जो डूबा सो पार…इब्तिदा में ही रेह गए सब यार

चैतन्‍य नागर, स्‍वतंत्र पत्रकार

प्रेम पाने और देने की क्षमता का खत्म हो जाना एक बड़ी मानवीय त्रासदी है, पर इससे भी बड़ी त्रासदी है लोभ के सहारे और भय दिखाकर प्रेम बटोरने की कोशिश। या फिर प्रेम की जगह सम्मान पाने की कोशिश। इस कोशिश में लगे हुए लोग आ ख़िरकार बड़े बड़े ही मायूस, लाचार और उग्र भी हो जाते हैं। प्रेम पाने के ये रास्ते बहुत दूर तक ले ही नहीं जाते। बेहतर यही है कि विनम्रता के साथ घटते हुए प्रेम को देखा जाए, इसे स्वीकार किया जाए उसके कारणों की पड़ताल जाए। उसकी जगह ऐसा कुछ न रखा जाए जो प्रेम है ही नहीं। प्रेम का कोई विकल्प ही नहीं। जहां हंस नहीं, वहां बगुले को हंस मान लेना समझदारी नहीं।

जिसे हम प्रेम कहते हैं उसमें अगिनत पेचीदगियां हैं। प्रेम पाने, प्रेम व्यक्त करने, बांटने की तलब सभी के मन में कुलबुलाती है। यह चाहत बड़ी स्वाभाविक और कुदरती है। कई तरह की विरोधाभासी भावनाओं के गलियारों में ही टहलते मन में भी प्रेम की ख्वाहिश कहीं न कहीं रेंगती रहती है। बच्चों में भी मां-बाप और अपने हमउम्र बच्चों के साथ रहने, उनका स्पर्श पाने, उनके सानिध्य में रहने की प्रवृति देखी जा सकती है। आशिक और माशूका में तो विसाले-यार की ज़बरदस्त चाहत होती है| हर देश का साहित्य प्रेम कविताओं से लबालब भरा पड़ा है। इश्क पर उर्दू शायरी तो मशहूर है। मीर, ग़ालिब, फैज़, से लेकर निदा फ़ाज़ली—किसने नहीं लिखा इसके कहर के बारे में! हर भाषा में कवि ने विरह में जलते-उबलते खून में कलम डुबो-डुबो कर लिखा है। शेक्सपियर, कीट्स, शेली, नेरुदा-सभी ने इसकी धमक में अपनी त्वचा जलाई है। भौतिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आत्मिक, हर स्तर पर महसूस होने वाली भावना है यह। यह हमारे समूची मनोदैहिक संरचना को प्रभावित करती है। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, और मन के इतर यदि कोई स्तर है तो उसे भी-सबकी चूलें हिल जाती है।

कुछ लोग एकतरफा प्रेम की आग में भी जलते हैं और दोपहर की धूप में माशूका के नंगे पांव देख कर ही तृप्त हो जाते हैं। किसी जमाने में बस इतना ही काफी हुआ करता था-प्लेटोनिक लव, जिसमें माशूका के ख्याल भर से ही सुकून मिल जाता था और किसी दिन दीदार हो जाए, तो फिर कहने ही क्या! अब तो सोशल मीडिया ने प्रेम से उसकी रूमानियत ही छीन ली है। रूमानियत तो आवरण और प्रतीक्षा में है। बच्चन जी के शब्दों में ‘प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में’, और फिर बेसब्र अहंकार के साथ ग़ालिब का यह कहना: ‘कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक’! अब तो प्रेमी पल-पल की खबर रखते हैं लोग और प्रेम की स्थूल और सूक्ष्म अभिव्यक्तियों का स्टेट्स सीधे सोशल मीडिया के मंचों पर अपडेट होता रहता है।

प्रेम के बारे में एक और खास बात यह है कि इसमें सिर्फ आनंद की अवस्था ही नहीं बनी रहती। जल्दी ही यह एक लत सरीखा बन जाता है। पहले और अधिक सुख पाने की कामना और फिर उसके न मिलने पर दुःख, गुस्सा और ईर्ष्या पैदा होती है और आखिर में कुंठा, क्रोध, हिंसा और प्रतिशोध का भाव आता है। “आई लव यू” में अंततः ‘आई’ और ‘यू’ ही बचते हैंं, प्रेम इनकी सिर-फुटव्‍वल के बीच धीरे से खिसक लेता है। प्रेम भी एक किस्म के विरह या अलगाव से ही शुरू होता है। विभाजन, अलगाव, दूरी, करीब जाने की तड़प का भाव जितना गहरा होगा, उतनी ही तीव्रता से ‘प्रेम’ का अनुभव होगा।

क्या प्रेम कुदरत की गहरी साजिश है इंसान को भावनात्मक स्तर पर व्यस्त रखने और सृष्टि को चलाने के लिए? सिगमंड फ्रॉयड यह मानते था कि प्रेम यौनेच्छा की ही एक उपशाखा है। तो क्या सेक्स की खुल कर अभिव्यक्ति न हो पाने से, सामाजिक वर्जनाओं के कारण ही रोमांटिक प्रेम का जन्म हुआ है? यह सोच कर तकलीफ होती है कि साहित्य का इतना विराट हिस्सा सिर्फ एक भ्रम की नींव पर खड़ा है। एक और बात गौरतलब है कि बेहतरीन प्रेम कविताएं प्रेम के दौरान नहीं, प्रेम की स्मृति में या उसकी कल्पना में लिखी गई हैं। प्रेम करना, उसे जीना एक पूर्णकालिक कार्य है। उसके बारे में लिखना तो बस स्मृति पर पड़ी उसकी खरोंचों को जीना है।

प्यार पर बुद्धिजीवियों को बहस करते हुए नहीं देखा जाता। दरअसल, अधिक बौद्धिकता इंसान को एक ठूंठ में बदल देती है। प्रेम फिर उसे अ-बौद्धिक लगने लगता है। अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं: इश्क नाज़ुक मिजाज़ है बेहद, अक्ल का बोझ उठा नहीं सकता’। शारीरिक तौर पर दिमाग से दिल की भौतिक दूरी सिर्फ 18 इंच के करीब होती है पर उसे पूरा करने में अक्सर जिंदगी बीत जाया करती है। आदमी का शाब्दिक अर्थ है: आदम की संतति और इंसान का अर्थ है – ऐसा आदमी जिसमें उन्स हो जिसका अर्थ है प्रेम। प्रेम ही आदमी को इंसान में बदल देता है। प्रेम क्या है? कहना बड़ा मुश्किल है। “इब्तिदा में ही रेह गए सब यार, इश्क़ की कौन इन्तिहा लाया”, मीर ने बड़ी नफासत से यह बात कह दी है।

जब हम प्यार करते हैं, तो कुछ समय बाद अपने प्रिय को हल्के में लेने लगते हैं। शुरुआत में तो बड़े सतर्क रहते हैं, जैसे शीशे के टुकड़ों से भरे फर्श पर चल रहे हों। पर समय प्यार का बड़ा दुश्मन होता है। बाद में जिसका पसीना भी गुलाब हुआ करता था, वह बस कोने में पड़ी बासी समोसे की प्लेट बनकर रह जाता है। अक्सर प्यार भीतर तक तृप्त नहीं कर पाता, सतह पर ही अपना खेल करके निकल जाता है| फिर नए प्यार की तलाश शुरू होती है। हल्के में लेने का मतलब यह भी है कि हम अपने प्रिय पर अधिकार जमाने लगते हैं। ढ़ेरों अपेक्षाएं होती हैं उससे। हम यह मानकर चलते हैं कि वह जैसा कल था वैसा आज भी है और कल भी रहेगा। पर किसी जीते जागते इंसान को कब्जे में रखना नामुमकिन है। हमारा सामाजिक ढांचा और संस्थाएं इसी नामुमकिन को मुमकिन बनाने की उम्मीद पर टिके हैं। विवाह की संस्था के चारागाह में पाखंड के मवेशी निर्भीक होकर चरते हैं। ज्‍यादातर प्रेम संबंध भ्रामक छवियों के बीच के रिश्ते बनकर रह जाते हैं। प्यार को कोई भी सामाजिक, कानूनी कमीज फिट नहीं बैठती पर मन यह मान नहीं पाता कि जो आपसे कल प्यार करता था वह अब नहीं करेगा। दरअसल, प्यार तो एक अजनबी, अनाम परिंदे की तरह आता है और उड़ जाता है। फिर कभी भूला-भटका आपकी मुंडेर पर आकर बैठता है। स्थायी प्यार जैसी कोई चीज होती है क्या? यह सवाल भी काबिले गौर है।

प्रेम और ईर्ष्या के संबंध को भी निहारा जाए। जब कोई हमारे प्रिय को हसरत से देख भी ले तो जो जलन होती है, उसे किसी धर्म, दर्शन और साहित्य का ज्ञान ख़त्म नहीं कर सकता। देखते-देखते प्यार का गुलाब जल तेज़ाब में बदल जाता है। पहली मुलाकात का टेडीबेयर एक कटखन्ने चौपाये की तरह नोंचने खसोटने लगता है। क्या प्यार की कठोर शर्तें होती हैं? जैसे ही लिखित या अलिखित समझौता टूटता है, भीतर का घायल, ईर्ष्या में जलता ऑथेलो चिंघाड़ने लगता है। इसी को ग़ालिब ने आग का दरिया कहा होगा! इसमें डूबकर फिर बाहर निकलना प्यार की चुनौती है।

जो भी हो यह तो सच है कि प्रेम का अभाव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है और इसकी सुरभि के बगैर जीवन निरर्थक है। इसे बुद्धि से समझने की ज्‍यादा जरुरत नहीं, अपनी देह में, मांस-मज्जा में महसूस करने की दरकार है। अकबर इलाहाबादी खूब लिखते हैं: ‘बस जान गया मैं तेरी पहचान यही है, तू दिल में तो आता है, समझ में नहीं आता’। प्रेम के बारे में शायद यही कहा जा सकता है। निज़ार कब्बानी भी प्रेम की तलाश में लगे हैं:

प्यार चलता है मेरी त्वचा पर,
तुम चलती रहती हो त्वचा पर मेरी,
और मैं, बारिश से घुली गलियों और फुटपाथों को,
लादे फिरता हूं अपनी पीठ पर,
तुम्हारी तलाश में।

प्रेम जितना भी मिल जाए, मन नहीं भरता और दुष्यंत कुमार अपने खास अंदाज में इस तड़प को व्यक्त करते हैं:

तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा,
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा…

और आखिर में…हिंदी साहित्य में प्रेम का एक लोकप्रिय, शाश्वत सुर छेड़ते हैं केदार नाथ सिंह:

उसका हाथ,
अपने हाथ में लेते हुए
मैंने सोचा
दुनिया को,
हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए।

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