प्रीति राघव
आज से कई दशकों पहले मैनपुरी में साल में चार-चार मेले लगा करते थे ठाकुर जैत सिंह जी और ठाकुर माधव सिंह जी (माधौ) की जमींदारी में। जैतसिंह जी की बिटिया और माधव सिंह जी की बहना हमारी अम्मा मतलब दादी मां थी। समय बीतते के संग लोग भी वैकुंठ चले गए। पीछे जो रह गया वे हैं हृदय की विशाल देग में कहीं छूट गईं इत्र की कुछ छोटी शीशियों की महक और दादी की अतरदानी, गुलाबदानी या केवड़ा दानी जिसे बतौर वसीयत मां ने हमें सौंप दिया है।
उन छूटे गलियारों की महक आज भी मदहोश करती है। उस गैल की चहलकदमी में याद आता है मुझे दादी के पास मेले से आए बंजारों का उत्तरप्रदेश से मध्यप्रदेश तक चले आना, अपनी-अपनी लकड़ी की बनी पेटियां उठाकर। चबूतरे से जोर से चिल्लाना, “जीजी! ओ जीजी।”
ये ओज था या कहूं मन प्रेम जो जमींदारों की बेटी के व्यवहार से बंधे उस क्षेत्र के लोग यूं हक से सुपरीटेंडेंट ऑफ पुलिस की बाई साब से मिलने चले आते थे। कोई अपना चना जोर-गरम का बटलोई और पलिया लिए चला आता तो कोई कुछ और लेकिन कहते सब उन्हें जीजी ही थे।
चबूतरे से चढ़कर आंगन होते हुए सबकी बैठक बरामदे में जमती। सारा घर महक उठता भांति-भांति की खुशबुओं से।
बड़े नाना सा और माधव मामा सा के देहांत के सालों बाद भी वे सभी अपनी जीजीबाई का इतना सम्मान करते थे कि मजाल है कि जीजी के बराबर से भी कभी बैठ जाएं। अम्मा खूब मनुहार करती कि भैया ऊपर सोफे पर या मूढ़े-चारपाई पर बैठ जाओ पर वे टस से मस ना होते। थक हार कर मां उनके लिए दरी या चटाई बिछातीं। दादी आंगन में मूंज की चारपाई पर बैठ जाती थीं और हम सब चिल्लर पार्टी दरी पर उन्हें घेरकर बैठ जाते। उनकी पेटी में बने खांचों में कांच के सुंदर-सुंदर जार, सुराही, बोतलें हमारा लालच थीं। हमारे लिए महक का मतलब तब सिर्फ बंजारों की आमद भर समझ आता था।
वे पीतल की लंबी सलाई पर रुई लपेटते और किसी न किसी सुराही में डुबोकर कान में लगाने सबको लगाने देते। पापा-चाचा वगैरह के मुट्ठी के ऊपर या कलाई पर रगड़कर इत्र पसंद करवाते और मनपसंद खुशबुओं को छोटी खाली शीशियों में भरकर उन्हें रुई से लपेटकर दे जाते। पैसे देने पर भी कभी नहीं लेते थे। तब मैनपुरी की बिटिया उन्हें उपहार स्वरूप पैंट-बुशर्ट का कपड़ा दिया करती, मिठाई के डिब्बे के संग। तब यही चलता था,लट्ठे के थान,दिग्जाम और सियाराम के कटपीस बहुत प्रचलन में थे। घर पर अक्सर दादी इन्हीं किन्हीं कारणों से अच्छी क्वालिटी के कपड़े रखे रहती थीं कि कब औचक ही जरूरत पड़ जाए।
अपनी लंबी यात्रा और इत्र-गुलाबजल आदि देने के बदले ये छोटा सा उपहार और अम्मा और मां के हाथ का गर्मागरम भरपेट भोजन उन सबके लिए कुबेर के खजाने से कम नहीं था। उन्ही में से किसी बंजारे के हाथों कर्णछेदन भी हुआ हम दो बड़ी बहनों का।
सच कहूं तो मैं इत्र की दीवानी उन बचपन की गैलों में से हुई। आज भी लखनऊ जाने पर ‘सुगंधको’ से ढ़ेर सारे इत्र खरीदे जाते हैं या किसी ना किसी से मंगवाए जाते हैं। दादी के चले जाने के बाद उन बंजारों का आना धीरे-धीरे बंद हो गया। मगर वे खुशबुएं और उनके जैसा चना जोर-गरम आज भी उतना ही महकता हुआ और करारा-चटपटा है। कोई बीकानेरवाला, कोई हल्दीराम, कोई कलेवा या जैब्सन उनका मुकाबला कभी कर ही नहीं सकता। अब “जीजी!ओ जिज्जी” यादों में गलियों में अक्सर फेरा करते हैं वे आज भी उतनी ही टनक और खनक से स्वर लगाते हैं, जैसे तब लगाया करते थे।