जिनमें आत्मा नहीं वे चेहरा ही बने रहते हैं

राघवेंद्र तेलंग

सुपरिचित कवि,लेखक,विज्ञानवेत्ता

यह सृष्टि असीम इसलिए है कि इसमें एन्ट्रॉपी यानी बिखराव या फैलाव का गुण है। फैलाव यूनिवर्स का इनहेरेंट गुण है। फैलना यानी स्पेस बनाते हुए आगे बढ़ना। स्पेस का बनते चलना यानी नई चीजों के लिए जगह का सुनिश्चित होते जाना। नई चीज के मायनों, अर्थों के बारे में ज़रा रूककर सोचिए! जी! नया, नव यानी जीवन, हर तरह का जीवन। जीवन यानी सृष्टि। हर पल नई होती हुई सृष्टि। जानदार,  शानदार, जबरदस्त सृष्टि। जानदार यानी जिसमें जीवन हो। अब अगर कोई एक विस्तारित होनी चीज या शै है तो उसका नाम जीव, जीवन है। यूनि-सेलुलर से नित डिवीजन होते-होते मल्टी-सेलुलर होते चले जाने वाला जीवन। याद कीजिए पहले कहा हुआ शब्द एन्ट्रॉपी! जब जीवन से संबंध जुड़ेगा तब इस फैलाव को हम विकास कहेंगे।

इस प्रकार अगर समस्त धड़कते हुए जीव-जगत को एक कर एक ह्रदय जैसा यूनिट मानें तो यह जीवन प्रणाली अस्तित्व की ही तो धड़कन हुई। इस प्रकार अस्तित्व और जीवन एक शरीर प्रणाली के रूप में आपस में निबद्ध हैं। इस वृहदाकार अस्तित्व को कांशस होकर चला रही प्रणाली जो है वह प्राण है। प्राण जो यूनिवर्सल या ओम्नी-डायमेंशनल है और सब जगह व्याप्त है, जिसे ईथर भी कहा गया है। जीवन यूनिवर्स के अस्तित्व में पृथ्वी द्वारा उपजाई सुगंध का नाम है। इस सुगंध में समाई प्राणिक ऊर्जा जो सर्वव्यापी है उसका नाम आत्मा है, जो जब जीव द्वारा स्वयं जान ली जाती है तब वह भी उस सुगंध में रूपांतरित होकर उसी के अनुसार स्वयं को भी सर्वव्यापक होने की अनुभूति में पाता है। जरा सोचकर देखिए एक यात्रारत सुगंध के बारे में जो इस अनंत ब्रह्मांड के सुदूर छोर पर आगे ही आगे बढ़ी चली जा रही है और जिसके इस गुण को इस आलेख में एन्ट्रॉपी जैसे एक अजीबोगरीब शब्द के माध्यम से कहने की कोशिश की गई है। भाषा में समाहित शब्दों के अर्थों को भेदने से ही भाव की सुगंध बाहर फूट पड़ती है। आप समझ ही गए होंगे आज हम प्राण ऊर्जा, आत्मा और चैतन्य जैसे विषय के पहलुओं को छूएंगे।

आत्मा धार्मिक शब्दावली का कॉपीराइट शब्द नहीं है। इस पहले वाक्य को दोबारा पढ़िए! आत्मा! यह मानविकी के अस्तित्व के बुनियाद की बात है, बुनियादी बात है। एक मजे की बात बताता हूं। मेरे बहुतेरे दोस्तों के विश्वास की डिक्शनरी में आत्मा नाम का शब्द कभी नहीं रहा। इसके उलट अब तक मेरा सारा कामकाज आत्मिक जुनून से ही चलता आया है। आत्मा के कॉन्सेप्ट से एन्टैन्गल्ड होने से ही मैं भगवद्गीता को कुछ हद तक समझ पाया और प्रेरणास्वरूप कविता संग्रह ‘रागेश्वरी’ अस्तित्व में आया। आज यहां मैं उन अनात्म मित्रों की मेरे प्रति अब तक बनी चली आ रही समावेशी भावना के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं जिनके साथ से मैं लगातार समृद्ध हुआ। संभव है कि वे अधिकांश आत्मीय मित्रगण ऐसे अनात्मिक यह समझकर बने रहे हों कि वे मॉडर्न साइंस के घराने के हैं और इसमें आत्मा के पारंपरिक विश्वास का भला क्या काम। साथ ही यह भी लगा कि वे सब एक नास्तिक वैचारिकी के लोगों द्वारा हांके जाते दिखे, तब भी और अब भी। उन्हें बराबर यह लगता रहा है कि साइंस और आधुनिकता एक ओर हैं और उनकी विपरीत दिशा में परंपरा और संस्कृति का मार्ग है।

कहना न होगा कि सालों से चली आ रही यह मेरी नहीं उनकी समस्या है कि वे मेरे माध्यम से आत्मा के असर को जान-समझ नहीं पाए, जबकि मैंने उनके माध्यम से उनके जड़ पूर्वाग्रहों के हर्फ़-हर्फ़ को पढ़-समझकर अपनी आत्मा के प्रेरणापुंज को अब तक सुरक्षित बचाए रखा है और उसकी धड़कन को भी संजोए रखा है। बशीर बद्र साहब ने कहा ही है-

किसी को जानना है तो उसकी तह तक पहुंचो
ये साहिल है यहां मछलियां टहला करतीं हैं।

जिनके बारे में मैंने जि‍क्र किया वे बेआत्मा लोग चेहरे के लोग हैं, इच्छाधारी चेहरों के एक्सपर्ट, टोटली पॉलिटिकल। मैंने पाया कि जिनमें आत्मा नहीं वे चेहरा ही बने रहते हैं, हमेशा से हमेशा के लिए। मरते दम तक। दुनिया के सारे फ्रंटलाईन लीडर्स तार्किक विचारों के मास्टर हैं इसी के जरिए वे राज कर रहे हैं। दूसरी ओर वे आध्यात्मिक लोग ही हैं जिनके पास साइलेंस, साइलेंट ऑब्जर्वेशन के जरिए वैचारिक गुलामी से मुक्ति के सूत्र हैं।

आत्मबोध के यशस्वी कवि मुक्तिबोध की झिंझोड़ देने वाली एक कालजयी फैंटेसी परक प्रदीर्घ लंबी कविता ‘अंधेरे में’ का एक प्रासंगिक अंश आइए यहां देखते हैं। जरा दिल पर हाथ रखकर पढ़िए:

ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,
भूतों की शादी में कनात-से तन गए,
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़ गए,
बन गए पत्थर,
बहुत-बहुत ज्‍यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!

लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी मां को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य–त्याग दिए,
हृदय के मंतव्य–मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गए!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्‍यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम…!

तो मामला ऐसा ही है, ये पंक्तियां आत्मा से पढ़ी जाने वाली हैं, अनात्म लोगों को जगाने वाली। अंत समय में आत्मा की सुनाई देती पुकार के जैसे शब्द हैं मुक्तिबोध की इन पंक्तियों में। मेरा शुरू से ही मानना है कि कविता, गीत-संगीत, नृत्य या कोई भी कलाकर्म हो, आत्मा से, प्रेम से गहरे जुड़ा कार्य है। बिना आत्मज्ञान की दावानल-सी प्रक्रिया में खुद को झोंके बिना वह द्युति, वह स्पार्क पैदा ही नहीं होता जो किताबी सूचनात्मक ज्ञान और व्यर्थ के सांसारिक आनुभविक ज्ञान को जलाकर राख कर दे। फिर उसकी जगह आकर जो लेता है वह होता है विशुद्ध ज्ञान, दिव्य ज्ञान। जिस भी मार्ग पर रहकर, जिस भी किसी क्रिया के वक्त, जिस किसी भी विकट असहनीय अचानक क्षण में, ऐसे किसी भी मौके पर जब आपमें दुर्धर्ष द्वंद्व के बाद अपने आत्म की स्मृति जाग उठे और ऐसा लगे कि मेरा होना ज़रूरी है, मेरा, मेरी दुनिया का बचना ज़रूरी है, बस ठीक उस वक्त समझ लीजिए कि यह आत्मज्ञान का क्षण है। एक चिंगारी के उत्पन्न होने के समय हुई जीते जी मृत्यु की अनुभूति की घटना के बाद बुद्धि और मन के ज्ञान का लोप हो जाता है और आत्मा जागती है, आत्म का ज्ञानप्रकाश विवेक-बोध जगाता है। इस क्षण के बाद रूपांतरण की क्रियाविधि आरंभ हो जाती है।

दुनिया इस तरह बदल जाती है। फिर शनै: शनै: आप इस प्रक्रिया में समाहित होकर रूपांतरण के प्रवाह का हिस्सा हो जाते हैं। बहते-बहते कब आपके व्यक्तित्व का संपूर्ण कायाकल्प हो गया आपको खुद पता नहीं चलता। आपको आपका ही पता नहीं चलता। आप अस्तित्व के साथ एक हो जाते हैं, दूसरा कोई या कुछ नहीं बचता। किसी ने कहा ही है- तुम मेरे पास होते हो, गोया कोई दूसरा नहीं होता। इस तरह जब आप बदल चुके होकर अस्तित्व में घुलनशील हो जाते हैं और संपूर्ण हो जाते हैं, तब इसका पता प्रवाह में डूबे हुए होने से आपको स्वयं को नहीं लग पाता। तब ऐसे में सिर्फ आपके इंटेलेक्ट के समकक्षीय लोग आखिरकार आकर आपको तंद्रा से जगाते हैं। हां! वही लोग जिनके लिए विश्वास, संकल्प, त्याग, साधना, तपस्या, पूजा, अर्चना, आराधना जैसे शब्द मांओं की शब्दावली से आए हुए हैं, बरास्ते धर्म नहीं। इस तरह हम पाते हैं कि शब्द और भाषा को भेदने पर अर्थों की नई परतें उद्घाटित होती हैं।

आप पर विश्वास करने वाले ये ही स्नेह संबंधी, शुभचिंतक ही अधिकारपूर्वक अंतिम दृश्य के समय आपको झिंझोड़कर बताते हैं कि प्रकृति ने अपना काम कर दिया, चलो! अब चरैवेति-चरैवेति का समय है। ऐसे में आपके हिस्से, वह जो है, उसकी इस परफेक्ट टाइमिंग पर चौंकने भर का भाव आता है और ठीक इसी समय आपके अंदर एक ख़्याल उभरता है कि जो वह है, वही समय है। ऐसे संवाद की पूर्णता का संकेत समझने वाले की तैरती मुस्कान में मिलता है।

यह कहने वाली बात नहीं कि जिस दौर में नायक अग्नि परीक्षा से गुज़रकर अंतत: नायक बन रहा होता है तब ठीक उसी कालखंड में नायक के इर्द-गिर्द के लोगों का भी कड़ा परीक्षण चल रहा होता है। फाइनल दृश्य के समय ये सब नायक को चारों ओर से घेरे उसकी निगाहे-करम के इंतज़ार में होते दीखते हैं। ऐसे समय में यह नायक के करूणा भाव की अंतिम परीक्षा होती है। बहरहाल, यह दोहराता हूं कि साइंस, आधुनिकता, परंपरा और संस्कृति ये मनुष्यता का निर्माण करने वाली चार फंडामेंटल फोर्सेस हैं, शक्तियां हैं और इन्हें थ्योरी ऑफ एवरीथिंग की ही तरह यानी एक सूत्र में बांधे रखने का कार्य मनुष्य की आत्मिक शक्ति ही कर सकती है।

हर वो चीज जो आपको रिझाती है, मोह पैदा करती है उस भाव का जनरेटर यह मन ही है। रिझाना यानी जो अपनी मस्ती में डूबा हुआ है, आनंद में है उसे खंडित करना। रिझाकर या फिर किसी भी तरह संदेह पैदा कर। संदेह अर्थात सवाल पैदा करके या द्वंद्व पैदा करके,  ताकि आप रूककर द्वंद्व की शृंखला को सॉल्व करने में उलझ जाएं। भ्रम पैदा करने वाले मुखौटे यह सोचकर रणनीति बनाते हैं कि हर चेहरा जो अति प्रश्नाकुल है सभी प्रश्न सुलझ जाने पर एक दिन मेरा हो जाएगा। जबकि ऐसा सोचते ही और साथ ही घटित होते ही मुखौटों की यात्रा स्थगित होकर समाप्त हो जाती है। मुखौटे और चेहरे किसी के नहीं होते, जिनमें आत्मा होती है बाहर झलकती है। उसे चेहरा नहीं दर्पण कहना बेहतर है। मन की माया एक सांकेतिक शब्द है। मन के सारे खेलों का एक ही हेतु है कैजुएल, तात्कालिक में उलझाए रखना। यानी परम आनंद की सतत अनुभूति को विभाजित करना। सत्य की ओर अग्रसर हर गतिमान को रोकना।

मन से परास्त हर कोई फिर वह कितना ही बौद्धिक क्यों न हो एक स्वतंत्र चेतना के सिस्टम में बंधन ही क्रिएट करेगा। अत: यह मन किसी को भी आगे उस तरफ कभी बढ़ने नहीं देगा जहां सत्य की दिशा है। जो विचार का जनरेटर है वह मन है। यह मन ही लगातार विचार रेडिएट करता रहता है। विचार जो सदा, आगे और पैदा हो सके, के तर्क से संचालित होता है, स्वार्थ के प्रश्नों से आबद्ध होता है। इसमें ब्रेक के प्रति जबरदस्त अवरोध होता है, साइलेंस के प्रति हेय दृष्टि। आपके भीतर ही बना-बैठा एक स्पीड ब्रेकर है एवरेस्ट जितना ऊंचा, जो आपको कहीं भी न पहुंचने देने के लिए सदा से कटिबद्ध है, और वह है मन। याद करिए इस कहावत को और गुनिए-बूझिए कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत।

ये जो सारी दौड़-भाग है न! किसी भी तरह जल्द घर पहुंचने की है। और ऐसा सबके साथ है, हम सभी के साथ। बस हांफते-हांफते दौड़ते हुए हम बहुत बार या तो फिसल जाते हैं, या लड़खड़ाकर गिर जाते हैं, या अनैतिक कर्मों की गोद में जा टिकते हैं। अंत में हम पाते हैं कि हमने जैसी जिंदगी चाही थी वैसी तो मिली ही नहीं और यह भी भास होता है कि अब तक का जीवन व्यर्थ गया।

raghvendratelang6938@gmail.com

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