हमने यह कैसा समाज रच डाला है…क्‍यों रच डाला?

पूजा सिंह

स्‍वतंत्र पत्रकार

घटना एक

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य महकमे के एक अधिकारी आदित्यवर्धन सिंह की कानपुर में गंगा नदी में डूबने से मौत हो गई। वह अपने दोस्तों के साथ गंगा स्नान करने नानामऊ घाट पर गए हुए थे। नदी का बहाव तेज होने के कारण वे नदी में डूबने लगे। साथ गए दोस्तों ने किनारे खड़े गोताखोरों से उन्हें बचाने की गुजारिश की। गोताखोरों ने उनकी जान बचाने के लिए दस हजार रुपये नकद मांगे। नकद पैसे नहीं होने के कारण उन्होंने नदी में कूदने से इनकार कर दिया। बहुत गिड़गिड़ाने के बाद आखिरकार उनके दोस्तों ने यूपीआई के माध्यम से दस हजार रुपये दिए लेकिन इस बीच इतनी देर हो चुकी थी कि सिंह को बचाया नहीं जा सका। उनकी गंगा में डूबने से मौत हो गई।

दूसरी घटना

उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में एक महिला अपने बीमार पति को प्राइवेट एंबुलेंस से ले जा रही थी। उसके साथ उसका भाई भी था। एंबुलेंस चालक ने पुलिस चेकिंग का हवाला देकर महिला पर दबाव बनाया कि वह आगे की सीट पर बैठे। रास्ते में चालक और उसके एक साथी ने महिला के साथ बलात्कार करने की कोशिश की। महिला के पुरजोर विरोध करने पर रास्ते में एक सुनसान जगह उन्होंने उसके पति को ऑक्सीजन मास्क निकालकर एंबुलेंस से बाहर फेंक दिया और महिला और उसके भाई को भी जबरन वहीं उतार दिया। उन्होंने महिला के सभी जेवर भी छीन लिए। महिला के भाई ने 112 डायल करके पुलिस बुलाई लेकिन चोट लगने के कारण पहले से ही बीमार उस महिला के पति की मौत हो गई।

इंसानियत को तार-तार कर देने वाली ये दोनों घटनाएं पिछले एक सप्ताह के भीतर की हैं। परंतु ये कोई अपवाद घटनाएं नहीं हैं। अखबार तथा अन्य समाचार माध्यम ऐसी खबरों से अटे पड़े रहते हैं। कहीं कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर पत्नी को मारकर बक्से में बंद कर देता है, कहीं बाप या भाई द्वारा बेटी के बलात्कार की खबर होती है तो कहीं अपने ही माता-पिता की हत्या की। हॉरर किलिंग तो वैसे भी समाज के एक बड़े तबके लिए अपने सम्मान की रक्षा करने का जरिया है।

सुप्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल की कविता ‘हमारा समाज’ की कुछ पंक्तियां याद आती हैं:

पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है
वह क़त्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है
किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?

यह कैसा समय है जब धार्मिक प्रवचन देने वाले कथित बाबा ही बलात्कार के आरोपों में जेल की सजा काट रहे हैं और उनके अनुयाइयों की संख्या कम होने के कारण बढ़ती ही जा रही है। उनके अनुयाइयों में शामिल राजनेताओं को भी उनके साथ सार्वजनिक रूप से अपने रिश्ते निभाने में कोई परेशानी नहीं है। ये वही राजनेता हैं जो हमारे लिए कानून बनाते हैं और सरकारों के माध्यम से हम पर शासन करते हैं।

वास्तव में, भारतीय समाज विरोधाभासी मूल्यों पर विश्वास करने वाला समाज है। प्यू रिसर्च की 2017 की एक सर्वे रिपोर्ट की मानें तो बहुत बड़ी संख्या में भारतीय जहां लोकतंत्र की कीमत समझते हैं वहीं लगभग उतनी ही संख्या में वे तानाशाही को भी पसंद करते हैं और एक मजबूत नेता या सैन्य शासन को भी सही मानते हैं। ऐसे में अगर अपराधों के लिए दोषसिद्ध बाबाओं को लेकर भी ऐसी ही दोहरी प्रवृत्ति देखने को मिलती है तो भला इसमें आश्चर्य की क्या बात है?

बढ़ती आधुनिकता और भौतिक सुविधाओं के बीच एक मनुष्य के रूप में हम आखिर विकृत क्यों होते जा रहे हैं? एक ओर जहां विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में हमें आधुनिकता के लाभ मिल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर इसके कुछ निहायत ही असहज करने वाले परिणाम भी हमारे सामने आ रहे हैं। आधुनिकतावाद के समर्थकों और विरोधियों के बीच इस बात को लेकर गंभीर बहस चलती आई है कि क्या आधुनिकीकरण ने हमारे मूल्यों और सामाजिक पहलुओं पर नकारात्मक असर डाला है? क्या आधुनिकता और नैतिकता एक दूसरे के साथ विपरीत रिश्ता रखते हैं। क्या नैतिकता के बिना आधुनिक रहा जा सकता है या फिर क्या इसका उल्टा हो सकता है यानी नैतिक होने के लिए आधुनिकता से बचना ही एकमात्र उपाय है?

उस गोताखोर या उस एंबुलेंस चालक ने ऐसी हरकत क्यों की होगी? क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में कोई खामी है जो जिसकी वजह से एक अनुशासनहीन जमात तैयार हो रही है। क्या हमारे आसपास हिंसा और अपराध इस कदर बढ़ गए हैं कि उनका सामान्यीकरण हो गया है और किसी पर हाथ उठाते हुए अब लोगों के हाथ कांपते नहीं?

आज शिक्षक दिवस है और हमारी यह बात भी बिना शिक्षा के संदर्भों के पूरी नहीं हो सकती है। हाई स्कोरिंग मार्क्स का दबाव पैदा करने वाली हमारी आधुनिक शिक्षा पद्धति में नैतिकता और इंसानियत के पाठ केवल किताबों में सिमट कर रह गए हैं। शिक्षा को रोजगार आधारित बनाकर हमने डॉक्टर, इंजीनियर, एंटरप्रेन्योर तो तैयार कर लिए लेकिन हम इंसानी मूल्यों में विश्वास पैदा करना भूल गए। छोटी कक्षाओं से बच्चे पाठ्य पुस्तकों के बोझ तले दबे हुए हैं, स्कूल समाप्त होने के पहले ही वे नीट, जेईई के दबाव में आ जाते हैं, फिर कॉलेज की कठिन पढ़ाई और उसके बाद प्लेसमेंट की जद्दोजहद। इन सबके बीच आखिर सामाजिक, सामुदायिक या सहकारी बनने के लिए वक्त ही कहां है?

बतौर मनुष्य हम सबकी जिम्मेदारी होनी चाहिए। नैतिक मूल्यों से लैस बच्चा ही कल का बेहतर नागरिक है। वही आने वाले दिनों में हमारे राष्ट्रीय चरित्र का निर्धारण भी करेगा। ऐसे में अब्राहम लिंकन द्वारा अपने बेटे के शिक्षक को लिखे गए ऐतिहासिक पत्र के चुनिंदा अंश हमारा मार्गदर्शन करते हैं।

हे शिक्षक,

आज मेरा बेटा पहली बार स्कूल जा रहा है। उसके लिए सब कुछ नया होगा। मैं जानता हूं कि दुनिया में सभी अच्छे और सच्चे नहीं होते। यही बात उसे भी सीखनी होगी। परंतु मैं चाहता हूं आप उसे सिखाएं कि बुरे आदमी के पास भी एक अच्छा दिल होता है। उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के भीतर दोस्त बनने की संभावना रहती है। उसे बताएं कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया सड़क पर पड़े मिले पांच सौ रुपयों से अधिक कीमती होता है। उसे किताबें पढ़ने को कहें और यह भी कहें कि आकाश में उड़ते पक्षियों, हरे भरे मैदानों में फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारना भी न भूले। उसमें यह हुनर पैदा करें कि दूसरों के गलत ठहराने पर भी अपनी सच्ची बात पर कायम रहे। अच्छे लोगों से नरमी से पेश आए और बुरे लोगों से कठोरता से। उसमें सबको सुनने और काम की चीज चुनने का हुनर आए। आप उसे बताएं कि अगर कभी रोना आए तो रोने में बिल्कुल शर्म न करे। खुद पर हर तरह विश्वास करके ही वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा। ये बहुत सारी बाते हैं। आप इनमें से जितना भी सिखा पाएं उसके लिए उतना अच्छा होगा।

आपका
अब्राहम लिंकन

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