इस तरह मैं जिया-7: कितनी छोटी-छोटी नेमतें, कितना ढ़ेर सा सुख देती हैं अब हम इन से कतरा कर निकल जाते हैं
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
माना कैंप के विश्राम भवन में हमारी आमद हुई। यह संभवतः जून का मध्य रहा होगा। छत्तीसगढ़ की उबलती गर्मी का मौसम। अभी सुबह के 9 भी नहीं बजे होंगे हर कमरे के छत के पंखे पूरी जोर से चल रहे थे। सभी विश्राम भवन (जो लगभग अगले 20 महीने हमारा घर भी रहने वाला था) के तीन कमरों के स्नानागारों का सदुपयोग कर नहाए। अगले पंद्रह से बीस मिनट में ही सब फिर पसीने से नहा चुके थे। चंबल से, ग्वालियर अंचल फिर मालवा से बुंदेलखंड होता हुआ ये कारवां अब धान के कटोरे छतीसगढ़ में पुनर्वासित हुआ।
उत्तर-पश्चिम मध्य-प्रदेश में पैदा हुए और बुंदेलखंड में अब तक पले-बढ़े हम भाई-बहनों तथा माता–पिता के लिए छतीसगढ़ अंचल बिलकुल नया और अद्भुत था। हम वहां की बोली, मिट्टी, आबोहवा, फसलें, पेड़-पोधों से अपरिचित थे। रायपुर तब मध्य प्रदेश का ही जिला था जिसके कुछ कस्बों से राजधानी भोपाल लगभग हजार किलोमीटर बताई जाती थी। वहां से जगदलपुर, जो अविभाजित मध्य प्रदेश का अंतिम जिला था कि दूरी भी पूरे 500 किलोमीटर थी। कल्पना करें कि जगदलपुर के भी दूरस्थ हिस्से राजधानी से 1200 किलोमीटर दूर थे। जगदलपुर तब मालवा, चंबल, रेवांचलवासियों में पनिशमेंट पोस्टिंग के लिए कुख्यात था तो सरगुजा, बस्तर वालों में भिंड-मुरैना भेजे जाने का खौफ था।
हमारा नया घर आधुनिक था जिस पर आरसीसी की छत थी। एक छोटी सिविल-लाइंस जैसी कॉलोनी जिसमें तीन मकान एक दूसरे के समीप थे। इनकी लकड़ी की सरहदें और छोटे–छोटे फाटक उन्हें आपस में जोड़ते थे। माना कैंप के चीफ कमांडेंट एक सेवानिवृत ब्रिगेडियर थे जो मूलतः आसाम के थे। ब्रिगेडियर दास का बंगला हमसे तकरीबन 60-70 मीटर होगा। हमारे घर के पूरब में एक विशाल नहर थी जिससे सिंचाई के लिए उप-नहरें निकलती थीं। नहर के लिए जो रास्ता जाता उसके दाहिनी तरफ माना का ‘विश्राम–गृह’ था। बाईं ओर लाइन से कुछ क्वाटर्स थे, जिनमें ऑफिस में काम करने वाले छोटे-बड़े बाबू सपरिवार रहा करते थे।
चूंकि, रायपुर की अच्छी शालाओं में प्रवेश बंद हो गया था इसलिए हमारा दाखिला स्थानीय शासकीय शालाओं में कर दिया गया। अब नई समस्या (खासतौर पर दीदीयों को) भाषा की आई। वहां पढ़ाने का माध्यम बंगला भाषा थी। टीचर्स और विद्यार्थिओं के बीच संवाद का माध्यम बंगला थी क्योंकि सारे विद्यार्थी और टीचर्स, जिन्हें पश्चिम बंगाल से बुलाया गया था, उसी भाषा में बात करते।
पहले ही हफ्ते हमारा रायपुर जाना हुआ। रास्ते भर मैं मंत्रमुग्ध सा, दूर-दूर तक बरसते पानी, फैले हुए खेत और कमर झुकाए कतार में आगे बढ़ते महिला-पुरुषों को देख रहा था। सब लगभग घुटनों तक मटमैले पानी से भरे खेतों में घास के गुच्छे लगा रहे थे। ऐसा मैंने पहले नहीं देखा था। असल में धान के खेत देखने का यह मेरा पहला मौका था। ड्राइवर साहब ने बताया, ‘ये धान का रोपा चल रहा है, भइया’। इन खेतों में घुटनों के नीचे तक पानी चलता रहता है, तभी रोपा होता है। खेत के किनारे लगी लतरों में ककड़ियां लटक रहीं थीं। सवारियों की पार्टी शुरू हो गई। कितनी छोटी-छोटी नेमतें, कितना ढ़ेर सा सुख देती हैं। अब हम ही शायद इन से कतरा कर निकल जाते हैं।
हमारी जीप फिर उसी रास्ते से, छोटा तालाब, फिर बूढ़ा तालाब के बगल से गुजरते हुए, काली बाड़ी पहुंची। भीड़ भरी सड़कों, मानव चालित रिक्शों जिसे भयंकर गर्मी और दोपहर की धूप में पसीने से लथपथ लुंगीधारी रिक्शा चालाक खींच रहे थे, पार करते हुए हम गोल बाजार पहुंचे। कैंप के लगभग सभी अफसर तथा कर्मचारी महीने भर का सौदा यहीं से लेते थे। गोल बाजार की बड़ी-बड़ी केले, कटहल, धान की आढ़तें आश्चर्य में डालती थीं। इडली-डोसा परोसने वाले कॉफी हाउस मेरे लिए नए थे। मानावासी फिल्म देखने भी रायपुर ही आते थे। मेरे स्कूल के किस्से, अब कल… अपना ख्याल रखिए और मस्त रहिए।
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…