फोटो: लोकसभा चुनाव 2024 में राजस्थान के भरतपुर से चुनी गई संजना जाटव सबसे छोटी उम्र की सांसद हैं। वे महज 25 साल की हैं। संजना ने युवा सांसद रहे राजस्थान के ही सचिन पायलट का रिकॉर्ड भी तोड़ा है।
जे.पी.सिंह, वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के विशेषज्ञ
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आ चुके हैं और इसी के साथ संसद में बैठने वाले 543 सांसदों की तस्वीर भी साफ हो गई है। इन चुनावों में भारत की आधी आबादी यानी महिलाओं की उम्मीदवारी भी अब तक की सबसे बड़ी भागीदारी थी। ये पहला ऐसा मौका था, जब सबसे ज्यादा 797 महिला प्रत्याशी मैदान पर थीं! हालांकि सिर्फ 75 महिलाएं ही चुनाव जीत सकीं, जो पिछले 2019 लोकसभा चुनाव से तीन कम हैं। तब 78 महिलाएं संसद पहुंची थीं। चुनाव के नतीज़ों पर गौर करें तो इस बार देश के 8 राज्यों केरल, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुर, मेघालय, नगालैंड, मिजोरम और सिक्किम से एक भी महिला प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सकी है! वहीं, पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 10 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को जीत मिली है।
इस बार राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टियों की बात करें, तो 2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 16 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था, वहीं कांग्रेस की ओर से 13 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं। आम आदमी पार्टी ने किसी भी महिला उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा था। चुनाव नतीज़ों में भाजपा की 69 महिला उम्मीदवारों में से 31 ने जीत हासिल की। वहीं कांग्रेस की 41 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें से 13 को जीत मिली। वहीं अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की 12 महिला उम्मीदवारों में से 10 ने जीत हासिल की। समाजवादी पार्टी की ओर से 5 महिलाएं इस बार संसाद चुनी गई हैं।
आरक्षित सीटों की बात करें, तो इस बार कुल 131 आरक्षित सीटों में से 18 पर महिला उम्मीदवार चुनी गई हैं। इसमें अनुसूचित जाति (एससी) समुदायों के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 13 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं ने जीत हासिल की, जबकि 47 अनुसूचित जनजाति (एसटी) आरक्षित सीटों में से 15 प्रतिशत सीटें महिला उम्मीदवारों के खाते में गईं। लोकसभा 2024 के चुनाव में 74 महिला सांसद चुनी गयी है, जो 1952 में भारत के पहले चुनावों की तुलना में 52 अधिक हैं। ये 74 महिलाएं निचले सदन की निर्वाचित शक्ति का सिर्फ 13.63 प्रतिशत हिस्सा बनाती हैं, जो अगले परिसीमन अभ्यास के बाद महिलाओं के लिए आरक्षित 33प्रतिशत से बहुत कम है। 1952 में निचले सदन में महिलाओं की संख्या सिर्फ़ 4.41 प्रतिशत थी। एक दशक बाद हुए चुनाव में यह संख्या बढ़कर 6 प्रतिशत से ज़्यादा हो गई, लेकिन 1971 में भारत की पहली और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में फिर से 4 प्रतिशत से नीचे आ गई। तब से, महिलाओं के प्रतिनिधित्व में धीमी, लेकिन स्थिर वृद्धि हुई है (कुछ अपवादों के साथ), जो 2009 में 10 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर गई और 2019 में 14.36 प्रतिशत पर पहुंच गई।
इस मामले में भारत अभी भी कई देशों से पीछे है – दक्षिण अफ्रीका में 46प्रतिशत सांसद, यूनाईटेड किंगडम में 35प्रतिशत और अमेरिका में 29प्रतिशत महिलाएं हैं। 2024 में, महिला लोकसभा सांसद 14 पार्टियों से चुनी गई हैं। 31 महिला सांसदों के साथ भाजपा इस सूची में सबसे आगे है, उसके बाद कांग्रेस (13), टीएमसी (11), एसपी (5), डीएमके (3), और चिराग पासवान के नेतृत्व वाली एलजेपीआरवी और जेडी (यू) दोनों में से दो-दो हैं। सात पार्टियों में से प्रत्येक में एक महिला सांसद हैं। लोकसभा में दोहरे अंकों वाली महिला सांसदों वाली 3 पार्टियों में टीएमसी का अनुपात सबसे अधिक (37.93 प्रतिशत) है, उसके बाद कांग्रेस (13.13 प्रतिशत) और भाजपा (12.92 प्रतिशत) हैं। निर्वाचित 74 महिला सांसदों में से 43 पहली बार सांसद बनी हैं। इनमें एक राजद की मीसा भारती भी शामिल हैं। यह सदन में नए लोगों के कुल प्रतिशत (59 प्रतिशत बनाम 52 प्रतिशत) से अधिक है। महिला सांसदों के पास केवल 0.76 लोकसभा कार्यकाल का अनुभव है। महिला सांसदों की औसत आयु 50 वर्ष है। सदन की कुल आयु 56 वर्ष है। वे अपने पुरुष समकक्षों के बराबर शिक्षित हैं, जिनमें से 78 प्रतिशत ने स्नातक की पढ़ाई पूरी की है।
2024 के लोकसभा चुनाव में खड़े हुए कुल 8,360 उम्मीदवारों में से लगभग 10 प्रतिशत महिलाएं थीं। समय के साथ यह संख्या भी बढ़ी है – 1957 में यह 3 प्रतिशत थी। यह पहली बार है जब महिला उम्मीदवारों का अनुपात 10 प्रतिशत तक पहुंच गया है। भाजपा के लगभग 16 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं, जबकि कांग्रेस से 13 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं – दोनों ही कुल औसत से ज्यादा हैं। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी समय में संसद में नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित किया था। इसके अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों पर आरक्षण का प्रावधान है। हालांकि ये कब से लागू होगा इसकी अभी कोई ठोस जानकारी नहीं है। ये हमारे समाज की विडंबना ही है कि आधी आबादी को राजनीतिक पार्टियां चुनाव में उम्मीदवार बनाने से कतराती हैं। कई जगह दिग्गजों के खिलाफ सिर्फ नाम के लिए उन्हें खड़ा कर दिया जाता है। पार्टियां महिलाओं को लेकर तमाम वादे तो करती हैं, लेकिन जब अमल की बात आती है तो इससे कोसों दूर नजर आती हैं।
भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कई वर्षों से कम रहा है। भारतीय आबादी का लगभग आधा हिस्सा होने के बावजूद महिलाओं को सरकारी पदों और निर्णय लेने वाली भूमिकाओं में कम प्रतिनिधित्व दिया गया है। राजनीति के विभिन्न स्तरों पर असमानता स्पष्ट है। हालांकि, हाल के वर्षों में, भारत में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आंदोलन जारी है। भारतीय राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कमी का एक प्रमुख कारण पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में गहराई से समाया हुआ है। इसने एक धारणा को जन्म दिया है कि राजनीति एक “पुरुषों का काम” है और महिलाएँ नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, महिलाओं से अक्सर घर की देखभाल और बच्चों की परवरिश जैसी अपनी पारंपरिक भूमिकाओं पर ध्यान केंद्रित करने की अपेक्षा की जाती है, जिससे उनके लिए राजनीतिक करियर बनाने के लिए बहुत कम जगह बचती है। महिलाओं के सामने एक और महत्वपूर्ण बाधा वित्तीय संसाधनों तक पहुंच की कमी है। महिला उम्मीदवारों के लिए अभियान वित्तपोषण अक्सर एक बड़ा मुद्दा होता है, क्योंकि उन्हें अक्सर पुरुषों के समान वित्तपोषण के अवसर नहीं मिल पाते हैं। इससे उनके लिए प्रभावी अभियान शुरू करना और चुनाव जीतना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा, भारत में महिला राजनेताओं को चुनाव प्रचार के दौरान अक्सर उत्पीड़न और हिंसा का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने से हतोत्साहित कर सकता है। पारंपरिक पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ राजनीतिक आकांक्षाओं को संतुलित करने की चुनौतियां भी महिलाओं के लिए राजनीतिक परिदृश्य को नेविगेट करना कठिन बनाती हैं।
भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की यात्रा लंबी और जटिल रही है, जिसमें प्रगति और असफलता दोनों ही शामिल हैं। ऐतिहासिक रूप से, भारत में महिलाओं को राजनीति में कम प्रतिनिधित्व दिया गया है और उन्हें राजनीतिक भागीदारी में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ा है। इसका कारण सामाजिक दृष्टिकोण, भेदभाव और संसाधनों तक पहुंच की कमी हो सकती है। हालांकि, हाल के वर्षों में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के महत्व को मान्यता मिली है और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के प्रयास किए गए हैं। भारत में, 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन के तहत पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया है। ये संशोधन 1992 में पारित किए गए थे और इनका उद्देश्य स्थानीय सरकार को सशक्त बनाना और महिलाओं को उनके समुदायों के शासन में अधिक अधिकार देना था। 73 वें संविधान संशोधन के तहत, पंचायतों (ग्राम परिषदों) को गांव, मध्यवर्ती और जिला स्तर पर महिलाओं के लिए सभी सीटों में से एक तिहाई सीटें आरक्षित करनी होती हैं। इसका मतलब है कि प्रत्येक पंचायत में कुल सीटों की कम से कम एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं और इन सीटों पर केवल महिला उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकती हैं।
इसी तरह, 74 वें संविधान संशोधन के तहत नगर पालिकाओं (नगर परिषदों) को भी वार्ड स्तर पर महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करनी होंगी। इसका मतलब है कि प्रत्येक नगर पालिका में कुल सीटों में से कम से कम एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं और इन सीटों पर केवल महिला उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकती हैं। इन आरक्षणों का उद्देश्य स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना और यह सुनिश्चित करना है कि महिलाओं की आवाज सुनी जाए और उनकी जरूरतों को ध्यान में रखा जाए। गौरतलब है कि संवैधानिक प्रावधान के बावजूद, कुछ राज्यों में व्यवहार में आरक्षण का कार्यान्वयन अपर्याप्त रहा है। महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बीच सीटों के आरक्षण में असमानताएं हैं। इसके अलावा, राजनीतिक वंशवाद और राजनीतिक और नागरिक मुद्दों के बारे में जानकारी की कमी की रिपोर्टें मिली हैं जो आरक्षित सीटों के प्रभावी प्रतिनिधित्व को प्रभावित करती हैं। हालांकि, ऐसे उदाहरण भी हैं जहां महिला प्रतिनिधि अब अपनी पंचायतों और नगर पालिकाओं में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं और उनकी भागीदारी से उनके गांवों और कस्बों का विकास हुआ है।
भारत में कई चुनावी कानून हैं जिनका उद्देश्य राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना और सरकार में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। इनमें से कुछ प्रमुख कानून इस प्रकार हैं:
महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण: 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन में पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। इन आरक्षणों का उद्देश्य स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना और यह सुनिश्चित करना है कि महिलाओं की आवाज सुनी जाए और उनकी जरूरतों को ध्यान में रखा जाए।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951: इस अधिनियम में चुनावों के निष्पक्ष संचालन को सुनिश्चित करने के प्रावधान हैं और इसमें राजनीति में महिलाओं की भागीदारी से संबंधित प्रावधान भी हैं। इसमें लोकसभा और राज्यसभा (भारत की संसद के दो सदन) के साथ-साथ राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के प्रावधान हैं। धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध अधिनियम, 1955 का उद्देश्य चुनावों के दौरान महिला उम्मीदवारों के खिलाफ भेदभाव को रोकना है। इन सकारात्मक विकासों के बावजूद, भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को पुरुषों के बराबर लाने में अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।
महिलाओं को अभी भी राजनीतिक भागीदारी में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे भेदभाव, हिंसा, दैहिक शोषण और संसाधनों तक पहुंच की कमी। इसके अतिरिक्त, इन कानूनों और पहलों का कार्यान्वयन अक्सर अपर्याप्त होता है, और सामाजिक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह महिलाओं को राजनीति और नेतृत्व की भूमिकाओं में प्रवेश करने से हतोत्साहित करते रहते हैं। महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत का खराब रिकॉर्ड विश्व आर्थिक मंच के वैश्विक लैंगिक अंतर सूचकांक 2021 से स्पष्ट रूप से उजागर होता है, जहां यह 156 देशों में 28 पायदान नीचे खिसककर 140 वें स्थान पर आ गया है। भारत दक्षिण एशिया में तीसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है, जो केवल पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान से आगे है, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और भूटान से पीछे है। सबसे बड़ी गिरावट राजनीतिक सशक्तिकरण उप-सूचकांक में है, जहां भारत पिछले साल के 18 वें स्थान से गिरकर 51 वें स्थान पर आ गया है।
यह विफलता राजनीति से आगे बढ़कर समुदाय के दृष्टिकोण तक भी जाती है। पितृसत्तात्मक मानसिकता अभी भी स्पष्ट है, और उदाहरण के लिए, राजनीति में महिलाओं के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां सोशल मीडिया पर आम हैं। पिछले साल प्रकाशित एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में महिला राजनेताओं को ट्विटर पर किस तरह के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। चुनाव लड़ने वाली महिलाओं पर अक्सर लैंगिक भेदभाव वाली टिप्पणियाँ की जाती हैं, चाहे वे उनके रूप-रंग, पहनावे या अनुभव के बारे में हों। इसके अलावा राजनीति में आने वाली महिलाओं को अक्सर यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है।