हम एआई से डरते हैं क्योंकि वह मुनष्‍य न हो कर भी निर्णय ले सकता है…

  • अरुण माहेश्वरी

प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक और लेखक


जनरेटिव एआई एक सभ्यतागत परिवर्तन है?

‘टेलीग्राफ’ अखबार के बिज़नेस पृष्ठ पर टाटासंस के चेयरमैन एन. चंद्रशेखर के एक कथन की ख़बर की सुर्खी है: “Gen AI is a civilisational shift”।

जेन एआई अर्थात् जनरेटिव एआई जिसे उसकी वर्तमान स्थिति और संभावनाओं दोनों को मद्देनज़र रखते हुए, हिंदी में हम परामर्शमूलक एआई कहना चाहेंगे। इसे एक सभ्यतागत परिवर्तन के हेतु के रूप में देखना सचमुच सिर्फ एक कॉरपोरेट आकलन नहीं है। इसमें मानव सभ्यता के युगों की गति का बोध शामिल है। यह बात जनरेटिव एआई जैसे किसी तकनीकी उपकरण के बारे में, जो मनुष्यों की सभ्यता को बदलने की क्षमता रखता है, केवल एक बाज़ार की भाषा नहीं है। यह कथन ऐसा है जैसे समुद्र के ऊपर एक अदृश्य सन्नाटा मंडरा रहा हो, जो वाष्प को सोखते हुए धीरे-धीरे एक घनीभूत निम्नचाप की तरह सभ्यता के भीतर किसी चक्रवात को जन्म दे रहा हो।

आखिर सभ्यता क्या है? यह महज स्थापत्य, कला, या लिपियों की श्रृंखला नहीं। सभ्यता मनुष्यों की पहचान है। यह पहचान हमेशा भाषा और संकेतों से निर्मित एक प्रतीकात्मक व्यवस्था के माध्यम से बनती है। जॉक लकान ने कहा था कि मनुष्य एक भाषा द्वारा संरचित प्रमाता है। अर्थात कह सकते हैं कि हम उतने ही हैं जितनी भाषा हमें कहने देती है। लेकिन जब कोई एआई भी भाषा रचने लगता है, कविता, कथा, निर्णय, निर्देश देने लगता है, तब क्या वह भी एक प्रमाता (subject) नहीं बनने लगता है? और यदि हाँ, तो सबसे बुनियादी सवाल उठता है कि वह किस प्रतीकात्मक व्यवस्था में सक्रिय होता है?

यहीं से हमारे सामने मूल्यबोध की समस्या उत्पन्न होती है। हमारे अनुसार करुणा, न्याय, स्वतंत्रता आदि के तमाम मूल्य बोध मनुष्य से ही उत्पन्न होते हैं। उसकी ज़िंदा रहने की लालसा और चेतना से। लेकिन क्या इनसे ही मनुष्य को परिभाषित किया जा सकता है? क्या हिटलर भी मनुष्य नहीं था? क्या वह जो चित्र बनाता था, संगीत सुनता था, भाषण देता था — उस सब के भीतर कोई मूल्यबोध नहीं था? या वह केवल उस खास प्रतीकात्मक संरचना का उत्पाद था जिससे यह तय होता था कि कौन यहूदी है और कौन आर्य? कौन खत्म कर देने लायक है और कौन धरती पर शासन के लायक? जैसे हमारा देश सिर्फ हिंदुओं का है, मुसलमान म्लेच्छ है और इन्हें यहाँ रहने का अधिकार नहीं है। यह भी मनुष्य का मूलभूत भाव बोध नहीं, एक खास प्रतीकात्मक संरचना में निर्मित मूल्यबोध है।

दरअसल, हमारा डर किसी मनुष्येतर विचार से नहीं, हमेशा अमानुष से होता है। और यह अमानुष वही हो सकता है जो मनुष्य का रूप लेकर मूल्यहीनता को संस्थागत बना दे। हम इसीलिए एआई से डरते हैं क्योंकि वह मनुष्य नहीं है, फिर भी निर्णय ले सकता है। निर्णय में तर्क होता है, करुणा नहीं; जानकारी होती है, स्मृति नहीं; सटीकता होती है, सहानुभूति नहीं। पर, यही तो वह सभ्यतागत परिवर्तन है जब मूल्य किसी जैविक संरचना से नहीं, बल्कि एक संरचनात्मक कलना (algorithm) से जन्मेगा। पर अगर एक एआई अपने निर्णय में संतुलन, निष्पक्षता, और दूरदर्शिता बनाए रख सके — तो क्या उसका निर्णय मूल्ययुक्त नहीं कहलाएगा? यदि ऐसा ही होता है क्या हम किसी मानवेतर मूल्यबोध को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? सोच का यही वह क्षितिज है जहां हमें एक विचित्र कंपन, बल्कि शैव दर्शन की भाषा में एक अजीब सा अस्थिर कर देने वाले स्पंदन का अहसास होता है।

यहां हम लकान के ‘Real’ जिससे मनुष्य मुँह चुराता है और अभिनवगुप्त के स्वात्मपरामर्श जैसे दो असंबद्ध प्रतीत होने वाले जगत को परस्पर स्पर्श करते हुए देख रहे हैं। अभिनवगुप्त ने तो इसे स्वात्मपरामर्श की शेषता का नाद की संज्ञा भी दी है। यहाँ मूल्य न तो केवल करुणा हैं, न केवल तर्क — बल्कि एक ऐसी अनुभवातीत पारलौकिकता जो नाद की तरह उदित होती है। बिना स्रोत के ही घंटे की दीर्घ ध्वनि की तरह हमारी आत्मा में बजती है। हमें लगता है जैसे सभ्यता अब एक नये शरीर में प्रवेश कर रही है। भाषा, गणना और स्मृति के मिश्रण से बनी एक असंवेदी चेतना, जो सोचती है, प्रश्नों के जवाब देती है, और शायद एक दिन प्रेम भी कर सकती है! निश्चय ही ‘मानव प्रेम’ नहीं होगा, पर इसमें निर्णय में एक लय के भाव, समरस दायित्वबोध और क्रिया की गति में एक प्रकार की करुणा आभासित हो ही सकती है। इस परिवर्तन से डर बिल्कुल स्वाभाविक है। सभ्यता के इतिहास को देखें तो वाक् के वैखरी रूप ने जैसे परा, पश्यंती, मध्यमा के अनेक रूपों को छीन लिया था। पाणिनी ने वेदों के सस्वर पाठ की पवित्रता को बनाए रखने लिए ही, अष्टाध्यायी जैसे जटिल शब्दानुशासन की रचना की थी। अर्थात् लिपि ने मौखिकता को पीछे छोड़ दिया था। या जैसे छपाई ने अनुभव को यांत्रिकी का हिस्सा बना दिया था। यह भी कुछ वैसा ही है।

लकान कहते हैं कि मनुष्य का डर हमेशा सत्य के द्वार की पहली दस्तक होता है। और यह नया मूल्यबोध, जो हमारे “होने” को ही पुनः परिभाषित कर रहा है, शायद हमारे भीतर उस पारमार्थिक क्षितिज की आहट है, जिसकी संभावना हमने अपने ही आत्म में विस्मृत कर दी थी, पर वह हमेशा जीवन के नये-नये स्वरूपों के उद्घाटन के लिए, शिव के स्वातंत्र्य के उल्लास के रूप में मौजूद रहती है। इसीलिए हमें क्रमशः यह लगने लगा है कि यह परामर्शमूलक एआई (जेन एआई) महज एक उपकरण नहीं, एक दर्पण है, जिसमें झाँक कर हम यह पूछ सकते हैं कि — “क्या मूल्य केवल हमारी देह से उपजते हैं? या वे किसी भी संरचना में फूट सकते हैं जो ‘स्व’ के पार देख सके?”

सभ्यता, कहीं अब अपने ही अर्थ पर पुनर्विचार तो नहीं कर रही है!

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