
- प्रो. संजीव कुमार
मौन संगीत अपनी पूरी लय में गूंज रहा था- एक ऐसी धुन जो कानों से नहीं, सीधे सीने में सुनाई देती थी। रास्ते के दोनों ओर पहाड़ों की तलहटी तक गोल पत्थरों का अजायबघर बिखरा हुआ था। तेज बर्फीली हवा चेहरे और हथेलियों पर सुई की नोंक की तरह चुभ रही थी, और हर साँस में ठंडक नाक से सरक कर भीतर तक उतर रही थी। खिड़कियाँ खुली हुई थीं, और कार उबड़-खाबड़ रास्ते पर ऊंट की तरह मलकती हुई चल रही थी। चारों ओर एक जिंदा वीरनगी बिखरी हुई थी—न धूप, न छाया, बस एक अनंत खामोशी जो पत्थरों से उठती थी। और पृथ्वी की धड़कन रोम-रोम में समा रही थी।
अजायबघर से उठती डिडजेरीडू की धुन तन-मन को ऐसे सुगंधित कर रही थी कि रोम-रोम सिहरन से भर उठा था। दूर-दूर तक योगी की तरह बैठे हुए अजायबघर के विभिन्न आकार के बटरोही ध्यानमग्न एकतान अपनी ही आंतरिक अन्विति में लीन अनंत प्रतीक्षारत थे- जैसे उस जिंदा वीरनगी में पृथ्वी की धड़कन सांस ले रही हो, और मेरी साँसों के साथ उनकी चुप्पी उस संपूर्ण संगीत में बह रही हो, समय की सीमाओं को पार करती हुई।
सन्नाटे में चहकती पत्थरों की सरसराहट के साथ हम आगे बढ़ रहे थे ….तिस्ता नदी की बहती हुई एक पतली सी धार के विपरीत दिशा में हमारा रास्ता उसके साथ साथ उद्गम की ओर बढ़ रहा था…..
तिस्ता नदी जीवन की लय की तरह पिछले तीन दिनों से हमारे साथ चल रही थी…आंख मिचौली खेलती हुई… कभी पहाड़ों में छिप जाती कभी बगल से बहने लगती और कभी बहुत नीचे नागिन की तरह बल खाती हुई… कभी हरे भरे जंगलों के आकाश में आकाश गंगा की तरह फैली हुई…।
चूंकि हम तिस्ता के प्रवाह के विपरीत चल रहे थे इसलिए आज तीसरे दिन उसकी धार सिकुड़ती हुई एक लकीर की तरह हो गई थी… और अब यह छरहरी जंगली रेखा पहाड़ों के बीच बल खाती हुई नाच रही थी, जैसे पृथ्वी की धड़कन उसकी हर लहर में गूँज रही हो। कार की खिड़की से उसे देखते हुए मैंने आँखें बंद कीं—हवा की सनसनाहट और पानी की हल्की गूँज एक हो गईं, और वह डिडजेरीडू की धुन फिर से मेरे सीने में बजी।
हम अज्ञात संभावनाओं की ओर बढ़े चले जा रहे थे। शब्द और यथार्थ के बीच की खाई कितनी चौड़ी हो सकती है, यह आज हमारे जीवनानुभूति बनने वाला था। गहरे घने जंगलों से बोझिल पर्वत श्रृंखला और ऊँचाई पर सफेदी की चादर ओढ़े ध्यानमग्न शिव की जटाओं-सी फैली विस्तृत चोटियाँ- अपलक निहारती हमारी आँखें। अदृश्य संगीत की लहरियाँ- डिडजेरीडू की गहरी गूँज-सी-हमारे तन-मन को आप्लावित कर रही थीं, जैसे वह पत्थरों और हवा से उठकर सीधे हमारी साँसों में समा रही हो। बल खाते रास्ते अब मैदान में बदलने लगे थे। अब हम लगभग सोलह हजार फीट की ऊँचाई तक आ चुके थे- अब चढ़ाई कम और फैलाव अधिक था। यह हजारों-लाखों वर्षों से ऐसा ही था। हजारों तरह के आकार लिए पत्थरों का समुद्र यहाँ प्रवाहित था। बहुत एकाग्रता से देखने और महसूस करने से ऐसा लग रहा था मानो पत्थर लहरें मार रहे हों- उनकी ठंडी सतह पर हवा की उंगलियाँ नाच रही थीं। उनमें से गति और ध्वनि का अजीब-सा निनाद अपनी पूरी तरलता में प्रवाहित था। हमें ऐसा लग रहा था कि हम पृथ्वी की धड़कन के बीचों-बीच भंवर में हैं- और बस हैं, जैसे समय और हम एक होकर उस लय में ठहर गए हों।
तभी राम ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘सर! आप शायद नहीं जानते कि हम जहाँ जा रहे हैं, उस जगह का नाम महान बौद्ध संत गुरु पद्मसंभव के नाम पर रखा गया है।’
राम हमारा ड्राइवर था। राम किंकर उसका पूरा नाम।
‘अरे वाह! मतलब गुरुडोंगमर झील उनके नाम से जानी जाती है,’ मैंने आश्चर्य से कहा।
यह हमारे लिए नई बात थी कि किसी झील का नाम एक बौद्ध संत के नाम पर हो।
‘बहुत खूब,’ ओशीन ने ताली बजाते हुए कहा, उसकी छरहरी काया कार की सीट पर उछल रही थी।
राम हमारी यात्रा का एक साथी था। वह एक बहुत ही खुशमिजाज और सहज इंसान था- उसके साथ यात्रा करते हुए हमने सिक्किम और वहाँ की सांस्कृतिक विरासत के बारे में बहुत कुछ सीखा और अनुभव किया।
‘गुरु पद्मसंभव यहाँ आए थे,’ राम ने आगे बताया, उसकी आँखों में एक चमक थी। ‘कहते हैं, उन्होंने इस झील को बनाया- अपने आशीर्वाद से पानी को शांत किया, ताकि लोग यहाँ पी सकें।’
मैंने खिड़की से बाहर देखा- पत्थरों का समुद्र अब और शांत लग रहा था, जैसे उस संत की मौजूदगी अभी भी यहाँ गूँज रही हो। हवा में वही डिडजेरीडू की गूँज थी, जो अब किसी प्राचीन मंत्र की तरह लग रही थी। ओशीन ने मेरी ओर देखा और धीरे से कहा, ‘पापा, क्या वह संगीत भी उनके साथ आया होगा?’ मैंने मुस्कुरा कर उसका हाथ थामा- शायद हाँ, शायद यह धड़कन उसी आशीर्वाद का हिस्सा थी।
कार धीरे-धीरे आगे बढ़ी, और वह पत्थरों का समुद्र अब एक नीली रेखा की ओर खुलने लगा। ओशीन ने खिड़की से झुककर बाहर देखा, उसकी छरहरी उंगलियाँ हवा में लहराईं, जैसे वह उस संगीत को छूना चाह रही हो।”
… गुरुडोंगमर झील से कुछ मील पहले, पत्थरों का लहराता सागर- भूरे, काले, सफेद, अनगढ़ आकृतियों में बिखरा। लहरें नहीं, फिर भी बहता हुआ। समय में ठहरा, पर अनंत में गतिमान। चारों ओर फैला यह पथरीला विस्तार, जैसे धरती का कोई प्राचीन गीत हो, जो मौन में गाता हो। पत्थरों से उठती धड़कन, सूक्ष्म, गहरी- मेरे पैरों को छूती, मेरे शरीर में समाती। कोई आवाज़ नहीं, बस एक स्पंदन, जो हड्डियों में बस्ता हो, रक्त में बहता हो। और तब, आँखें बंद होती हैं। यह पत्थरों का सागर कन्याकुमारी के समुद्र में बदल जाता है। सुबह का धुँधलका, क्षितिज पर लालिमा, और दूर से आती लहरों की गर्जना। वे दौड़ती हैं, उछलती हैं, अपने तर्जन में सागर का राग लिए। पैरों को भिगोतीं, फिर कमर तक चढ़तीं, और एक क्षण में मुझे आकंठ डुबो देतीं। नमक की गंध, हवा का वेग, और वह नाद—जो कानों से परे, आत्मा तक गूँजता हो। यहाँ, पत्थरों के बीच, वही तरलता है। लहरें नहीं, पर लय है। पत्थर बहते नहीं, पर उनकी धड़कन तरंग बनकर मुझ तक आती है। ठंडी हवा में एक कंपन, जो समुद्र की गर्जना सा लगता हो।
मैं खड़ा हूँ- न स्थिर, न बहता- बस उस प्रवाह में डूबा। कन्याकुमारी की लहरें यहाँ पत्थरों में ठहरीं, पर उनकी गति मेरे भीतर जागी। यह संगम है- पृथ्वी और सागर का, स्थिरता और संचरण का। पत्थरों का मौन और लहरों का नाद, एक ही धुन में बंधा। मेरे चारों ओर यह सागर लहराता है, मेरे भीतर वह समुद्र गूँजता है। मैं नहीं जानता कहाँ हूँ- गुरुडोंगमर के किनारे या कन्याकुमारी के तट पर। शायद दोनों ही जगह, शायद कहीं और। बस एक लय है, जो मुझे लिए बहती है—पत्थरों से उठती, सागर में समाती, और मेरे होने को तरंगों सा तरल कर देती है।
धरती की धड़कन- कोई शब्द नहीं, केवल एक लय, जीवन का स्पंदन। मौन में बजा संगीत, हवा के साथ बहता, पत्तियों में सरसराता, नदियों के गीत में गूँजता। सूरज की किरणों में जागा, तारों की चादर तले सोया। हर साँस में बसी यह तरंग, कीट के पंखों में थिरकती, वृक्ष की जड़ों में समाई। पत्थरों में ठहरी, लहरों में नाची। कोई शुरुआत नहीं, कोई अंत नहीं- बस एक अनंत नाद, जो हर कण में बस्ता। जंगल की शांति में सुना, पहाड़ की चुप्पी में महसूस हुआ। साँसों में बंधा, हृदय में धड़का। अलगाव नहीं, एकता का स्वर—ब्रह्मांड का वह गीत, जो भीतर-बाहर एक सा गूँजा। मौन में डूबा मन, उस लय में खोया। सुनाई नहीं, केवल अनुभव हुआ। धरती की धड़कन- मैं नहीं, हम सब, उस अनंत के साथ बहे।
धरती की धड़कन – मौन की लय में तरंगित
कुछ नहीं होता… फिर भी सब कुछ हो रहा होता है। कोई स्वर नहीं उठता, फिर भी एक संगीत बहता है- जैसे धरती स्वयं एक वीणा हो, और उसकी हर श्वास एक राग।
कोई हिलता नहीं, फिर भी पत्तियों में कंपन है। कोई गाता नहीं, फिर भी आकाश में ध्वनि तैरती है। कोई कहता नहीं, फिर भी मौन कुछ कह जाता है।
धरती की धड़कन सुनाई नहीं देती-
वह सुनना नहीं, होना है।
जैसे कोई गहरी साँस भीतर कहीं उतरती हो,
और वह साँस न व्यक्ति की हो, न पृथ्वी की—
बस एक सांझी स्पंदन हो, जो हर अस्तित्व में एक-सी धड़कती हो।
न बीज उगते हैं, न वृक्ष लहराते हैं,
बस बीज होना होता है… मिट्टी होना होता है… हवा में बहना होता है।
वृक्ष का हिलना नहीं,
हवा में सम्मिलित हो जाना मात्र होता है।
धरती कहीं नहीं चलती, पर सब कुछ उसमें बहता है।
समय भी उसकी धड़कन के साथ चलना नहीं,
बस उसकी गोद में ठहर जाना होता है।
जहाँ शब्द नहीं होते, वहाँ उसकी भाषा आरंभ होती है।
जहाँ विचार नहीं पहुंचते, वहाँ उसका भाव गूंजता है।
और जहाँ हम स्वयं को भूलते हैं,
वहाँ वह हमें अपनी धड़कन में समाहित कर लेती है।
यात्रा जारी थी। गुरुडोंगमर झील से कोई पंद्रह-बीस किलोमीटर पहले, सड़क जैसे थक चुकी थी- और आसपास की धरती अचानक कोई पुरानी कथा बुनने लगी थी। मैं रुका। या शायद वह क्षण ही रुक गया था मेरे लिए।
चारों तरफ पत्थर ही पत्थर थे-
भूरे, काले, कहीं-कहीं सफेद,
उनमें कोई नियमितता नहीं,
फिर भी एक अदृश्य लय थी।
जैसे धरती ने अपनी साँसों को जमाकर
पत्थरों में बदल दिया हो।
मैं अकेला नहीं था वहाँ-
मेरे साथ था वह मौन,
जो शब्दों से बहुत पहले जन्म ले चुका था।
हर पत्थर मानो चल रहा था,
बह रहा था-
ना अपने स्थान से,
बल्कि मेरे भीतर से।
मैं उन्हें देख नहीं रहा था,
मैं उनमें बह रहा था।
वो पत्थरों का समुद्र
कोई शुष्क विस्तार नहीं था,
वह तो जल की स्मृति था-
पृथ्वी की धड़कन में बसी कोई पुरानी लहर।
और उसी क्षण…
मैं एक और यात्रा में उतर गया।
कन्याकुमारी…
जहाँ समुद्र तीन दिशाओं से आकर
एक गहन मौन में समा जाता है।
सुबह की पहली लहरें-
दूर से आती हुई-
जैसे अस्तित्व की कोई गूंज।
मैं वहाँ भी था…
इस पत्थर के सागर में भी, और उस जल के संगम में भी।
दोनों स्थानों पर
एक ही तरंग बार-बार मुझ तक आ रही थी-
भीतर तक भींगती हुई।
गति और नाद का ऐसा संगम,
जो केवल सुनने या देखने की वस्तु नहीं,
बल्कि होने की अवस्था है।
पत्थरों की इस यात्रा में
मैंने पहली बार महसूस किया-
पृथ्वी भी सांस लेती है।
उसकी हर धड़कन
इस सन्नाटे में तरंग बनकर उठती है-
और यदि तुम बिल्कुल स्थिर हो जाओ,
तो वह तुम्हें छू जाती है-
बिना छुए।
ओशीन और अविकल पास आए, उनकी छोटी-छोटी आवाज़ें हवा के झोंकों में घुलीं।
“पापा, क्या देख रहे हैं आप?” ओशीन का सवाल मासूम, अविकल की आँखों में उत्सुकता।
“कब से इन पत्थरों के बीच खड़े हैं, हमें तो लगा जैसे आप लहरा रहे हैं।”
हवा तेज थी, ठंड तीखी—पत्थरों के सागर में खड़ा मैं, शायद सचमुच लहरा रहा था। धरती की धड़कन मेरे भीतर गूँजती थी, वह लय जो मुझे कन्याकुमारी के तटों तक ले गई थी।
“चलें न,” अविकल ने हाथ पकड़ा। “राम अंकल कह रहे थे, जल्दी गुरुडोंगमर पहुँचना है। मौसम बिगड़ने वाला है, फिर वापसी मुश्किल होगी।”
हवा का शोर बढ़ता जा रहा था, ठंड त्वचा को चीरती हुई। मन नहीं था वहाँ से हटने का। पत्थरों की वह तरंग, वह मौन संगीत—जैसे मुझे थामे हुए था, छोड़ना नहीं चाहता था। पर उनकी आँखों में चिंता थी, उनकी आवाज़ में आग्रह।
“ठीक है, चलो,” मैंने कहा।
एक आखिरी बार पत्थरों के सागर को देखा- भूरे, काले, सफेद, लहराते हुए। धड़कन अभी भी गूँजती थी, मेरे कदमों में, मेरे सीने में। फिर बच्चों के साथ कार की ओर मुड़ा। हवा पीछे से धकेलती रही, जैसे कह रही हो—वापस आना, यह लय तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी। मैं चलकर भी वहीं खड़ा हूं…
… पत्थरों का समुद्र– पृथ्वी की धड़कन में स्नान…
मैं खड़ा हूँ… गुरुडोंगमर झील से कुछ पहले,
जहाँ न झील है, न जल-
केवल पत्थर हैं… भूरे, काले, कुछ उजले…
जैसे पृथ्वी ने अपने पुराने स्वप्नों को
कण-कण में बदलकर फैला दिया हो।
ये पत्थर,
निःस्पंद नहीं हैं…
वे बहते हैं-
एक ऐसे प्रवाह में, जो आँखों से नहीं दिखता
पर देह को भीतर तक छू जाता है।
यह पत्थरों का सागर है…
लहरों की कोई सीमा नहीं…
केवल आकार हैं- वक्र, विकृत, विचित्र-
पर उनमें छिपा है एक मौन संगीत।
एक ऐसी लय, जो ज़मीन में नहीं…
मेरे तलवों से ऊपर उठकर
शरीर की पोर-पोर में भर रही है।
मैं आँखें बंद करता हूँ,
तो देखता हूँ कन्याकुमारी का समुद्रीय संगम…
जहाँ सुबह-सुबह
लहरें दूर क्षितिज से आती दिखाई देती हैं-
धीरे-धीरे गूँजती हुईं…
फिर एकाएक समर्पण में टूटती हैं मेरे पैरों पर।
शोर नहीं होता,
गर्जन तर्जन होता है…
वो जो भीतर उतरकर
मेरे अस्तित्व को सिहरा देता है।
मैं वहीं हूँ…
फिर भी यहाँ हूँ।
पत्थरों की यह भूमि अब जल हो जाती है,
और मैं…
एक लहर हूँ, जो बार-बार इन अदृश्य तरंगों में आकंठ भीगता हूँ।
कुछ भी नहीं चलता…
फिर भी सब बह रहा है।
यह गति है- पर बिना चलन के।
यह नाद है- पर बिना ध्वनि के।
पृथ्वी की यह धड़कन
ना केवल सुनाई देती है,
बल्कि छूती है…
और फिर विलीन हो जाती है
मेरे मौन में।
कविता और यह यात्रा दोनों मेरे अंदर प्रवाहित हो रही थीं… मैं सबके साथ था और जैसे नहीं भी था… मेरे अंदर स्थिरता और तरलता दोनों एक लय में तरंगायित हो रहीं थीं…
गुरुडोंगमर और कन्याकुमारी- धरती के दो छोर, दो स्वर, एक लय। एक ऊँचाई पर ठहरा, पत्थरों में बंधा, शीतलता का आलिंगन लिए। दूसरा समुद्र तल पर फैला, तरलता में नाचा, लहरों के गीत में डूबा। विलोम हैं, पर एक ही धड़कन में बंधे। जीवन इनके बीच बहता है- एक अद्भुत तरंग, जो स्थिरता और संचरण को एक सूत्र में पिरोता है। समुद्र की रेत- वही कण, जो कभी गुरुडोंगमर के पत्थर थे। समय के हाथों घिसे, हवाओं के झोंकों में उड़े, नदियों के प्रवाह में बहे। अब सागर के तट पर बिछे, लहरों के साथ ताल मिलाते। हर लहर जो उन्हें छूती है, एक प्राचीन गीत गाती है—पत्थरों की वह धड़कन, जो रेत बनकर भी गूँजती है। और सागर की वह तरलता- क्या वह गुरुडोंगमर की शीतलता नहीं? वह ठंडक, जो पत्थरों से उठती है, हवा में घुलती है, और हमें छूकर जीवन का स्पर्श देती है। यह धरती की धड़कन है- न ठोस, न तरल, बस एक लय। पत्थरों में बसी, रेत में बिखरी, लहरों में थिरकती। गुरुडोंगमर की चुप्पी और कन्याकुमारी की गर्जना- दोनों एक ही संगीत के स्वर। जीवन इस संगीत में बहता है, हर कण में, हर तरंग में। पत्थर रेत बनते हैं, सागर शीतलता बुनता है, और यह लय हमें अपने भीतर समेट लेती है। कभी ऊँचाई पर खड़े होकर पत्थरों की ठंडक को छूता हूँ, कभी तट पर लहरों के नमक को चखता हूँ। दोनों में वही धड़कन है- धरती का मौन, जीवन का नाद। यह अनुभव नहीं, एक होना है- उस लय के साथ, जो छोरों को जोड़ती है, जो पत्थरों को सागर बनाती है, और सागर को पत्थरों में बसाती है।
गुरुडोंगमर और कन्याकुमारी…
एक उत्तुंग, निर्वात में ठहरा हुआ शिखर-
दूसरा गहराइयों से उफनता एक सागर।
एक स्थिरता में कंपन है,
दूसरे में तरलता का आलाप।
पर ये दोनों
विपरीत नहीं-
बल्कि एक ही लय के दो छोर हैं।
एक ही संगीत है
जो ऊँचाई में पत्थर बनकर जमे हैं,
और गहराई में रेत बनकर बह रहे हैं।
गुरुडोंगमर के पत्थर –
ठोस दिखते हैं,
पर उनमें समुद्र की लहरें थिरकती हैं।
शीतलता केवल ताप का अभाव नहीं,
वह जल की स्मृति है-
जो ऊँचाई पर भी कभी वाष्पित नहीं हुई।
और कन्याकुमारी के रेत के कण –
वे कोई साधारण मिट्टी नहीं हैं,
वे उन्हीं पत्थरों के टूटे हुए गीत हैं –
जो अब लहरों के साथ थिरकते हैं,
ताल में,
छंद में,
स्पंदन में।
मैं जब कन्याकुमारी के तट पर खड़ा होता हूँ,
तो लहरों के नीचे उन रेत-कणों को
पाँवों से छूता हूँ,
जिन्होंने गुरुडोंगमर की निस्पंद शांति को
अपने भीतर समाए रखा है।
… और जब गुरुडोंगमर में खड़ा होता हूँ,
तो पत्थरों की शांति में
सुनता हूँ सागर की वही गर्जन,
जो कभी तरंग बनकर
मेरे भीतर उतर गई थी।
धरती धड़कती है…
शब्दहीन, अदृश्य,
पर पूर्ण जीवन से भरी हुई।
उसकी यह धड़कन
ना समय की परतों में बंधी है,
ना दूरी के पैमानों से मापी जा सकती है।
वह बस होती है…
हर ठोस में, हर तरल में-
हर उस पल में जब कोई यात्री
दो छोरों के बीच
एक लय को महसूस करता है…
और जान जाता है कि
धरती स्वयं एक जीव है-
जिसकी हर धड़कन
हमारे जीवन की लय है।
मुझे स्मरण आया कि मैंने कहीं पढ़ा था, कि पृथ्वी भी सांस लेती है- यहां गुरुडोंगमर झील के नजदीक मुझे यह महसूस हुआ- वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट से देखा है कि पृथ्वी की सतह में कुछ खास मौसमों में सूक्ष्म उत्थान-पतन होता है, मानो वह साँस ले रही हो। यह ज़्यादातर बड़े वन क्षेत्रों में देखा गया, जहाँ CO₂ और ऑक्सीजन की अदला-बदली वातावरण में धरती के साथ एक लय बनाती है।
जैविक धड़कन–जीवन की लय
सभी जीव पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र और उसकी आवृत्तियों से जुड़े होते हैं। माइग्रेटिंग बर्ड्स मछलियाँ, यहां तक कि इंसान भी—इन आवृत्तियों से प्रभावित होते हैं। अगर यह संतुलन बिगड़ता है (जैसे 5G रेडिएशन, कृत्रिम तरंगें आदि), तो जैविक धड़कनों पर असर पड़ता है।
पृथ्वी का हृदय – Inner Core Oscillation: पृथ्वी के भीतरी कोर में धीमी गति से होती हुई कंपन (oscillations) हैं, जो लाखों सालों में बदलती हैं। कुछ वैज्ञानिक इसे पृथ्वी का “आंतरिक समय-चक्र” मानते हैं।
- धरती भी धड़कती है, पर उसकी धड़कन को सुनने के लिए तुम्हें पेड़ के नीचे बैठकर चुप रहना होगा। पत्थरों के साथ पत्थर बनकर पड़े रहना होगा। बर्फ के नीचे बहती ऊर्जा को हथेलियों से सुनना होगा। नदियों की तलहटी में बिछी सैवाल के साथ बहना होगा।
- हवा ने पत्थरों को जगाया, और वह संगीत लौटा—मेरे सीने में, मेरी साँसों में।
- चिड़ियाँ गा रही थीं, और मैं सुन रहा था—पृथ्वी की धड़कन, मेरी धड़कन।
- उसकी ठंडक मेरे हाथों में समा गई, और उनकी चुप्पी में एक धीमी लय थी—7.83 हर्ट्ज़ की गूँज।
- हवा तेज़ थी, ठंडी थी, और हर झोंके में एक धुन थी—जैसे पृथ्वी की साँस मेरे चेहरे को छू रही हो।
- रास्ते में एक बौना पेड़ था—उसकी पत्तियाँ हवा में नाच रही थीं, जैसे धड़कन का संगीत उनके भीतर बस्ता हो।
- चिड़ियों का चहचहाना हवा में तैर रहा था-एक ऊँची धुन, जो पृथ्वी की गहरी लय से मिलती थी।
- झील अचानक प्रकट हो गयी… नीला पानी स्थिर था, पर उसकी गहराई में एक स्पंदन था- जैसे पृथ्वी का दिल वहाँ धड़क रहा हो।
हम सब हतप्रभ… अवाक और आनंदित… कह उठे] अरे वाह!!! बच्चे तो उछल उठे कंचन सी बिछी झील को देखकर… इतनी आकस्मिक रूप से सामने आई झील जैसे मां गंगा भीष्म के सामने।
राम ने हमें एक पौराणिक कथा के बारे में बताया। हमें राम ने बताया कि यह झील एक बार गायब हो गई थी और फिर अचानक एक दिन प्रकट हुई थी… यह मिथक है या सच पता नहीं पर…हमारे सामने जिस तरह से प्रकट हुई, लगता है मिथक सच ही होगा, क्योंकि यह हर यात्री के सामने ऐसे ही चलते-चलते अचानक आ जाती है, चुपचाप बिना आवाज किए…
वाह,बहुत सुंदर
इतनी अच्छी नदी की धार की तरह पारदर्शी और प्राजंल भाषा ।बधाई और शुभकामनाएं।