एक सवाल: सिस्टम अपग्रेड करने का क्या फायदा जब न कर्मचारियों में कौशल न यात्रियों में सलीका
भारतीय रेलवे की अपनी गाथा है। अपनी कथा और अपनी व्यथा। रेलवे का अपना समाज शास्त्र, अपनी राजनीति, अपनी आर्थिकी और अपना मुहावरा भी है। समय के साथ रेलवे का चेहरा ही नहीं बदला मोहरा भी बदला है।
हमारे सार्वजनिक परिवहन को सहज, सुगम और फुर्तिला बनाने वाली भारतीय रेलवे 171 बरस की हो गई है। 16 अप्रैल, 1853 की देश में पहली ट्रेन तत्कालीन बंबई के बोरीबंदर से ठाणे के बीच चली थी। इस ट्रेन को 34 किमी का सफर तय करने में एक घंटा 15 मिनट लगे थे। मगर अब तो रेलवे के पास उपलब्धियों का भंडार है। छुक-छुक करती गाड़ी की जगह 160 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ती वंदेभारत और गतिमान एक्सप्रेस ने ले ली है। भारतीय रेल दुनिया का 8 वां सबसे बड़ी नियोक्ता और दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेलवे सेवा है। हमारी रेलगाडि़यां रोजाना करीब ढ़ाई करोड़ यात्रियों और 33 लाख टन माल ढोती है।
बीते कुछ सालों में रेलवे का चेहरा-मोहरा बदलने पर अरबों खर्च हुए हैं। रेलवे स्टेशन वर्ल्ड क्लास बनाए गए हैं। भारतीय रेल में बायो टॉयलेट स्थापित किए गए हैं। नई लाइन बिछाने के साथ ही यात्री सुविधाओं को बढ़ाने पर ध्यान दिया गया है। निजीकरण इसके ढांचे को बदल रहा है। यह तो रेलवे की गाथा है लेकिन उपलब्धियों की इस कथा के पीछे अकथ व्यथा भी है। दशकों से शिकायत है कि रेलगाड़ी समय पर चला करें लेकिन बुलेट ट्रेन के युग में रेंग कर चलती गाडि़यां यात्रियों की कठिन परीक्षा लेती है। ड्रेसकोड भले तय हो गया लेकिन रेल कर्मचारियों का बर्ताव एकतरफा संवाद वाले ऑटोमेटेड सिस्टम की तरह बन कर रह गया है जहां हर समस्या का एक ही तय जवाब है। सामान्य तो ठीक प्रीमियम ट्रेनों में भी खाने की शिकायत आम हैं। बारकोड से बेडरोल देने की व्यवस्था की जा चुकी है लेकिन शिकायतें जस की तस हैं। एक ट्वीट पर सुनवाई करने वाले रेलवे का इंक्वायरी सिस्टम ट्रेन आवाजाही की सटीक जानकारी नहीं दे पाता।
यह सब तो एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है यात्रियों का। सलीकेदार सहयात्री मिल जाएं तो यात्रा सुखद है वरना एसी का पहला दर्जा भी भयावह अनुभवों का गवाह बन जाता है। वेंडरों का शोर, यात्रियों के मोबाइल फोन के स्पीकर ऐसा कानफोड़ू माहौल बनाते हैं कि शांतिप्रिय यात्री की कोफ्त चरम पर पहुंच जाती है। यहां वहां फेंका गया कचरा, सीट छोड़ देने का बेजा आग्रह, जोर-जोर से बात करना, बच्चों की हुडदंग, समूह में यात्रा कर रहे यात्रियों का अराजब व्यवहार… जाने ऐसी कितनी बातें है जो एक सरल यात्रा को जटिल बना देते हैं।
यह सब जान सुन लगता है कि सिर्फ सिस्टम अपग्रेड कर देने से काम नहीं चलेगा। व्यवस्था का ढांचा भी बदलना होगा और हमारी आदतों, व्यवहार का तानाबाना भी बदलना होगा। बतौर यात्री जरा अधिक सलीकेदार होना होगा।
आइए, बतौर नागरिक हम एक पहल करें। एक चर्चा की शुरुआत करें। रेलयात्रा की अपनी कथा-व्यथा को साझा करें। शायद हमारी बात कुछ कानों तक पहुंचे और जिस बदलाव की हम बात कर रहे हैं वह संभव हो सके। इस विमर्श की शुरुआत ऐसी ही एक व्यथा कथा से। आप अपने अनुभव, प्रतिक्रिया और राय हमसे साझा कर सकते हैं। हमारा ठिकाना: editor.talkthrough@gmail.com
बाहर बरसाती पानी और अंदर वेंडर्स के जयकारों की गूंज
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
मुंबई की बरसात से सब वाकिफ हैं और मेरी किस्मत से मैं। अपने पोस्ट सर्जरी जांच के लिए मुंबई जाना हुआ। 8 जुलाई 2024 को सुबह 10 बजे का अपॉइंटमेंट था। 7 जुलाई की शाम की पंजाब मेल करीब डेढ घंटे विलंब से भोपाल पधारीं। मैंने सोचा अहो भाग्य। रात शांति से गुजरी सिवाय इस परम सौभाग्य के कि रेलगाड़ी की पेंट्री कार्मिक घनघोर कर्मठ थे। सो प्रत्येक ढ़ाई मिनट में कॉरिडोर से उनकी रेलगाड़ी चाय-चाय; गरम समोसा; खाना-खाना; वेज बिरयानी; चिप्स बिसकिट; मैग्गी नूडल्स; पानी-पानी आदि के गगन भेदी नारे लगाते गुजरती रही। ये सिलसिला सारी रात चला।
वाशरूम्स परंपरागत रूप से गीले; गंध एवं इस्तेमाल किए हुए टिश्यू युक्त थे। कमोड सीट वाली wall पर संभवतः कोई चुम्बक लगा था जिससे वह कम्बख्त नीचे नहीं टिकती जब भी नीचे को लाओ वह स्वतः वापस दीवार से जा लगती…।
रात भर ट्रेन बाहर से बरसाती पानी और अंदर से वेंडर्स के जयकारों से गूंजती रही। भोरे-भोरे मैनाओं के चहचहाने, प्लेटफार्म पर दूसरे दल द्वारा लगाए जा रहे चाय-चाय, वडा-पाव, इगतपुरी की स्पेशल कॉफी के नारों और पब्लिक एड्रेस सिस्टम की लयबद्ध घोषणाओं से नींद खुली।
हम इगतपुरी पर खड़े थे जो इस ट्रेन का स्टॉपेज नहीं है। समय सुबह के 6 बजे। अंदाजा लगाया गया कि ट्रेन अब लगभग 4 घंटे लेट हो चुकी है। पता नहीं, किस बैरी बालमा के इंतजार में, अथवा लंबे सफर की थकान उतारने हेतु हमारी गाड़ी को स्पेशली 1 घंटे का विश्राम दिया गया।
मैंने अपनी मैथ की सीमित समझ के बावजूद ये अनुमान लगा लिया कि हम 12.30 बजे के पहले मुंबई न पहुंचने वाले हैं। अब सुबह 7 बजे तो मैं क्लिनिक पर क्या ही फोन लगाता (ताकि अपने लेट होने की जानकारी दे सकूं और सर्जन के दर्शन को सुनिश्चित करूं), इसलिए एक वडा पाव और इगतपुरी की स्पेशल कॉफी उदरस्थ कर, मैं सह-यात्रियों के साथ मिल कर भारतीय रेल को कोसने के समूह गान में शामिल हो गया।
आखिर ट्रेन मैं बैठे सहस्रो आत्माओं की संयुक्त कोसना काम आई और पंजाब मेल आगे खिसकी। ट्रेन का चलना था कि सभी का मूड खुशनुमा हो गया।
हम ज्यादा देर रंजिश नहीं पालते, कुछ गलत होने पर एडहॉक बेसिस पर हम उग्र और क्रांतिकारी हो जाते हैं और जैसे ही वह घड़ी टली, हम सोचते हैं कि कुछ गलत हुआ ही नहीं था, या बच्चे हैं, गलती करते हैं। लोग पुनः अपने अपने मोबाइल्स पर अपनी पसंद की फिल्में, राजनीतिक एनिमेटेड बहसें और इंटरनेट जोक्स सुनने मैं व्यस्त हो गए। ईयर फोन सबके पास थे पर हम संभवतः अंदर ये इच्छा पालते हैं कि, जो मैं सुन रहा हूं, और भी सुने। फलतः समाचार, बहसों में चीखते प्रतिभागी, विभिन्न भाषओं कि फिल्मों के संवाद, हरि कि बांसुरी और जय श्री राम वाली कॉलर धुन का एक समवेत सागर कम्पार्टमेंट में हिलोरें मारने लगा।
पर मेरी किस्मत, जो मुझसे 3 गज आगे चलती है, उस से कैसे पार पाता तो ये उमंग-उत्साह ज्यादा ना टिके और ट्रेन फिर एक स्टेशन पर खड़ी हो गई। ‘आसनगांव’ में हमारी थकी हुई गाड़ी को एक और विश्राम दिया गया। गाड़ी थ्रू लाइन पर ठाडी हे गयी। मतलब, हमारी गाड़ी के दोनों तरफ कोई प्लेटफार्म न था। दोनों तरफ से लोकल तथा अन्य गाड़ियों का अनियमित प्रवाह चल रहा था।
इसने एक नई समस्या खड़ी कर दी। यात्रियों (खास कर पुरुष) को, अपनी किशोरावस्था से हर स्टेशन के प्लेटफार्म पर तफरीह करने की; बार-बार सिग्नल की तरफ देखने और अपने परिवार या सह-यात्रियों को सूचित करने की आदत है (यथा, अभी सिंगल नहीं हुआ; राजधानी की क्रासिंग है; बस अगले 10 मिनट में निकलेगी आदि) उसमें गंभीर रुकावट आन पड़ी, क्यूंकि प्लेटफार्म था ही नहीं, जिस पर उतरें और अपने पराक्रम का प्रदर्शन कर सकें।
आदत से मजबूर कुछ वीर बालक तेज बारिश को चीर, रेलवे लाइन टाप कर नज़दीकी प्लेटफॉर्म पर जा पहुंचे और अपने मोबाइल पर मानो रेल मंत्री को निर्देशित करने लगे। डब्बे के अंदर अब वही बेचैनी तारी हो गयी। सवारियों ने अपने अपने मोबाइल्स पर अपनी-अपनी पसंदीदा apps खोलीं और ट्रेन क्यों नहीं चल रही, कब तक चलेगी आदि दीगर समाचारों का प्रसारण शुरू हुआ। इनका पुनः प्रसारण फोन पर निरंतर होता रहा। आखिर घर, मेजबान, दफ्तर, अनन्य मित्रों, पडोसियों आदि को सूचित करना भी, अति-आवश्यक सेवाओं में गिना जाता है। जितने मुंह उतनी बातें। इस कलरव में सब शामिल थे।
पहली- कल तो यहां राजधानी को 6 घंटे रोक के रखा था। आज पता नहीं। उसका फोन बजा। वह बात अधूरी छोड़ व्यस्त हो ली।
पहला- ये गाड़ी तीन घंटा तो पहले ही पिट चुकी है। अब तो सारी on time सुपर-फ़ास्ट गाडि़यों को निकालेंगे। ये तो अब और पिटेगी।
दूसरा- पंजाब मेल भी तो सुपर फास्ट है…
दूसरी- इससे अच्छा तो लोकल पकड़ लो। वो तो लगेज ज्यादा है वर्ना… इस को कब चलाएं क्या पता? ऊपर से ये बारिश।
दिल बैठा जा रहा था क्योंकि डॉक्टर साब अधिकतम 2 बजे तक ही मरीजों को देखते हैं।
अचानक वो ‘पहली’ मेरे पास आई और चहकी, आपके पास रेल-मदद app है? मैने शर्मिंदगी से मना किया।
मेरे पास है, पर नैट नहीं है।
मेरे पास नैट है। साहस जागा। वो वापस हो ली।
ट्रेन को धरने पर बैठे 2 घंटे हो चले थे। अगल-बगल से गुजरती हॉर्न बजाती लोकल और सुपरफास्ट गाडि़यां दिल जलाती गुजर रही थीं। काफी संख्या मै सह-यात्रियों ने सामान–असबाब के साथ प्लेटफार्म के लिए कूच किया।
अब एक नया नजारा बना। प्लेटफार्म पर खड़े शर्णार्थियो में से किसी ने घोषणा की कि पंजाब मेल को सिग्नल मिल गया है। यात्रियों की एक विशाल लहर पटरी पार कर वापस ट्रेन में समा गई। मैंने राहत की सांस ली। थोड़ा उन सब की मूर्खता पर मुस्कराया भी। कुछ पल में ही एक और ट्रेन द्रुत गति से हमें ओवरटेक कर गुजर गई। जो लहर अभी-अभी ट्रेन में समाई थी, वो वापस तट पर जा लगी, और डब्बा फिर खाली हो गया। जाते-जाते ‘पहली’ बोली, अरे आप भी चलिए, लोकल पकडिए। मैं न गया। अपनी किस्मत से चूंकि मैं आधी शताब्दी से वाकिफ हूं, जानता था कि मैं उतरा और पंजाब मेल चली। अब प्लेटफार्म भी खाली था।
रेल विभाग का कोई कर्मचारी सुध लेने ना आया। द्वितीय वातानुकूलित के डब्बे के चारों शौचालय तथा वॉश-बेसिन गंदगी से लबरेज थे। डिब्बे के दोनों सिरों पर used लिनेन के ढेरों पर आसनगांव की मख्खियों ने कब्जा कर लिया था।
मैंने कुछ समय वहां चस्पा ‘कोच अटेंडेंट के कर्त्तव्य’ पढ़ने में बिताया, जो संभवतः किसी बर्थ पर सूत्तल था।
सुबह 7.35 पर पहुचने वाली सुपर फास्ट 2्30 बजे किनारे लगी।
इन सब के बीच भी चाय-चाय, समोसा–गरम समोसा, ब्रेड-आमलेट, और ताजा –फ्रेश– वडा पाव के नारे बदस्तूर जारी रहे।
जारी…
स्वागत 👏👏
यह एक बहुत अच्छी पहल है , व्यवस्था को बेहतर बनाने की एक कोशिश है और साथ साथ एक नागरिक का कर्तव्य बोध जगाने की कोशिश भी ।
मनीष जी को शुभकामनाएँ -लिखते रहें ।
Talk through के संपादक को साधुवाद 🙏
Thanks for triggering. Thanks for your kind remarks.
आपने सही कहा। हम रेलवे या किसी भी संस्था से शिकायत तो करते हैं लेकिन अपनी ओर नहीं देखते हैं। नागरिक बोध जगाया जाना चाहिए। ऐसी कोशिशें कामयाब हों।