छलावा है जितनी मेहनत उतना कर्मठ कहने का फलसफा

श्रम दिवस: बड़ी लंबी लड़ाई के बाद हासिल हुए हक को याद दिलाने वाला दिन

पूजा सिंह, स्‍वतंत्र पत्रकार

फोटो: बंसीलाल परमार

जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे
सेनाएं हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएंगे। – अज्ञेय

आज मई दिवस है। मई दिवस यानी अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस। वह दिन जो श्रमिकों के अधिकारों से जुड़ा है, उनके काम करने के घंटों से जुड़ा हुआ है। एक दौर था जब श्रमिकों के काम के घंटे तय नहीं थे। पूंजीपति उनसे मनमानी अवधि तक काम करवाते थे और उन्हें मिलने वाले मेहनताने में कोई इजाफा नहीं किया जाता था। हो सकता है उस दौर में भी राष्ट्र निर्माण, देश को मजबूत जैसे जुमलों का सहारा लेकर मजदूरों का शोषण किया जाता रहा हो। मैंने अपने अब तक के अनुभव से यही जाना है कि देश और राष्ट्र की समृद्धि और मजबूती, उसकी सुरक्षा के नाम पर उन लोगों को सबसे आसानी से बरगलाया जा सकता है जो समाज के सबसे निचले पायदान पर मौजूद हैं।

आज हम जो दिन के आठ घंटे काम करते हैं, अतिरिक्त समय में काम करने के लिए ओवरटाइम पाते हैं, रात में काम करने का जो नाइट अलाउंस या रात्रि भत्ता मिलता है, वह किसी दानवीर का किया हुआ दान नहीं है। यह अधिकार है श्रमिकों का जो बड़ी लंबी लड़ाई के बाद हासिल हुआ है। वरना तो दुनिया में दास प्रथा और बंधुआ मजदूरी की प्रथा भी थी जहां व्यक्ति आजीवन गुलाम के रूप में काम करता था।

बचपन में हम सभी ने स्कूल में एक नारा पढ़ा है- ‘आराम हराम है।’ जहां तक मुझे याद आता है यह नारा देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दिया था। ये उस दौर की बात है जब देश नया-नया आजाद हुआ था। देश में बड़े बांध बन रहे थे, नए संस्थान निर्मित हो रहे थे। उस समय उन्होंने लोगों को प्रेरित करने के लिए यह नारा दिया होगा लेकिन यह आगे चलकर एक बार फिर पूंजीपतियों के हाथों का औजार ही बना। हमारे मन में यह धारणा बिठा दी गई कि जो जितनी मेहनत करता है वह उतना ही कर्मठ व्यक्ति है।

जबकि हकीकत यह है कि काम और आराम के संतुलन से ही जीवन सुचारू रूप से चल सकता है। मुझे प्रख्यात कथाकार उदय प्रकाश की बात याद आती है। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था, ‘‘मेरा मानना है कि एक लेखक जो बौद्धिक श्रम करता है, उसे पूरा आराम मिलना चाहिए। एक लेखक अगर अपने लेखन से जीवन गुजार सके तो उसे लिखने और सोने के अलावा कुछ करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘मैं तो कहता हूं कि ‘आराम हराम है’ का नारा जिसने भी दिया है, बहुत गलत दिया है। यह मनुष्य विरोधी नारा है, मजदूर विरोधी नारा है। आपको लगता है कि आप ज्यादा काम करवा कर अधिक उत्पादन कर सकेंगे तो आपको गलत लगता है। अगर व्यक्ति को समुचित आराम नहीं मिलेगा तो वह क्या करेगा? वह काम के बीच ही आराम तलाशने की कोशिश करेगा। इससे न तो वह ठीक से आराम कर सकेगा न ही काम।’’

ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो ऑस्ट्रेलिया के श्रमिकों ने ,सबसे पहले यह मांग की थी कि दिन के 24 घंटों को तीन हिस्सों में बांटा जाए और उन्हें आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम के लिए दिए जाएं। भारी विरोध के बाद 1856 में उनकी मांग मान ली गई। धीरे-धीरे यह खबर अमेरिका तक पहुंची और वहां भी इसे लेकर आंदोलन छिड़ गया। आखिरकार, एक मई 1886 को पूरे अमेरिका में इस मांग को लेकर व्यापक हड़ताल का आयोजन किया गया। स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने इसे बर्बरता से कुचलने का प्रयास किया।

इसके बाद भी कई वर्षों तक ऐसे प्रदर्शन चलते रहे और मजूदरों को अपनी मांग के लिए जान गंवानी पड़ी। धीरे-धीरे दूसरे देशों के श्रमिक और उनके नेता भी इस आंदोलन से प्रभावित हुए और आखिरकार एक मई 1890 को अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में मजदूर दिवस या मई दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार दुनिया भर के मजदूरों को लंबी लड़ाई के बाद अपना वो हक मिला जो बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था।

हमारे देश में संविधान निर्माता डॉ. बीआर अम्बेडकर की श्रम सुधारों में अहम भूमिका रही है। नवंबर 1942 में इंडियन लेबर कांफ्रेंस में उन्होंने काम के घंटे 12 से घटाकर 8 घंटे करने का प्रस्ताव रखा था। वह अम्बेडकर ही थे जिनकी पहल पर महंगाई भत्ता, अवकाश, चिकित्सा अवकाश, समान काम का समान वेतन जैसी जरूरी श्रम संबंधी पहल की गईं। जिन्होंने आगे चलकर श्रमिक वर्ग की बहुत मदद की।

दुनिया भर के श्रमिकों ने अथक परिश्रम से जो हक हासिल किए हैं। जो सुरक्षा हासिल की है उसे छीनने के जतन आज भी जारी हैं। कभी कोविड के दौरान इमरजेंसी प्रोटोकॉल के नाम पर तो कभी लेबर पॉलिसीज को बदलने की कोशिश के नाम पर ताकि मजदूरों को आसानी से काम से निकाला जा सके। भारत समेत दुनिया भर में ट्रेड यूनियन लगातार कमजोर पड़ी हैं। इसका असर श्रमिकों की जायज मांगों पर भी पड़ा है क्योंकि संगठन की शक्ति न होने के कारण उनकी मांगें अनसुनी की जा रही हैं।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि दुनिया में मनुष्यों की दो ही श्रेणियां हैं- एक सर्वहारा और दूसरी बुर्जुआ यानी एक श्रमिक और दूसरे पूंजीवादी। आज उनके मशहूर नारे को याद करने का भी दिन है:

“दुनिया के सर्वहारा एक हो जाओ। तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है और पाने को सारी दुनिया है।”

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