इस तरह मैं जिया-9: उनके आने से बड़े और जिम्मेदार हो गए थे हम बच्चे…
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
फोटो: मणि मोहन
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
उन दिनों पांचवी की परीक्षा भी जिला बोर्ड लेता था। उसमें पास होने के लिए आज के UPSC जैसा जुगाड़ नहीं चलता था। शिवाजी क्योंकि पिछले दो वर्ष से तथा शंकर पिछले वर्ष इसकी वैतरणी पार नहीं कर पाए थे। इसलिए स्कूल की हाजिरी में उनका नाम सबसे पहले आता। पिल्लई मैडम हाजिरी लेतीं। शिवाजी – जी हाज़िर, शंकर – उपस्थित।
सारे बच्चे पैदल ही शाला में आते थे। कल्याण स्कूल का सबसे होशियार तथा क्लास में प्रथम आने वाला छात्र था। हम जल्द ही दोस्त बन गए। मेरा पड़ोसी पंकज मुझ से एक क्लास पीछे था। हमउम्र होने के नाते, लड़ते-झगड़ते हुए भी हमारा दिन साथ ही गुजरता। पांचवीं की परीक्षा खत्म हुई। अब हमारे पास खेलने और भटकने के लिए सारा दिन रहता था। नियम तय था, स्ट्रीट लाइट्स चालू होते ही हमें घर में उपस्थित होना।
गर्मियों की छुट्टियों का सबसे पसंदीदा शौक और विकल्प था पतंग उड़ाना और नहर किनारे दोस्तों के झुंड में घुमते हुए जंगली फलों को खाना। हमारे घर पर भी तीन बेर के पेड़, दो अमरुद और आम लगे थे।
हमारे घर से लगा मैदान हमें खेलने और पेड़ों, परिंदों, पतंगों को निहारने के सारे अवसर खोल देता था। मैदान के बीचों बीच लगा एक विशाल बरगद हमारे सुस्ताने का मुख्य ठिकाना था। दरअसल वो सिर्फ एक पेड़ ना होके उस पर रहने वाले सभी जीवों का पूरा संसार था। हमेशा चहल-पहल से भरपूर। ध्यान से देखो और सुनो तो लगता था कि उस पर रहने वाले सभी जीव जैसे चीटियां, दीमक, जड़ों के पास जड़ जमाए केंचुए से लेकर गिलहरी, चिड़ियां, मधुमक्खियां आपस में लगातार बात करते हों।
उस साल मानसून की शुरुआत हमेशा की तरह आंधी-तूफान के साथ ही हुई। एक शाम तेज हवाओं के साथ तेज बारिश हुई। लगभग सारी रात झंझावात चलता रहा। सुबह तक बादल छंट चुके थे और सूरज चमक रहा था। मैंने देखा कि बरगद की एक मोटी डाल पेड़ से अलग होकर नीचे पड़ी थी। लगता था कि बरगद को फ्रैक्चर हो गया है और उसकी बांह टूटी हो।
अपने दोस्त पंकज के साथ मैं नजदीक गया। टूटी हुई शाख के साथ वहां दर्जनों घोंसले टूटे पड़े थे। हम दु:खी थे। कुछ चिड़ियाएं और गिलहरियां इधर-उधर घूमती उड़ती ना जाने क्या ढूंढ रही थीं।
अचानक पत्तों के बीच कुछ हिलता हुआ दिखा। पानी से तर गिलहरी के दो नन्हे बच्चे चिचियाते हुए शायद अपनी मां को पुकार रहे थे। पंकज ने जैसे ही उन्हें छूने की कोशिश की, मैंने मना किया। ऐसा करोगे तो उनकी मां उन्हें नहीं अपनाएगी। मैंने किसी की कही बात दोहरा दी थी। पेड़ के आसपास कौओं का भी शोर था, जो संभवतः टूटे हुए घोंसलों से अंडे और चूजों की तलाश में व्यस्त थे। पंकज को वहीँ तैनात कर, मैं भाग के घर से कुछ मुलायम कपड़े और सब्जी की छोटी टोकरी ले आया। उन नन्ही सी गिलहरियों को संभल के टोकरी में रखा गया और उनकी सवारी घर पहुंची।
घर पहुंचते ही एक हम सब की एक मीटिंग हुई। प्रश्न था, अब इन्हें कैसे संभालें? एक गाय श्यामा, उसकी बछिया, हमारे घर के आलरेडी सदस्य थे, इसलिए दो और नन्हे सदस्यों का जुड़ना कोई मुश्किल काम भी नहीं था।
ध्यान आया, बच्चे भूखे होंगे। तुरंत एक कटोरी में दूध लाया गया और रुई से दूध पिलाने का सफल अभियान पूरा हुआ। बच्चे सो गए, आपस में लिपटे, दुनिया से बेखबर बच्चों की नींद। यद्यपि उनकी आंखें अभी खुली नहीं थीं पर हमने मान लिया कि वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं।
तीसरे दिन तक तो वो टोकरी के अंदर आपस में खेलने भी लगे।
कैसे वो बच्चे बड़े हुए? क्या हो भी पाए? हम गिलहरी को पाल सकते हैं? या वे अपने घर में ही सुरक्षित पलते–बढ़ते हैं? जारी…
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