लुंबिनी के आंगन में … एक स्‍वप्‍न का हकीकत हो जाना

अनुजीत इकबाल, लखनऊ

विस्मय की धुंध में लिपटी हुई एक शांतिपूर्ण भोर, जहां समय ने धीरे-धीरे अपने रहस्य के पर्दे खोले और मैं गोरखपुर से नेपाल की ओर यात्रा पर निकल पड़ी, अचानक से, बिना तैयारी के। गोरखपुर की हलचल भरी भीड़ को पार करते हुए, सुनौली की तरफ बढ़ रहे थे कि गूगल मैप ने हमेशा की तरह धोखा दिया और हम रास्ता भटक गए लेकिन एक डेढ़ घंटे बाद हम नेपाल की सीमा पर खड़े थे। अगर सही रास्ते पर चलें तो गोरखपुर से तीन घंटे में आप लुंबिनी पहुंच सकते हैं। इस दक्षिण एशियाई देश नेपाल में प्रवेश करने के लिए वीजा या किसी पासपोर्ट की जरुरत नहीं पड़ती है, बस कुछ कागजों और मुहरों से वहां की सीमा आपके लिए खुल जाती है। वहां प्रवेश इतना सहज था, मानो एक सपना हो जो वास्तविकता में बदल गया हो।

नेपाल के अंदर जाते ही सुंदर, बड़े और बहुत व्यवस्थित हाईवे से सामना हुआ जो सीधे पोखरा और काठमांडू की तरफ जाता है। लेकिन हम कुछ किलोमीटर का सफर करके बाएं हाथ मुड़ गए जो रास्ता लुंबिनी ले जाता है। वहां बाल रूप में बुद्ध की सुंदर मूर्ति और एक गेट है जहां से आप इक्कीस किलोमीटर का सफर करके, लुंबिनी की पावन भूमि पर पग रख सकते हैं। नेपाल का यह हिस्सा, माउंट एवरेस्ट जैसी चोटियों के साहसिक अभियानों से परे, बुद्ध की शांति, करुणा और अहिंसा के सिद्धांतों का प्रतीक है। उस स्थल पर पहुंचना, जहां सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ था, मानो मेरे मन के भीतर छिपी शांति की खोज का मार्ग प्रशस्त कर रहा था। शांति, करुणा और अहिंसा के प्रतीक, सिद्धार्थ गौतम (623 ईसा पूर्व) कोसल राज्य के शाक्य वंश राजा शुद्धोधन और उनकी रानी माया के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे। हालांकि, नियति ने अपना मार्ग तय किया और एक भावी सम्राट ने संसार का त्याग किया और बुद्ध बन गए।

लुंबिनी के मैदान, जहां दूर-दूर तक खेतों की हरियाली फैली हुई थी, किसी स्वप्निल दृश्य से कम नहीं थे। यहां पहाड़ नहीं हैं, परंतु यहां की धरती ने अनंत शांति का दामन थाम रखा था। अंततः मैं लुंबिनी मंदिर द्वार पर पहुंच गई।

अनेक युगों पूर्व, बुद्ध ने अपने करुणामय उपदेशों से अनगिनत आत्माओं को मुक्ति की राह दिखाई और उन्हें मनुष्य के उच्चतम रूप में ढाल दिया। उनके आशीर्वाद से, युद्धरत मौर्य सम्राट अशोक ने रक्तपात की परछाइयों को त्याग, विशेषकर कलिंग की भीषण लड़ाई के बाद, करुणा, प्रेम और शांति के मार्ग को अपना लिया। 249 ईसा पूर्व में, उन्होंने लुंबिनी की पावन धरती पर एक बलुआ पत्थर का स्तंभ खड़ा किया, जो युगों तक उनकी श्रद्धा का प्रतीक बन गया।

यहां प्रवेश करते ही, लहराते हुए ध्वजों की पंक्ति उन आत्माओं का स्वागत करती है जो शांति और धर्म के इस केंद्र की यात्रा करने आते हैं। विभिन्न देशों के मठों से घिरा यह स्थल, दो क्षेत्रों में विभाजित है, जिनके मध्य एक नहर बहती है। यह नहर यात्रियों को नौका विहार का सुखद अनुभव प्रदान करती है।

नहर के पूर्वी क्षेत्र में थेरवाद मठों का निवास है, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में महायान और वज्रयान मठ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं, जहां साधक आत्मा की गहराई में जाकर ध्यान करते हैं। उसी दिशा में, एक विशाल सफेद शांति स्तूप अपनी दिव्यता से आकाश की ओर ऊंचा खड़ा है।

मैं मठों का अन्वेषण करने के लिए नहीं रूकी और मायादेवी मंदिर की तरफ सीधे बढ़ गई। शांति के दीपक के समीप स्थित एक भव्य घंटी, त्रिरत्न शांति घंटी, ने मेरी चेतना को आकर्षित किया। इस घंटी के शिलालेखों में छिपी रहस्यमयी वाणी ने कहा, “यह घंटी उस ज्ञान और करुणा का आह्वान करती है जो सभी दुखों से मुक्त करती है और शांति को प्रवाहित होने देती है…।”

शांति के दीपक की लौ, जो अनंत काल से अपने प्रकाश को फैलाती आई है, हवा की सरसराहट में फड़फड़ाते हुए भी अविचल बनी रहती है। इस लौ को 1 नवंबर, 1986 को अंतर्राष्ट्रीय शांति वर्ष की स्मृति में राजकुमार ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह देव द्वारा प्रज्वलित किया गया था। यह लौ संयुक्त राष्ट्र (न्यूयॉर्क) से लाई गई थी, ताकि विश्व समुदाय में शांति और सद्भावना का संदेश फैले। लुंबिनी की दिव्य धरती को नमन करते हुए, मैंने उस पथ पर कदम बढ़ाए जो माया देवी मंदिर के खंडहरों, शाक्य तालाब, अशोक स्तंभ, बौद्ध विहारों और बौद्ध स्तूपों के शेष अवशेषों की ओर जाता है। समय की गहराई में छिपे ये स्मारक, इतिहास की गूंजती हुई आवाजें हैं, जो अनंत काल तक मानवता को शांति और ज्ञान की धारा में प्रवाहित करती रहेंगी।

परिसर में प्रवेश करने से पूर्व, मैंने 2012 में थाईलैंड द्वारा उपहार स्वरूप दी गई ‘बाल बुद्ध’ की सुनहरी प्रतिमा को नमन किया।
हर ओर फैली इस शांति में, अशोक के द्वारा खड़े किए स्तंभ की कथा जैसे समय की यात्रा करने वाले किसी यात्री की तरह प्रतीत हो रही थी। एक ऐसा स्तंभ, जिसने सदियों तक बुद्ध की करुणा को जीवित रखा।

माया देवी मंदिर की ईंटों से बनी संरचना, एक क्रॉस-वॉल प्रणाली में समाहित, अपने भीतर युगों पुरानी कथाओं को संजोए हुए है। किंवदंती कहती है कि यहीं, इसी पवित्र स्थल पर, रानी माया देवी ने खड़े होकर बुद्ध को जन्म दिया था। इस रहस्यमय मंदिर में प्रवेश करते ही, मैं उस सफेद पत्थर तक आ गई, जो कांच में सुरक्षित रखा हुआ था। यही वह स्थल था, जहां बुद्ध ने इस धरती पर अपने प्रथम कदम रखे थे। पत्थर के ठीक ऊपर, बुद्ध के जन्म को दर्शाती एक मूर्ति श्रद्धालुओं की आत्माओं को उस दिव्य क्षण की याद दिलाती है। भीड़ ज्यादा नहीं थी इसलिए लंबा वक्त मिला वहां खड़े रहने को, चाहे दो बार नेपाली फौज का अधिकारी मुझे बाहर जाने के लिए बोल चुका था।

बाहर आते ही, पवित्र बोधि वृक्ष के दर्शन हुए। सूर्य की रश्मियां और उस वृक्ष के पत्ते आपस में क्रीड़ा कर रहे थे, छाया झिलमिला रही थी, और अगरबत्तियों की लहराती धुएं a,की लकीरें आसमान में घुल रही थीं। कहते हैं बुद्ध के जन्म के बाद मायादेवी को यहीं पर विश्राम करवाया गया था।वहीं पर वह सरोवर भी था, जहां बुद्ध को प्रथम स्नान करवाया गया था।
कुछ दूरी पर बलुआ पत्थर के अशोक स्तंभ नजर आता है, जिस पर ब्राह्मी लिपि में शिलालेख अंकित था। श्रद्धालुओं ने स्तंभ के चरणों में सिक्के और करेंसी नोट अर्पित किए थे, मानो वे इस धरा पर अमिट सत्य की भेंट चढ़ा रहे हों। शिलालेख की प्राचीन लिपि में अंकित शब्द, जैसे पत्थरों पर उकेरी गईं समय की गहरी छापें, आज भी गूंजती हैं,

“जब राजा देवानामप्रिय प्रियदर्शी का राज्याभिषेक हुआ था, उन्होंने स्वयं आकर इस स्थान की पूजा की क्योंकि बुद्ध शाक्यमुनि का जन्म यहीं हुआ था। उन्होंने एक पत्थर बनवाया जिसमें घोड़ा था और एक पत्थर का स्तंभ स्थापित किया, (यह दिखाने के लिए) कि उस परम् पुरूष का जन्म यहां हुआ था। उन्होंने लुंबिनी गांव को कर मुक्त कर दिया, और केवल आठवाँ हिस्सा (उत्पादन का) भुगतान किया।”

अशोक का रुम्मिनदेई शिलालेख, समय की धारा में बहते हुए, यह छोटा स्तंभ शिलालेखों में से एक, आज भी अपनी गवाही दे रहा है। यहां, इस पावन स्थल पर, इतिहास की गूंज और श्रद्धा की मौन प्रार्थनाएं एक हो जाती हैं। मंदिर की प्राचीर, बोधि वृक्ष की छाया, और अशोक स्तंभ की ऊंचाई – ये सभी उस अनंत सत्य के साक्षी हैं जो युगों से मानवता के पथ को आलोकित कर रहे हैं।

कैसे पहुंचें

दिल्ली से गोरखपुर तक की उड़ानें हैं और गोरखपुर से सड़क रास्ता। भारतीयों के लिए नेपाल में प्रवेश करना सरल है, क्योंकि वीजा की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन, एक वैध फोटो आईडी जैसे पासपोर्ट, मतदाता आईडी को साथ ले जाना अनिवार्य है, ताकि यात्रा के दौरान कोई असुविधा न हो।

माया देवी मंदिर, जो बौद्ध धर्म के पावन स्थल का केंद्र है, फोटोग्राफी के लिए बंद रहता है। यह प्रतिबंध मंदिर की शांति और आध्यात्मिक माहौल को बनाए रखने के लिए है, जहां लोग केवल ध्यान और प्रार्थना के माध्यम से दिव्यता का अनुभव कर सकते हैं।

लुंबिनी के इस पवित्र परिसर में, बौद्ध धर्म की मौन और साधना की भावना व्याप्त है। प्राचीन पथों पर धीरे-धीरे कदम रखते हुए और मौन को अपनाते हुए, आप इस स्थल की आध्यात्मिक गहराई को अधिक सहजता से अनुभव कर सकेंगे। बौद्ध धर्म की शिक्षा के अनुसार, मौन और मन की शांति से ही इस दिव्य स्थान की वास्तविकता को समझा जा सकता है। लुंबिनी में हर कदम और हर दृश्य, आप को शांत बनने का अवसर प्रदान करता है, जिससे आप इस पवित्र धरती के शाश्वत धरोहर का वास्तविक आनंद प्राप्त कर सकें।

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