फादर्स डे: बाप रे बाप!

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

पिता को दोस्त होना चाहिए, शास्त्रों में लिखी यह बात लोग दोहराते नहीं थकते। ‘प्राप्ते षोडशेवर्ष पुत्रापि मित्रवत समाचरेत’, इस श्लोक में कहा गया है कि सोलह वर्ष का होते ही पुत्र को पिता के मित्र के रूप में देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि इसमें बेटी का जिक्र नहीं। यह श्लोक दुर्भाग्य से उसी श्लोक की तरह हो गया है जिसमे कहा गया है कि जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वह स्थान स्वर्ग के सामान होता है। जिसे लेकर कोई बहुत बड़ा आदर्श बना लिया जाए, समझ लीजिए सका तो बंटाढार ही होना है।

सच्‍चाई तो यह है कि पिता बच्चों के लिए आमतौर पर भय और अनुपस्थिति का प्रतीक होता है। जो बाहर रहता है, वह पिता है! जो डराता है, वह बाप है! आम तौर पर वह घर में नहीं पाया जाता और उसके आते ही घर में सन्नाटा छा जाता है। माएं इशारे से बच्चों को चुप कराती हैं और अपने पति की सेवा में लग जाती है। यह आम तौर पर माध्यम वर्ग के भारतीय परिवारों की कहानी है। शुरू से शहरों में रहने वाले, काम काज करने वाले दम्पति और उनके परिवारों में सतही तौर पर दृश्य अलग होता होगा, पर बुनियादी तौर पर पिता एक श्रेष्ठतर जीव के रूप में, एक सत्ता के रूप में ही देखा जाता है। आदर्श और यथार्थ के बीच की खाई बहुत बड़ी और बहुत गहरी है। खास कर हमारे देश में। यदि माता पिता और बच्चों के बीच गहरे स्नेह और सम्मान पर आधारित संबंध होते, तो हमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक समस्याएं भी बहुत हद तक कम हो गयी होतीं। हिंसा, अवसाद, मानसिक रुग्णता जैसी कई व्याधियों की जड़ें बहुत छोटी उम्र में होने वाले अनुभवों में ही होती हैं, और ये अनुभव अक्सर बच्चों और माता-पिता के बीच की संवादहीनता से होते हैं। समझदार होते हैं वे पिता जो अपने बच्चों को समझ लें। या समझने की कोशिश तो करें ही। मेरी अपनी ही कविता है:

वृक्ष पिता हैं 
समुद्र और पर्वत भी 
सबका ख़्याल रखते 
पर सबको जीने भी देते
अपनी मन मर्जी से 
कट कर
टूट कर 
जहर पीकर भी

साल 2000 के बाद जन्मे कई बच्चों से बात करें तो आपको यह बड़ा दिलचस्प लगेगा कि कई किशोर-किशोरियां अब विवाह करना नहीं चाहते, माता-पिता बनना नहीं चाहते। ऐसी सोच उनके भीतर शायद दो कारणों से उपजी होगी। पहली तो यह कि उनके परिवार में उन्हें सुखद अनुभव नहीं हुए होंगें और दूसरा यह कि उन्हें अपने माता पिता को देख कर कहीं न कहीं परवरिश की जिम्मेदारियां बड़ी भारी लगती होंगीं। काम-काज में फंसे अपने मां बाप को देखते हुए, स्कूल एडमिशन के समय होने वाली जद्दोजहद, पढ़ाई का बोझ, स्कूलों में भीड़ और शोरशराबा देख कर क्या उन्हें बहुत बचपन में ही जीवन से सुखद अनुभव होने बंद हो जाते हैं और इस वजह से उन्हें लगता है कि इन सभी झमेलों की जड़ में विवाह और संतानों का जन्म लेना ही है।

समझदार पिता अपने बच्चों को प्रश्न करना जरूर सिखाएगा। यह भूल कर कि बच्चों की जिज्ञासा और प्रश्न उसकी सत्ता को कमजोर भी बना सकते हैं। उसके अंदर गहरी विनम्रता होगी। वह हमेशा इस विश्वास को जगाए रखेगा कि बच्चे जीवन की एक ज्यादा नवीन और ताजी ऊर्जा लेकर आए हैं, उन्हें अपने फफूंद लगे, पुराने विचारों से प्रभावित जितना कम किया जाए उतना ही अच्छा होगा। साथ ही अपने बच्चों को सफलता और समृद्धि का उपासक न बना कर उन्हें यह भी सिखाएगा कि जीवन में यदि असफलता और कुंठा प्रवेश कर जाए, तो उससे सही ढंग से कैसे निपटा जाए। एक अच्छा आधुनिक पिता एक मित्र, मनोवैज्ञानिक सलाहकार, बच्चों के साथ साथ सीखने वाला और जरूरत पड़ने पर उनकी गलतियों को बगैर किसी क्रोध के बताने वाला सह यात्री होगा।

इतिहास पर नजर दौडाएं तो सबसे परिष्कृत और सृजनशील लोगों ने अपनी वास्तविक जीवन यात्रा अपने पिता पर प्रश्न करते हुए, और कई बार उन्हें नकारते हुए और उनके खिलाफ बगावत करते हुए ही की थी। तर्क पर आधारित विरोध या असहमति के लिए भी जगह छोडनी होगी। बुद्ध ने शुद्धोधन की बात मानी होती तो चला रहे होते राज-पाट, और दफ़न हो गए होते इतिहास के डस्टबिन में। एक बार क्राइस्ट लोगों से बात कर रहे थे और किसी ने कहा कि जोसफ आये हैं, तो क्राइस्ट का जवाब था: “मेरा पिता (ईश्वर) सिर्फ स्वर्ग में है, और कोई पिता मेरा नहीं।” जिद्दू कृष्णमूर्ति को जब एनी बेसेंट अपने साथ यूरोप ले गईं उसके बाद उन्होंने अपने पिता के पास जाने से इनकार कर दिया था। आदि शंकराचार्य निर्वाण शटकम में लिखते हैं कि जब किसी ने उनसे पूछा कि वह हैं कौन तो उन्होंने कई बातों के अलावा एक बात यह भी कही कि मेरे कोई पिता या माता नहीं।

यह सिर्फ कोरी, निरुद्येश्य विद्रोह के मामले नहीं, ये सभी बड़े ही तार्किक और सृजनशील असहमति के उदाहरण हैं क्योंकि यदि इन लोगों ने अपने पिता की जीवन शैली को ही दोहराया होता तो ये सफल और औसत दर्जे के लोग बन कर रह गए होते, अलग से कोई महत्वपूर्ण योगदान इनका नहीं हो पाता मानवता के लिए। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे आपको बागी, लायक बच्चों के जिन्होंने कुछ कायदे की बातें की, कोई समझदारी वाला रास्ता बताया। जो पिता चाहता है कि उसका बेटा या बेटी उसी की तरह बने वह मानव विकास की गति को धीमा कर देता है। बदलाव की शुरुआत पिता से विरोध के साथ ही होती है। अक्सर पिता एक विभाजन ग्रस्त, प्रतिस्पर्धा और वैमनस्य पर आधारित, पितृसत्तात्मक समाज का प्रतिनिधित्व करता है। अधिकतर पिता तो आत्ममुग्ध अवस्था में रहते है और अपने बच्चों को भी खुद की तरह बना देना चाहते है। अपनी संतान उन्हें सबसे आसानी से उपलब्ध होती है और उसी पर सारा रोब दाब जमाते हैं।

आपको नहीं लगता कि बच्चे कम आज्ञाकारी होते तो दहेज जैसी बुराइयां काफी कम हो जातीं? प्रेम विवाह ज्‍यादा होने लगते। बच्चे उन विषयों को बगैर अपराध बोध के पढ़ते जिनमे उनका दिल लगता और भी बहुत कुछ होता।

इसलिए, हे संसार के पिताओं! आपने इस महान संसार में बच्चों को लाकर तो एक बहुत बड़ा उपकार कर ही दिया है, अब कम से कम यह करें कि अपने असर से उन्हें जितना दूर रख सकें तो अच्छा होगा और उन्हें अपने आप ही खिलने दें, अपने संस्कारों का अनावश्यक बोझ उनपर न डालें। उन्हें खुली हवा में, आसमान में खिले सूरज के नीचे थोडा बारिश में भींगने दें। संबंधों में थोडा स्पेस रहने दें, इतना हावी न हो जाएं कि सभी का दम ही घुटने लगे। प्रेम भी बहुत बड़ी कैद और बोझ बन सकता है, इस बात के प्रति सजग रहें। एक पिता होने के नाते मुझे यह सब कहने का हक है। यदि मैं एक पुत्र के नाते यह कहता तो मुझपर अनावश्यक बगावत भड़काने के आरोप लगते।

खलील जिब्रान की कविता ‘बच्चे’ का एक अंश दोहराने का दिल कर रहा है। इसका अनुवाद कवि मित्र मणि मोहन ने किया है:

तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं
वे तो जीवन की अपनी ही बेकरारी के बेटे और बेटियाँ हैं।
वे तुम्हारे माध्य्म से आते हैं पर तुमसे नहीं
हालांकि वे तुम्हारे पास हैं
फिर भी तुम्हारे नहीं।
तुम उन्हें अपना प्रेम दे सकते हो
पर अपने विचार नहीं
क्योंकि उनके पास खुद अपने विचार हैं।
तुम अपने घर में
उनकी देह को आश्रय दे सकते हो,
परंतु उनकी आत्मा को नहीं, क्योंकि उनकी आत्माएं
आगत कल के घरों में रहती हैं
जहां तुम नहीं पहुंच सकते
अपने सपनों में भी नहीं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *