रेलयात्रा की व्‍यथा कथा-अंतिम भाग: टिकट कैंसल का संदेश और बेटिकट हो जाने की धुकधुकी

पिछले दिनों मैं मुंबई यात्रा पर था और यहां अपनी इस रेलयात्रा के अनुभवों को साझा कर रहा हूं। यह कैसे हो सकता है कि हम भारतीय रेलवे में सफर करें और अपने मुकद्दर को न कोसे? ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। पहले पैसा दे कर गाड़ी के इंतजार का समय काटने के लिए sleeping-pods की व्यवस्था की। साढ़े बारह घंटे देरी से चल रही गाड़ी में सवार हुआ तो संदेश मिला कि टिकट कैंसल हो गई है। मगर रेलवे के सिस्‍टम पर तो टिकट मेरे नाम थी। बेटिकट होने की घबराहट के बीच ट्रेन चल पड़ी। फिर क्‍या हुआ जानिए…

रेल यात्रा की व्‍यथा को दिखाते हुए प्रस्‍तुत की जा रही शृंखला की यह अंतिम कड़ी है। आपकी ओर से मिली प्रतिक्रियाओं ने हमारा उत्‍साह बढ़ाया है। हम आगे भी इस तरह की शृंखला जारी रखेंगे। आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का स्‍वागत है: हमारा ठिकाना: editor.talkthrough@gmail.com

एक यात्री का अनुभव रेलवे के सिस्‍टम की बेहतर पड़ताल

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

समय लगभग 6.30। स्थानीय यात्रियों की धीमी आवक शुरू हो गई है। उनके चेहरे पर कोई झुंझलाहट नहीं है। जिजीविषा मुंबइयां होने की पहली शर्त है।

प्लेटफार्म नंबर 1 से 8 मुंबई की ‘लोकल’ के लिए आरक्षित है तथा 9 से 18 लंबी दूरी की गाड़ियों के प्रस्थान स्थल हें। मेरा ठिकाना प्लेटफ़ॉर्म नंबर 10-12 के बीच है। ‘लोकल’ और लंबी दूरी वाली गाड़ियो के प्लेटफॉर्म्स के बीच कोई बंदिश/रोक नहीं है। हो भी नहीं सकती, क्योंकि समस्त पुरुषों हेतु शौचालय सिर्फ ‘लोकल’ वाले छोर पर है, तथा समस्त महिलाओं हेतु सिर्फ 14-18 वाले छोर पर।

हजारों सोते-जागते लोगों, महिलाओं ओर बच्चों की इतनी सी जगह पर उपस्थिति कुछ डराती भी है। कानून और व्यवस्था एक अफसर तथा तीन जवानों से शायद न संभले इसलिए जन-मानस ने संभाल ली है।

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बारिश अभी थम चली है। शौचालय इस्तेमाल करने के ख्वाहिश-मंदों की संख्या अब ज्यामितीय दर से बढ़ गई। इंसानों का दरिया, अब महासागर में तब्दील हो चुका है।

यूरीनल इस्तेमाल करने हेतु मैं, सभ्य व्यक्तियों की तरह लाइन में लगा हूं। ऐसी दो समानांतर रेखाओं में लोग अपने ब्लेडर की कूवत का इम्तेहान दे रहे हैं। बच्चे, बूढ़े, जवान, बीमार, लोकल, बाहरी सब एक लाइन में। तेलुगु, तमिल, छतीसगढ़िया, बिहारी, पंजाबी, हिंदी, उर्दू की मिश्रित धार मेरे चारों तरफ से निर्बाध बह रही है।

सब चुपचाप बिना शिकवे, शिकायत के खड़े है। संभवतः रेल विभाग के प्रति उपजी साहनभूति के कारण। लाउड स्पीकर पर घोषणा हो रही है, ‘यार्ड में पानी भरने के कारण, लोकल तथा मेल/एक्सप्रेस गाड़ियों के और विलंब से चलने की संभावना है। यात्रियों को हुई असुविधा के लिए हमें खेद है।’

लाइन में मेरा नंबर तेरहवां है।

अचानक एक लहर उठी। उसे देख कर ही में कह सकता था की ये खुशी की लहर है। विदित हुआ पंजाब मेल का प्लेटफार्म डिस्प्ले होने वाला है। मै भी उस लहर में डूब गया।

बारिश का जोर कम हुआ। अब किस्मत की बारी थी। सूचना पटल पर अचानक पंजाब मेल के सामने प्लेटफार्म नंबर 18 चमक उठा। राहत की सांस लेते हुए मुझे सुबह की चाय की याद आई। भारती की सलाह अनुसार, मैंने एक वडा-पाव, और चाय की गुहार लगाईं। मुझे चाय की जगह कॉफ़ी पेश की गई। प्लेटफार्म नंबर 18 पर पंजाब मेल का आगमन हो रहा था। समय था, 7.35। NTES के app पर, कोच की पोजीशन उपलब्ध हुई। मैं फिर होठों पे मुस्कान और दिल में किशोर दा का गाना लिए HA1, 20 की तरफ लपका। मेरे अलावा एक मां–बेटी (अपने साथ एक लघु धवल श्वान को गुप्त रूप से एक प्लास्टिक टोकरी में छुपाए) तथा एक पिता-पुत्तर भी सवार हुए।

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मां-बेटी को अनुमान हो गया था कि मुझे पता है। द्वितीय वातानुकूलित में पालतु वर्जित हैं। वे फर्स्ट AC के द्वारा अथवा गार्ड/ब्रेक वैन से ले जाए जा सकते हैं, बशर्ते आप उसका पैसा चुकाएं। शायद इसलिए दोनों मुझे देख, बार-बार मुस्करा रही थीं।
अट्ठारह डिग्री सेंटीग्रेट ठंडी चैन की सांस छोड़ते हुए मैंने भारती को फ़ोन लगाया. उसके 4 मिस्ड कॉल्स और एक संदेश फोन पर पड़े थे। संदेश था, ‘तुम्हारी train कैंसल हो गई है। कनफर्म्ड – टिकट app से संदेश आया है।’

फोन की पहली घंटी बजते ही उठाया गया।

“तुम्हारी ट्रेन कैंसल हो गई है, इसलिए कॉल लगा रही थी।”

मैं ट्रेन में बैठ कर ही बोल रहा हूं। रद्द नहीं हुई। – मैंने कहा।

“अरे confirmed ticket app का मैसेज पढो। आपकी टिकट app की तरफ से कैंसिल हो गई है।” कहते हुए उसने चौंकाया।
संदेश साफ था- “Your ticket PNR # xxxxx is cancelled. Refund initiated.

मैंने रेल यात्री पर PNR नंबर जांचा, वही संदेश- ‘Ticket Cancelled’.

मै सन्न था। अभी तक conductor महोदय अथवा TTE की आमद नहीं हुई थी। यदि वे पधार चुके थे, तो इसकी जानकारी किसी चलितकर्मी के पास नहीं थी। इतनी लंबी ट्रेन में कहां बैठे हैं, यह भूसे में सुई ढूढने जैसा था। गाड़ी कभी भी चल सकती थी।

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हताश हो कर मैं टिकट खिड़की की तरफ भागा। वह इमारत प्लेटफॉर्म्स से दूर थी, बरसात जारी थी और मेरा कुछ सामान HA 1 – 20 पर रखा था। मरता क्या ना करता, किओस्क से मैंने एक प्लेटफार्म टिकट खरीदी और लपक के डब्बे में सवार हुआ। पिता–पुत्र ने ढांढस बढ़ाया, ‘चिंता न करो जी। TTE सब दुरुस्त कर देगा। आप तो बताना ही नहीं कि टिकट रद्द हुई है।”
ठीक 7.55 पर गाड़ी चल पड़ी। हम लगभग 12.30 घंटा लेट थे।

अब इस उम्र में बिना टिकट पकड़े जाने का भय सर पर सवार था। गाड़ी अपनी गति पकड़ चुकी थी, सह-यात्री अपने बिस्तर बिछा कर लेट गए थे। मां–बेटी, अपने गुप्त श्वान के साथ, परदे खींच कर मौन थे। मैं एक मृत्यु–दंड मिले, मुजरिम की तरह, जल्लाद का इंतजार कर रहा था।

मुझे अहसास हुआ कि, इंतजार करने से अच्छा है, आत्म-समर्पण करना। काले-कोट धारियों को खोजते हुए, मुझे A–2 में एक TTE के दर्शन हुए। वे स्मार्ट फोन पर किसी वीडियो को निहारने में व्यस्त थे।

मैंने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। वे बोले, आपने ही टिकट कैंसल करा होगा। अब इसका निदान साहब (conductor) ही करेंगे। आते ही होंगे।

कंडक्टर साहब थोड़ी ही देर में प्रकट हुए। मैंने कथा दोहराई। उनका मत भी यही था, “आपके द्वारा ट्रिगर करे बिना, app आपका टिकट कैंसल नहीं कर सकता और प्लेटफार्म टिकट लेने का कोई मतलब नहीं क्यूंकि गाड़ी यहीं से start हुई है। आप बिना-टिकट ही माने जाओगे। टिकट के अलावा आपको penalty भी देनी होगी।

मैं पूर्णतः सहमत हुआ।

कंडक्टर: आपको किस कोच में, कौन सी सीट दी गई थी?

मैं: जी HA 1 – 20।

कंडक्टर: नाम क्या बताया आपने?

मैं: जी, मनीष माथुर।

कंडक्टर: टेबलेट पर चमकते पैसेंजर लिस्ट का अवलोकन कर, “पर मेरे सिस्टम पर तो सीट आपके नाम ही आरक्षित दिख रही है!”

मैं: पर मेरे सिस्टम पर तो कैंसल है!!

कंडक्टर: देखता हूं। गाड़ी खाली है, सीट तो आपको मिल जाएगी।

मैं बिस्तर बिछा के लेट तो गया पर धुकधुकी बनी रही। जब इनका सिस्टम रिफ्रेश होगा, मुझे बे-टिकट घोषित किया जाएगा।
आंखों से नींद उड़ी हुई थी। आसपास के यात्रियों ने खर्राटे लेने शुरू कर दिए थे। एक दादर से चढ़े अधेड़ यात्री के स्मार्ट-फ़ोन की रिंग-टोन, किसी प्रताड़ित पिल्ले के करुण प्रलाप सी थी, जो बार-बार बज रही थी।

कंडक्टर साहेब कोच में आए। मेरा स्टेटस उनके सिस्टम के में अभी भी, confirmed ticket का था।

पंजाब मेल अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी!

3 thoughts on “रेलयात्रा की व्‍यथा कथा-अंतिम भाग: टिकट कैंसल का संदेश और बेटिकट हो जाने की धुकधुकी

  1. लगा ही नहीं कि पीड़ा कोई सुना रहा है, लगा कि घट रही है अपने साथ ही। ट्रेन यात्राओं से पूर्णतः हताश होने के बाद निजी साधन की तरफ़ मुड़ जाना पड़ा। ख़ूब जीवंत संस्मरण।🙏🌿

  2. आप ने पढ़ा. अच्छा लगा. आपको अच्छा लगा , यह जान कर मुझे और भी अच्छा लगा. धन्यवाद् आप ने पढ़ा.

  3. वस्तुतः यह पीड़ा वर्णन नहीं बल्कि यात्रा वर्णन ही है. हम सब के साथ यात्राओं में कुछ ऐसा ही – कम ज्यादा घटता रहता है इसलिए आप – बीती सी होती है.

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