होगा देखा जाएगा। यानी जब दृश्य बनेगा तब ही दृश्य का विचार भी उसी में से आएगा। इस तरह आप पाते हैं कि आप विचार की बंधन प्रणाली से मुक्त हैं और यह अब मन की प्रणाली पर भी संपूर्ण नियंत्रण है। अब आप वो मुक्त जीव हैं जो अस्तित्व में घुलनशील हो गया होकर अस्तित्व ही हो गया है।
जिस विचार रूपी ऊर्जा पर यहां बात हो रही है वह पंचतत्वों के भीतर का समाया हुआ प्रवाह है,पांच इंद्रियों की अनुभूति का विषय। जब पंचतत्व एक साथ या उनमें से कोई भी युग्म प्रकट होते हैं तो यह जीवन प्रवाह अस्तित्व में आता है। जब पंचतत्व या कोई भी संयोजन प्रकट नहीं होते तब यह भी प्रकट नहीं होता। यह दरअसल अस्तित्व है।
यह सब आपकी विचार प्रक्रिया में घटता है। चूंकि सब कुछ डायनामिक है,प्रवाहित है,गतिज है अत: यह अस्तित्व स्वयं में ही डायनामिक है। अगर आप ठहरे हुए विचार में जड़ की भांति विश्राम में हैं तो यह नॉन-डायनामिक मोड का, आरंभिक अवस्था का अस्तित्व आपके कारण से डायनामिक होने की प्रतीक्षा में है, स्टार्ट होने को बेकरार। जैसे ही आप अपने में एक या अधिक प्रवाहित विचारों की शृंखला को उपजाते हैं, धारण करते हैं, आप डायनामिक अस्तित्व हुए जाते हैं। फिर अस्तित्व के भीतर के प्रवाह की प्रकृति और आपके भीतर के प्रवाह की प्रकृति एक-सी हो जाती है। अस्तित्व में ऊर्जा कंटीन्युइटी, सातत्य रूप में बहती है। आपमें भी अस्तित्व की-सी ऊर्जा तब बहती है जब आपके भीतर की ऊर्जा की वैचारिकी में, थॉट प्रोसेस में कंटीन्युईटी, सातत्य होता है। यही अस्तित्व के साथ सहयुग्मित होना है,एंटेंगल्ड होना है। कोई भी कंटीन्युइटी सभी कणों की एक-सी प्रकृति के होने और उन सबको एक संकल्प के तहत एक सूत्र में बांधने के कारण घटती है, तब जाकर उस ऊर्जा के बल का आप प्रयोग कर पाते हैं। यह मूलत: डिवाइन एनर्जी की अनुरूपता को फालो करते हुए, मिमिक करते हुए अपने को अपने में बल प्रदान करना है, ऊर्जा देना है।
विचार के ऊर्जा के रूप में रूपांतरित होने की यह एक सरल सी युक्ति मैंने बताई। आशा करता हूं यह बात ग्रहणशील लगी होगी। अब तक कही गई बातों से एक बात जरूर पकड़ में आई होगी कि अगर उस यूनिवर्सल क्रिएटर तक पहुंचना हो तो हमें हर प्रकार से लगातार क्रिएटिव्ह मोड में बने रहना होगा। क्रिएशन की प्रोसेस में होना होगा। जब हम दोनों एक ही प्रोसेस में होंगे तो आगे मिलन की बात के लिए सिर्फ सही समय का घटना भर बच रह जाएगा। देखना एक न एक क्षण ऐसा फिर कभी आ ही जाएगा जब संयुक्तता घटेगी, मिलाप होगा। संगम होगा,होगा…जरूर होगा!
आप सोच रहे होंगे कि इस आलेख में आलेख के शीर्षक की बात कब होगी। चलिए इस बात पर अब आ ही जाते हैं। हम विचारों के प्रकारों की बात कर ही चुके हैं। अब सीधे निरपेक्ष विचार की बात पर आते हैं। इस थर्ड चैनल पर आते ही ऋण और धन के द्वैत से आप मुक्त हो जाते हैं और सीधे निरावेशित या कूल थॉट्स की सीमा में प्रवेश करते हैं। यही परिक्षेत्र ईश्वरीय अनुभूति का है। फिर सब तरह की प्रतीक्षाओं का अंत हो जाता है। और इस एक अंत की शुरूआत और शुरूआत के एक अंत की स्थिति स्पष्ट हो जाने पर आप आनंदित होकर यूं गुनगुनाते हैं कि…आएगा आने वाला,आएगा…आएगा…।
जिसको आना ही होता है एक दिन वह आता ही है और यह देखी-परखी बात है।
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