- टॉक थ्रू टीम
- फोटो: शशि तिवारी
क्या ऐसा होता है कि जिस शहर, जिस गली, जिस ठौर आप कभी गए ही नहीं, वह आपको अपना सा लगता है?
इस सवाल का उत्तर तपाक है आता है, हां, होता है न।
और जब पूछो तो कई शहर, कई ठिकाने, कई बाजार, कई गलियां, कई रास्ते, कई नदियां, कई पुल, कई पहाड़ जेहन में कौंध जाते हैं। वे स्थान जिनके बारे में बचपन से सुना, जाना, जहां रहे, जहां घूमे बेमतलब, जहां गए कामकाज के बहाने। गांव, कस्बों, शहरों का अपना है इतिहास होता है, ठीक वैसी होता है हमारी स्मृतियों का इतिहास भी। और यादें जब तब, मौका-बेमौका अपने इतिहास की पोटलियां खोल कर बैठ जाती हैं।
ऐसा ही एक शहर है बनारस, काशी, वाराणसी। जितने नाम, उतने उससे नाते। ऐसा शहर जहां गए बिना भी कई लोगा वहां की यात्रा कर आते हैं। लाखों लोग यहां आते हैं और लौटते हैं तो अपना एक अंश यहीं छोड़ जाते हैं। साथ ले जाते हैं मन भर बनारस।
बनारस को लेकर बीते दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हुई थी। लेखक के बारे में तो उल्लेख नहीं मिलता लेकिन कहते हैं बनारस के रंग कुछ ऐसे ही हैं जैसे इसमें लिखे गए हैं:
एक बनारस मृत्यु है और एक बनारस जीवन;
एक बनारस जेठ दुपहरी, एक बनारस सावन।
एक बनारस गरम जलेबी, एक बनारस लस्सी;
एक बनारस चौक पे बसता, एक बनारस अस्सी।
एक बनारस मेला ठेला, एक बनारस मॉल;
एक बनारस गमछा ओढ़े, एक सिल्क की शॉल।
एक बनारस शहनाई है, एक बनारस कजरी;
एक बनारस ना धिन धिन्ना, एक है चैती-ठुमरी।
एक बनारस जाम में फँसा, एक भाँग पी टल्ली;
एक बनारस सड़क पे घूमे, एक बनारस गल्ली।
एक बनारस घाट पे उतरा और चढ़ गया नैया;
एक बनारस सांड़ से बचा तो पीछे पड़ गयी गैया।
एक बनारस सेल्फी लेता, एक बनारस मस्त;
एक बनारस हंसता- गाता, एक बनारस पस्त।
एक बनारस पिज़्ज़ा-नूडल, एक बनारस पान;
एक बनारस चार कचौड़ी और ठंडाई छान।
एक बनारस महादेव का, एक बनारस गंगा;
एक बनारस ऐसा ऐंठा, बच के लेना पंगा।
एक बनारस बाकी सबका, दिखता है जो बाहर
अपना तो है वही बनारस बसा जो अपने अंदर।
बनारस की सुबह भी उतनी ही मशहूर है जितना जलेबा और लौंगलता। बनारस को जानने के कई सिरे हैं। कई छोर। कई व्यक्तित्व। आस्था के कई पड़ाव। अनगित किंवदंतियां हैं और रहस्यों की अकूत गाथाएं।
झुका हुआ मंदिर
ऐसा ही एक स्थान है रत्नेश्वर मंदिर। यूं तो बनारस में कई मंदिर हैं, लेकिन कहा जा सकता है कि रत्नेश्वर मंदिर जैसा कोई और मंदिर नहीं है। यह मंदिर तिरछा खड़ा हुआ है। जैसे पीसा की झुकी मीनार। खासबात यह है कि यह मंदिर पीसा से भी ज्यादा झुका हुआ है। तथ्य बताते हैं कि पीसा टॉवर लगभग 4 डिग्री तक झुका हुआ है, लेकिन वाराणसी में मणिकर्णिका घाट के पास स्थित रत्नेश्वर मंदिर लगभग 9 डिग्री तक झुका हुआ है।
रत्नेश्वर मंदिर महादेव यानी शिव को समर्पित है। रत्नेश्वर मंदिर मणिकर्णिका घाट और सिंधिया घाट के बीच में स्थित है। यह साल के ज्यादातर समय नदी के पानी में डूबा रहता है। कई बार पानी का स्तर मंदिर के शिखर तक भी बढ़ जाता है। इसे मातृ-रिन महादेव, वाराणसी का झुका मंदिर या काशी करवत के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण 19वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। मंदिर को 1860 के दशक से अलग-अलग तस्वीरों में चित्रित गया है।
काशी का ख्यात मणिकर्णिका घाट
भगवान शिव की नगरी काशी में लगभग 88 घाट हैं। स्नान, धार्मिक रीतियों, अंतिम संस्कार आदि सहित विभिन्न कार्यों की दृष्टि से प्रत्येक घाट का अपना महत्व है। इनमें भी मणिकर्णिका घाट का अपना महत्व है। सिंधिया घाट और दशाश्वमेध घाट दोनों के बीच में स्थित है। इस मणिकर्णिका घाट का उल्लेख 5 वीं शताब्दी के एक गुप्त अभिलेख में भी किया गया है और हिंदू धर्म में बेहद सम्मानित यह घाट महाश्मशान भी कहा जाता है। मान्यता है कि यहां अंतिम संस्कार करने से मृतक मोक्ष पा जाता है
वाराणसी को मरने की जगह के रूप में जाना जाता है, लेकिन वास्तव में यह जीवन से भरपूर है। यह शायद आध्यात्मिक रूप से या अन्यथा अधिक जीवंत है क्योंकि यहां मृत्यु की उपस्थिति है।
प्रख्यात ब्रिटिश ट्रेवल फोटोग्राफर क्रिस्टोफर विल्टन-स्टीयर ने अपनी पुस्तक में लिखा है वाराणसी में पवित्र गंगा नदी के किनारे सीढ़ियों की एक लंबी श्रृंखला के माध्यम से पानी तक पहुंचा जा सकता है जिसे ‘घाट’ के रूप में जाना जाता है। इन घाटों से हो कर वाराणसी के एक छोर से दूसरे छोर तक पैदल जा सकते हैं। इनका निर्माण विभिन्न शासक राजवंशों द्वारा किया गया था ताकि लोग आसानी से नदी तक पहुंचकर स्नान कर सकें और पूजा-अर्चना कर सकें।
बनारस के मणिकर्णिका घाट के महत्व पर वे लिखते हैं, हर साल, हजारों हिंदू मरने के लिए वाराणसी आते हैं और यहां मरकर, अंतहीन पुनर्जन्म चक्र को समाप्त करके निर्वाण प्राप्त करने की आशा करते हैं। वाराणसी को मरने की जगह के रूप में जाना जाता है, लेकिन वास्तव में यह जीवन से भरपूर है। यह शायद आध्यात्मिक रूप से या अन्यथा अधिक जीवंत है क्योंकि यहां मृत्यु की उपस्थिति है।
क्रिस्टोफर की तरह ही हर लेखक, कलाकार, सृजनधर्मी का अपना बनारस है, अपनी काशी के अपने रस हैं। ‘मोक्ष और पुनर्जन्म’ शीर्षक से कविता में ऋचा वर्मा यूं अपनी भावनाएं व्यक्त करती हैं:
मैं जिस बनारस को जानती हूं,
वह आधुनिक सुविधाओं से लैस,
चकाचौंध भरा कभी नहीं रहा।
जो हेतु मुझे वहां बार-बार खींचती है,
वह है जिंदगी की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं,
कुछ रिश्ते, थोड़ा अध्यात्म, कभी स्वास्थ्य
और कभी-कभार किसी की अंतिम विदाई।
इसी क्रम में एक बार खिंची चली गई,
मोक्ष के परम बिंदु,
मणिकर्णिका घाट,
अपनी सासू मां के अंतिम दर्शनों के निमित्त।
जीवन के अंतिम सत्य से साक्षात्कार कराती,
मणिकर्णिका घाट की अंतहीन संकरी गलियां,
किनारे-किनारे दूकानों पर राबड़ी का स्वाद लेते,
बहुसंख्यक में विदेशी पर्यटक,
चाहे कितनी भी कड़कड़ाती ठंड क्यों न हो,
गली के मुहाने पर पहुंचते ही,
आप एक विचित्र उष्मा की अनुभूति प्राप्त करतें हैं,
यहां अग्नि बिकती है,
इन दहकते लाल अंगारों में,
इतनी शक्ति है कि,
क्षण भर के लिए,
आपके अंतस की सारी उष्मा,
इसमें समाहित होकर स्वाहा हो जाती है,
कहतें हैं कि इसी अग्नि को बेचकर,
डोम राजा ने अपनी अट्टालिकाएं खड़ी की।
घाट के ठीक पहले,
मंदिर में सांध्य आरती के साथ
बजते ढ़ोल नगाड़ों की तीव्र ध्वनियां,
जिसमें समाहित होकर स्वाहा हो जातें हैं,
मनुष्य की वेदनाओं से प्रस्फुटित,
आंतरिक रूदन और चीत्कार।
फिर अग्नि में समर्पित कर अपनो को,
उनके मोक्ष को सुनिश्चित कर,
पावन गंगा में डुबकी लगाना।
बनारस यहां खत्म नहीं होता,
अध्यात्म और शांति की खोज में
घुमती हूँ मंदिर – मंदिर,
जैसे बनारस जाने वाला हर व्यक्ति घुमता है,
इसी छोटी सी यात्रा में एक पड़ाव आता है,
वहां के दुर्गा मंदिर का,
यहां एक विचित्र अनुभूति होती है,
लगता है इस मंदिर में मैं वर्षों से रहती आईं हूं,
वहीं किसी कोने में चावल चुनती हुई,
वहां से थोड़ी दूर पर स्थित,
संकटमोचन के मंदिर तक
यह अपनेपन की भावना पीछा नहीं छोड़ती।
सोचतीं हूं क्यों होता है ऐसा,
जब भी आती हूं, तब होता है,
किसी ने कहा भ्रम है यह सब,
“काशी विश्वनाथ भी तो गई थी,
वहां क्यों नहीं हुआ यह भ्रम”
सोचतीं हूं, मन ही मन,
गुढ़ रहस्य की बातें हैं ये सब,
अथवा कदाचित मोक्ष और पुनर्जन्म की बातें
मात्र कपोल कल्पना नहीं ही हों।
बनारस श्रद्धालुओं की काशी है, सृजनकारों की वाराणसी। यहां आकर मन शिव आराधना में डूबता है, जीवन सत्य को समझता है। बनारस की एक पहचान शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब भी हैं। शहनाई के बादशाह भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने बनारस को जीया है। गंगा जमुनी तहजीब को बनारस का रंग बनाया है। ‘बिस्मिल्लाह खां एंड बनारस: द साइट ऑफ बनारस’ पुस्तक में संगीतकार, गायिका और लेखिका पद्मश्री प्रो. रीता गांगुली ने लिखा है:
जब अमेरिका उस्ताद की शहनाई का मुरीद हो गया तब वहां के एंबेसडर ने उस्ताद को अमेरिका में रहने की पेशकश की। अमेरिका में ही हर वो चीज देने को कहा, जो बिस्मिल्लाह खां चाहते थे। तब उस्ताद ने कहा था कि क्या आप बनारस के मंदिरों के घंटों की आवाज और अविरल प्रवाहित होती गंगा की धारा को ला सकते हैं। तब एंबेसडर ने कहा कि दिस इज नॉट पॉसिबल…। और इस तरह बिस्मिल्लाह खां ने अमेरिका के आगे काशी को चुना।
उस्ताद की नजर में बनारस का रंग क्या हैं, आइए, हम भी देखें: