लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के तेवर क्यों बदले?

- मोहम्मद लईक
लेखक पत्रकार हैं।
देश की राजनीति इस समय बेहद रोचक मोड़ पर खड़ी है। संसद का मानसून सत्र जारी है और सभी की निगाहें संसद की कार्यवाही पर टिकी हैं। इस बीच लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला का तेवर भी चर्चा का विषय बन गया है। पिछले कार्यकाल में वे जिस तरह विपक्षी सांसदों पर सख्ती दिखाते थे, वैसा इस बार देखने को नहीं मिल रहा।
ओम बिरला का पिछला कार्यकाल याद करें तो उनकी कार्यशैली बेहद कठोर मानी जाती थी। हंगामा करने या सदन की कार्यवाही में बाधा डालने वाले सांसदों को वे बिना झिझक निलंबित कर देते थे। कई मौकों पर विपक्षी दलों के दर्जनों सांसद एक साथ निष्कासित कर दिए गए थे। यहां तक कि 66 सांसदों को सदन से बाहर कर दिए जाने का रिकॉर्ड उनके ही समय में बना। यह संदेश साफ था कि लोकसभा अध्यक्ष विपक्षी शोर-शराबे को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं।
लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने तस्वीर बदल दी। भारतीय जनता पार्टी, जो पिछले दो कार्यकालों में पूर्ण बहुमत से सत्ता में थी, इस बार 240 सीटों पर सिमट गई। सरकार तो बनी, लेकिन सहयोगियों—नीतीश कुमार की जदयू और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी—की बैसाखी पर। भाजपा के पास स्वयं का बहुमत नहीं है, और यही सबसे बड़ा कारण है कि संसद की कार्यवाही का स्वरूप भी पहले जैसा नहीं रह गया।
अब लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के मुंह से बार-बार एक ही शब्द सुनाई देता है “माननीय सदस्य, माननीय सदस्य, माननीय सदस्य।” यह बदलाव विपक्ष की भी नजरों से नहीं छुप रहा। विपक्षी सांसदों को सस्पेंड करने के मामले इस बार लगभग नगण्य हैं। जहां पहले निष्कासन का डर विपक्ष के सिर पर मंडराता था, वहीं अब कार्यवाही के दौरान केवल समझाने-बुझाने की कोशिश होती है।
बदलते हालात की मजबूरी
सवाल यह है कि आखिर ओम बिरला क्यों इतने नरम दिख रहे हैं? इसका सीधा जवाब सत्ता के अंकगणित में छुपा है। अगर भाजपा के पास इस बार भी 272 से अधिक सीटें होतीं, तो शायद ओम बिरला के तेवर पहले जैसे ही रहते। लेकिन मौजूदा स्थिति में भाजपा और एनडीए की सरकार विपक्ष को पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। सहयोगी दलों का दबाव और विपक्ष की बढ़ी हुई संख्या ने सदन के माहौल को संतुलित बना दिया है।
लोकतंत्र के लिए क्या मायने?
लोकसभा अध्यक्ष का बदलता तेवर लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से सकारात्मक संकेत माना जा सकता है। सदन का संचालन केवल अनुशासन पर नहीं, बल्कि संवाद और सहमति पर भी टिका होता है। विपक्ष की आवाज़ को कुचलने के बजाय सुना जाना चाहिए, क्योंकि वही स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।
ओम बिरला के तेवरों में आया यह बदलाव केवल उनके व्यक्तिगत रुख का परिणाम नहीं है, बल्कि बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति का आईना है। संसद की कार्यवाही में अब ज्यादा संयम और धैर्य देखने को मिल रहा है। यह बदलाव स्थायी रहेगा या परिस्थितियों के अनुसार फिर सख्ती लौटेगी, यह भविष्य बताएगा। लेकिन फिलहाल इतना तो तय है कि 2024 के बाद लोकसभा की तस्वीर बदल चुकी है और उसमें लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका भी नई दिशा में आगे बढ़ रही है।