चैतन्य नागर, स्वतंत्र पत्रकार
सभी धर्मों में गुरु का महिमामंडन करने की होड़ लगी रहती है। लगभग हर धर्म यह कहता है कि गुरु, मसीहा, पैगंबर, अवतार वगैरह में आस्था रख कर या उनकी भक्ति करके एक ‘साधारण’ व्यक्ति सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुंच सकता है। सनातन धर्मानुयायी गुरु को कहीं-कहीं ईश्वर से भी ऊंचा दर्जा देते हैं, तो ईसाइयत भी यह मानती है कि उसके संस्थापक में पूरा भरोसा हो तो ‘प्रभु के राज्य’ में स्थान सुरक्षित है। और तो और, कबीर जैसे बागी रहस्यवादी ने भी अपने एक दोहे में गुरु को गोविंद से भी बड़ा बता दिया।
आप टीवी जब भी ऑन करें तथाकथित धर्मों से जुड़े करीब दो दर्जन चैनल सक्रिय मिलेंगे। कई धर्मों, सिद्धांतों, मतों, विचारों, संप्रदायों के विभिन्न रंग-रूप और भाव-भंगिमाओं वाले न जाने कितने गुरु चौबीसों घंटे अपना ज्ञान फेंटते हुए दिख जाएंगे। समृद्धि, शांति, मुनाफे के लिए ढेरों नुस्खे लगातार उनकी वार्ताओं में प्रवाहित होते रहते हैं। कोई यदि इन सभी गुरुओं की बातों को गंभीरता से ले ले, तो उसके मन में शंका, उलझनों और प्रश्नों का जो बवंडर उठेगा, उसे संभाल पाना मुश्किल हो जाएगा। स्पष्ट कर दें कि यहां किसी विशेष संप्रदाय, धर्म या मत से जुड़े किसी गुरु या अनुयायी के बारे टिप्पणी नहीं की जा रही है। सिर्फ तथाकथित आध्यात्मिकता के वर्तमान स्वरूप और उससे जुड़े लोगों की मानसिकता के बारे में सवाल किए जा रहे हैं।
इन गुरुओं की इतनी अधिक लोकप्रियता और ताकत हैं कि किसी दैवीय शक्ति के इन स्वघोषित प्रतिनिधियों पर उंगली उठाना ईशनिंदा से रत्ती भर भी कम नहीं समझा जाता। ऐसे में ‘शैतान का वकील’ बन कर गुरुओं की आलोचना करना, उनकी महानता पर प्रश्न उठाना किसी बर्रे के छत्ते में हाथ डालने जैसा ही है। बहरहाल, एक स्वस्थ सामाजिक और सांस्कृतिक लोकतंत्र में नास्तिकों, गुरु-विरोधियों लिए भी एक तो स्पेस होनी ही चाहिए।
भारत की आध्यात्मिक परंपरा में अक्सर दाढ़ी की लंबाई, लंबे चोंगे या अपर्याप्त वस्त्रों के साथ गुरुओं के ज्ञान की गहराई का संबंध जोडक़र देखा जाता है। लंबे बेतरतीब बाल भी किसी आध्यात्मिक बाबा के ‘पहुंचे’ हुए होने लक्षणों में शामिल होते हैं। दाढ़ी मानो एक घोंसला है जिसमे गहन पराभौतिक ज्ञान की चिड़िया अपना घर बना कर रहती है। कुछ संप्रदायों और धर्मों ने चेहरे पर और सर पर उगे बालों से पूर्ण मुक्ति को भी ज्ञान का सर्वोच्च प्रतीक मान रखा है- यानी कि या तो बाल-बाल ही रहें, या बाल की खाल भी न बची रहे। कुल मिलाकर बाकी लोगों से अलग दिखना, सजने-संवरने जैसी तुच्छ चीजों से दूर रहने पर जोर देना ही इसका उद्देश्य होगा। पर अपनी देह के श्रृंगार को अनदेखा करने वाले गुरुओं में अक्सर स्त्री देह के प्रति एक रुग्ण आकर्षण की प्रवित्ति भी देखी जाती है! उनके चेलों को यह सब गुरुओं की लीला की तरह ही दिखाई देती है। जेल की ऊंची चारदीवारों की बाहर भी वे मत्था टेकने के लिए पहुंच जाते हैं। गुरु भ्रष्ट नहीं हो सकता। वह निष्पाप, निष्कलंक है। यह गहरा विश्वास है।
ज्ञान के लिए किसी गुरु की शरण में जाना ही होगा, यह बात भी भारतीय सामूहिक चेतना में बहुत गहराई तक बैठी हुई है। कई प्रश्न उठते हैं: गुरु और शिष्य के बीच इस विराट विभाजन और दूरी का आधार क्या है? शास्त्रों का ज्ञान? अतीन्द्रिय ताकत? चमत्कार? शास्त्रों की व्याख्या करके कोई व्यक्ति गुरु बन सकता है? हम कैसे पता करते हैं कि कोई व्यक्ति गुरु है? उसके अनुयायियों की संख्या के आधार पर या फिर इस उम्मीद से कि उसके पास सत्य की कुंजी है? यदि हम जानते हैं कि किसी व्यक्ति के पास सत्य है तो फिर इसका अर्थ यह हुआ कि हमको भी पता है कि सत्य क्या है। और जब हम यह जानते ही हैं कि सत्य क्या है तो फिर किसी गुरु शरण में जाने की जरूरत ही क्या है! पर ये तो हुई तर्क की बातें; हकीकत में तो जहां आई भक्ति, वहीं गायब हुई सोचने की शक्ति!
सच्चे आध्यात्मिक जीवन में गुरु से अधिक ऐसे मित्र की आवश्यकता पड़ती है जो जीवन के बुनियादी प्रश्नों की तह तक ज्यादा उर्जा और गंभीरता के साथ गया हो। वही होगा असली कल्याण मित्र। वह विनम्र और स्नेहपूर्ण होगा; गुरु बनकर आपके सिर पर सवार नहीं हो जाएगा। यदि वह खुद उन अवस्थाओं से मुक्त है, जिससे आप अभी पीड़ित हैं, तो करुणा और स्नेह में डूब कर आपके साथ संवाद करेगा। वह आपको अपना अनुयायी नहीं बनाएगा। गौतम बुद्ध की एक बात याद आती है, ‘मेरी बातें चांद की ओर इशारा करने वाली एक अंगुली की तरह है। आप मेरी अंगुली को चांद न समझ लें।’ बुद्ध एक सच्चे कल्याण मित्र थे जिन्होंने स्वयं को गुरु कहने से इनकार किया था और सभी को अपनी रोशनी खुद बनने की सलाह देते थे। उन्होंने यह भी कहा कि जिस प्रकार कोई सुनार सोने को घिसकर, परखकर उसकी शुद्धता के बारे में निर्णय लेता है उसी तरह मेरी शिक्षाओं को पहले परख लो तब अपनाओ।
गुरु की पूजा का मामला भी दिलचस्प है। मान भी लिया जाए कि किसी ने जीवन की गुत्थियां सुलझा ली हैं और मानवीय अवस्था से परे जा चुका है, तो भी क्या आप उसकी पूजा करके कुछ समझ पाएंगे? क्या आइन्स्टाइन की पूजा करके सापेक्षता के सिद्धांत को समझा जा सकता है या विराट कोहली और मेसी की पूजा करके अच्छा क्रिकेट और फुटबॉल खेलने के गुर सीखे जा सकते हैं? बिलकुल भी नहीं।
सच्ची आध्यात्मिकता का आधार है एक स्वस्थ, संकोच भरा, विनम्र संवाद। योग वशिष्ठ, अष्टावक्र गीता, भगवत गीता एक स्तर पर संवाद ही हैं, जिनमें दो लोग अपने-अपने विचारों, प्रश्नों, अंतर्दृष्टियों को आपस में साझा करते हैं। राम एवं वशिष्ठ, जनक और अष्टावक्र, कृष्ण और अर्जुन से संबंधित ये ग्रंथ आध्यात्मिक और जीवन के साथ गहराई से जुड़े हुए गंभीर संवादों का परिणाम है। धर्म का एक गहरा अर्थ है आत्मज्ञान। आजकल अपनी भावनाओं, विचारों एवं परेशानियों को समझने के लिए किसी आध्यात्मिक गुरु, मैनेजमेंट गुरु एवं मनोचिकित्सकों से मशविरा करना फैशन बन चुका है। अध्यात्म और आत्मज्ञान के क्षेत्र में किसी गुरु या विशेषज्ञ की सत्ता मान लेने, उनके अनुयायी बनने, उनके नाम पर संगठनों का निर्माण करने और कई तरह के धार्मिक सर्कस आयोजित करने के प्रवृत्ति के बारे में लगातार सवाल उठाने चाहिए। स्वयं को या ईश्वर, यदि ऐसी कोई सत्ता है, को जानने के लिए हमें तथाकथित गुरुओं और विशेषज्ञों की भीड़ की जरूरत क्यों पड़ती है? इस प्रवृत्ति का शोषण करने के लिए कई बिचौलिए जन्म ले लेते हैं और ऐसा बस इसलिए क्योंकि हम खुद को समझने की कोशिश करने की बजाए किसी आसान, बने-बनाये शॉर्टकट में ज्यादा रुचि रखते हैं।
शैक्षिक विषय, खेलकूद या संगीत आदि क्षेत्रों में तो किसी शिक्षक, ट्रेनर, मार्गदर्शक की जरूरत समझ में आती है, किंतु स्वयं खुद के बारे में कोई दूसरा कुछ बताए, यह समझ में आने वाली बात नहीं। आपके गुरु का ज्ञान आपको संप्रेषित हो भी जाए, तो उससे मोक्ष नहीं मिलने को। मनोविज्ञान की कोई किताब हमारी भावनाओं और विचारों की चीर-फाड़ करके हमारी मेज पर रख सकती है, लेकिन हमें उनसे मुक्त नहीं कर सकती। आध्यात्मिक गुरु के पास अधिक से अधिक ज्ञान ही तो होता है। आपने गौर किया होगा कि आजकल एक और किस्म के गुरुओं की फसल तैयार हो रही है। ये अंग्रेजी बोलते हैं। उन्होंने आईआईटी और आईआईएम से पढाई की होती है, सिविल सर्विस से इस्तीफा दे चुके होते हैं और ‘संसारिकता से ऊब कर’ संन्यास की शरण पकड़ लेते हैं। ये परंपरागत, हिन्दीभाषी गुरुओं के अंग्रेजी, चमकती जिल्द वाले संस्करण हैं।
गुरुओं की तादाद बढ़ती जा रही है और साथ ही व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर आदमी का दुःख भी बढ़ता जा रहा है। इस दुःख का कारण और निदान दोनों ही हमारे भीतर ही कहीं है। बौद्धिक अकर्मण्यता और मानसिक आलस्य हमें खुद की समस्या को समझने और उन पर काम करने से रोकता है। ऐसे में गुरु सरीखा कोई छलिया झूठे दिलासे देकर हमें बहला देता है, पर वह हमारा उपकार कम और अपना ज्यादा करता है।
गालिब का एक शेर बहुत ही मौजूं है। ‘इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे दुःख की दवा करे कोई’। मिर्जा कहते हैं कि होगा कोई मरियम का बेटा, जब तक मेरा दुःख दूर नहीं हुआ तो मैं क्या करूं उसका। विशेषज्ञों, तथाकथित अवतारों और गुरुओं के पीछे भागने वालों को इस शेर का मतलब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
Bahut sundar 🌟
शानदार!! नागर जी को पढ़ के लगा , कि मेरी गुरु की खोज को विराम लगा. जय हो!
आपकी बात से सहमति। जय जय।