स्व. अनिल यादव: जिनका लिखा और फिल्माया हमारी बहुमूल्य धरोहर है
गंजबासौदा निवासी अनिल यादव मध्यप्रदेश के जानेमाने पत्रकार ही नहीं थे बल्कि में वन और वन्य प्राणियों के विशेषज्ञ और अध्येता भी रहे हैं। अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में उन्होंने खूब लिखा, कई शोध फिल्में बनाई। हमने उनकी नजर से दुनिया, जीवन और वन, पर्यावरण को समझा है। उनके लिखे को खूब सराहा गया, उनकी बनाई फिल्मों को देश-विदेश में पुरस्कृत किया गया। कोविड के बुरे समय ने उन्हें हम से छिन लिया लेकिन उनका काम आज भी हमें विचार और ज्ञान से समृद्ध करता है। उनके लिखे, फिल्माएं को पढ़ना, देखना आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना तब था। पुर्नपाठ की शृंखला में हम सबके आत्मीय स्व. अनिल यादव की नजर से दुनिया को देखने का यह उपक्रम साभार प्रस्तुत है।
world wildlife day 2024: स्व. अनिल यादव की फिल्म ‘सफेद बाघ: अनंत कैद, बीज नाश या आजादी?”
एक जमाना था जब किसी जंगल से कोई वन्यजीव विलुप्त हो गया तो समझो वह खत्म ही हो गया लेकिन अब वन्यजीव विशेषज्ञ कोशिश करते हैं कि ऐसे वन क्षेत्रों में अन्य जंगलों से उस वन्य जीव को लाकर उसे फिर से उस स्थल पर फिर से बसा दिया जाए। हमारे मध्य प्रदेश में वन विभाग ने इसी सिद्धांत पर बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व पन्ना टाईगर रिजर्व, सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में फिर से गौर,बाघ,कृष्ण मृग और हार्ड ग्राउंड बारासिंघा बसा दिए हैं। इस सूची में ऐसे ही और भी कई वन्यजीवों को शामिल किया जा सकता है।
इसी कड़ी का एक हिस्सा सफेद बाघों को भी सीधी जिले के उन्हीं जंगलों में फिर से बसाना था, जहां से 1951 में उस अंतिम सफेद बाघ मोहन को पकड़ा गया था जो आज दुनिया के लगभग सभी सफेद बाघों का पितामह है। सफेद बाघों की कहानी, मैं एक नहीं कई बार पढ़-सुन चुका था लेकिन विशाल वन्य जीव ‘गौर’ पर डाक्यूमेंट्री बनाने के दौरान तत्कालीन चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन रहे डॉ.एच.एस.पाबला जब मुझे अपने ढंग से, अपने ड्रीम प्रोजेक्ट ‘सफेद बाघ’ की पूरी कहानी सुनाई तो डॉ. पाबला का यह सपना मुझे भी अपना सा लगने लगा और मैंने तय कर लिया कि इसे मुझे एक डाक्यूमेंट्री में बदलना है क्योंकि इस फिल्म से सफेद बाघों को जंगल में छोड़ने के लिए जनमत बनाने में मदद मिलेगी।
लेकिन इस विषय पर फिल्म बनाना एक बड़ा चैलेंज था क्योंकि सफेद बाघ अब केवल चिड़ियाघरों में ही बचे रह गए हैं. वैसे भी सफेद बाघों के बारे में इतने मिथक एवं भ्रम हैं कि चिड़ियाघरों के अंतर्राष्ट्रीय संघों द्वारा उनके प्रजनन पर भी प्रतिबंध लगाने के प्रयास किये जा रहे हैं और उनकी बातों से अच्छे खासे लोग विचलित हो जाते हैं। इन सब बाधाओं के साथ यह मेरा निजी प्रोजेक्ट भी था तो किसी भी तरह का कोई सपोर्ट जुगाड़ना मुश्किल ही था। फिर भी इस पर फिल्म बनाई जा सकती थी लेकिन दिक्कत यह भी हो गई थी इसकी स्क्रिप्ट लिखने वाले डॉ. पाबला सेवानिवृत्ति के बाद एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए बांग्लादेश फिर अमेरिका चले गए थे।
फिर भी मैंने और सहयोगी छायाकार राजा छारी ने अलग-अलग प्रदेशों में जाकर सफेद बाघों की जिंदगी के विभिन्न पहलू फिल्माना शुरू कर दिया। यह मानते हुए कि अभी नहीं तो बाद में सफेद बाघों पर फिल्म तो बनाना ही है क्योंकि सफेद बाघों पर फैली अफवाहों और भ्रमों के जाले तार्किक ढंग से बनाई गई एक फिल्म के माध्यम से ही तोड़े जा सकते हैं।
डॉ. पाबला के बांग्लादेश और अमेरिका के लंबे प्रवास से लौट आने के बाद अब जो यह फिल्म ‘सफेद बाघ: अनंत कैद, बीज नाश या आजादी?’ हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं में तैयार हो गई है।
इसमें उन सवालों को भी लिया है जो अकसर सफेद बाघों के खिलाफ खड़े किये जाते हैं। यही नहीं देश और दुनिया के अनेक विशेषज्ञों ने ऐसे उन सवालों के विज्ञानसम्मत भी जवाब दिए गए हैं जिनके कारण कुछ लोग विदेशी चिड़ियाघरों में जन्मे कुछ विकृत सफेद बाघों के आधार पर सभी सफेद बाघों को बीमार वन्य प्राणी मानने लगे हैं।
अब एक बार फिर से कुछ तथ्य याद कर लिए जाएं कि भारत एवं आसपास के कुछ अन्य देशों के जंगलों में न जाने कब से सफेद बाघ घूमते रहे हैं। इस विषय में कई दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैं। यही नहीं शिकार किये गए सफेद बाघों की खालें, ट्रॉफीज, पेंटिंग और मशहूर शिकारी रहे जिम कार्बेट द्वारा 1930 में फिल्माया गया एक वीडियो भी उपलब्ध है जो हमें सदियों से हमारे जंगलों में सफेद बाघों की उपस्थिति की हकीकत से रूबरू कराते हैं।
हमारे जंगलों में पाए जाने वाले ये सभी सफेद बाघ प्रकृति ने ही स्वाभाविक रुप से अन्य जीवों की ही तरह पैदा किये थे लेकिन अत्यधिक शिकार के कारण वे सभी धीरे-धीरे जंगलों से विलुप्त हो गए और बचा रह गया वह मोहन जिसे हमारे ही प्रदेश के सीधी जिले के जंगलों से पकड़ने के बाद रीवा के तत्कालीन महाराजा मार्तण्ड सिंह ने संरक्षण दिया और जिसकी संतानें अब पूरी दुनिया के चिड़ियाघरों में हैं।
यह फिल्म “सफेद बाघ: अनंत कैद, बीज नाश या आज़ादी?” सफेद बाघ को वनों में वापस लाने के हक में एक मजबूत आवाज उठाती है और याद दिलाती है कि सफेद बाघ का सही स्थान, अन्य सभी वन्य जीवों की तरह चिड़ियाघर नहीं वन हैं।
मेरी कोशिश थी कि प्रकृति प्रेमी पत्रकारों के बीच इस अट्ठाईस मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म का प्रदर्शन किया जाए ताकि सफेद बाघों के बारे में फैलाए गए भ्रम स्पष्ट हो जाएं लेकिन सीमित संसाधनों के कारण यह संभव नहीं हो सका। इसलिए अब इसे सोशल मीडिया पर ही अपने सभी मित्रों, वन्यजीव प्रेमियों को यह फिल्म (हिंदी संस्करण) उपलब्ध करा रहा हूं।
सफेद बाघों को फिर से जंगल में बसाने की परिकल्पना करने वाले और इस फिल्म की स्क्रिप्ट के लेखक डॉ. हरभजन पाबला हैं। वैसे यह बात तो सभी जानते हैं कि बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है और यह फिल्म बाघ नहीं, ‘सफेद बाघों’ को संजय टाइगर रिज़र्व में फिर से बसाने की करने की जबरदस्त वकालत करती है तो अट्ठाइस मिनट निकाल कर यह फिल्म देखिये और खुद सोचिये कि सफेद बाघों को जंगल में बसाना कैसा रहेगा?