टॉक थ्रू एडिटोरियल डेस्क
आज बरबस ही चांद याद आ रहा है। पूर्णिमा पर चांद पूरे शबाब पर होता है, अपनी 64 कलाओं के साथ। यूं देखें तो चांद केवल एक उपग्रह हैं और भावनात्मक दृष्टिकोण कहता हैं कि चांद हमारा ‘मामा” है। बचपन में परिवार के बाहर अगर किसी से नाता जुड़ता है तो वो चन्दा मामा ही है और युवावस्था में जब किसी से दिल जुड़ता है तो वो भी चांद ही नजर आता है। चांद हमारी कल्पनाओं, साहित्य, फिल्मों, विज्ञान शोध का विषय रहा है और अब तो यहां ख्वाब के आशियाने की जमीन है। शायद ही कोई होगा जिसे ये प्रेम में यह जमीन चांद से बेहतर नजर न आई होगी और माशूक चांद से खूबसूरत न दिखलाई दी होगी। किसी ने इसमें दाग देखे, किसी ने इसे रोटी माना, कोई इसे फतह करने निकला।
शायद ही कोई साहित्यकार होगा जिसने चांद को देख कर कोई रचना न की होगी या लिखने का ख्याल न किया होगा।
साहित्य में चांद कई बिम्ब और रूपों में मुखरित हुआ है। यह प्रेम, बिछोह, मिलन का प्रतीक ही नहीं बल्कि नौ रसों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना है। भले ही चांद साहित्य का सबसे प्राचीन विषय हो लेकिन समकालीन कवियों ने नई कविता में भी चांद पर खूब लिखा है। नई कविता में चांद को लेकर नए और ताजा बिम्ब गढ़े गए हैं।
अशोक वाजपेयी की एक कविता में चांद अलग प्रतीक बन कर आया है-
चांद के तीन टुकड़े हैं
जिनमें से एक मेरे पास है
मेरी आंखो में, मेरे दिल में
और एक तुम्हारे पास है
चांद का एक टुकड़ा और है
जिसे मैं तुमसे बचाकर
किन्हीं और आंखों में
धीरे से खिसकाया करता हूं।
उदयप्रकाश अपनी कविता ‘चंद्रमा” में चांद को काव्यात्मक सबजेक्टिविटी के बजाय वैज्ञानिक तथ्यों के जरिए देखा है। चांद के लिए वे लिखते हैं-
यह रोशनी भी उसकी नहीं सूर्य की है
वह तो है पृथ्वी से छह गुना छोटा मिट्टी का एक अंधा ढेला
चंद्रमा की मिट्टी में नहीं पैदा होता गेहूं
चंद्रमा में नहीं रहते किसान वहां नदियां नहीं बहती
वहां समुद्र का नदियों का ऋतुओं का प्रेम और वीर नायकों का कोई मिथक नहीं।
युवा कवि पवन करण अपनी कविता में चांद को कुछ यूं बयां करते हैं-
इस चांद के बारे में तुम कुछ भी नहीं जानते
एक नंबर का धोखेबाज है
ये एकदम बिगड़ा नवाब इसकी संगत ठीक नहीं
ये तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगा
कहीं भी फंसा देगा
इसका काम ही आवारागर्दी करना है।
चांद के साथ मैं भी आवारगर्दी करने निकल आया था। यूं ही साथ चलते-चलते।