युवा कविता

- आशीष कुमार शर्मा ‘भारद’
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक और परास्नातक की उपाधि। वर्तमान में दतिया के ग्राम उनाव बालाजी में निवास।
आशीष कुमार शर्मा ‘भारद’ की यहां प्रस्तुत रचनाएं हिंदी की उस युवा कविता का प्रतिनिधित्व करती हैं जो छायावाद के अधिक निकट हैं। आधुनिक हिंदी कवियों ने राजनीतिक, सामाजिक मुद्दों के साथ यथार्थ को अपनी कविताओं में रेखांकित किया है। वहीं आशीष कुमार शर्मा ‘भारद’ की रचनाओं में हमें छायावाद की विशेषताओं की झलक मिलती है, यथा, आत्माभिव्यक्ति, प्रेम और सौंदर्य का चित्रण, कल्पना और दार्शनिकता की प्रधानता आदि।
(1)
जिज्ञासा के तुंग शिखर से,
अन्वेषण के रसातलों तक;
विरह वेदना की घड़ियों से,
स्नेहबन्ध के सुखद पलों तक;
देहातों के लोकगीत से,
मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों तक;
बारहमासी के पुष्पों से,
जामुन-बेर के द्रुमदलों तक;
जो कुछ आए सम्मुख सब उपमान तुम्हारे नाम किए।
ये हृदय तुम्हारी सम्पत्ति है, इससे अधिक क्या कहूँ प्रिये?
आनंदों के बागानों से,
अवसादों के कोप भवन तक;
मौन हृदय की स्थिरता से,
मन के रथों के पारगमन तक;
श्रद्धा-प्रेम के अमृत घट से,
विषवासना के आचमन तक;
शांत हृदय की प्रार्थना से,
दम्भ के बड़बोलेपन तक;
जो कुछ आया सम्मुख सब उपमान तुम्हारे नाम किए,
ये हृदय तुम्हारी सम्पत्ति है, इससे अधिक क्या कहूँ प्रिये?
(2)
सर्पसाम्राज्ञी सी अलकें श्रावणी रैनों सी लागे
सुरपति के धाम बारूँ सुरमयी नैनों के आगे।
कर्णफूलों पे न्यौछावर कर्ण के से दान कोटि
काटने को संग तेरे कल्प की भी अवधि छोटी।
तुझको चलते देख जैसे हिरणियों का दंभ टूटा
स्याही को नैनों से तेरे इंद्र के मेघों ने लूटा।
ओष्ठ मुस्काएँ के मानो सिंधु में उठती हो लहरें
स्मिता ऐसी हो सम्मुख हृदय स्थिर कैसे ठहरें?
स्निग्ध श्यामल वर्ण जैसे सूर्य का संध्या से मिलना
प्राणघातक है तेरे इन कुंतलों का विकट हिलना।
नासिका ऐसी है जैसे कीरदल की तिरस्कारिनी
चेहरे की ये सौम्यता विक्षोभ की है जन्मदायिनी।
है तथापि क्षेत्र मेरे अधिकार का इन सबसे वंचित
व्यथा, कष्ट और वेदना ही कुल मिलाकर किए संचित।
शतकोटि हैं कहने को बातें, मौन के उतने ही कारण
प्रेम नामक व्याधि का अज्ञेय है अब तक निवारण।
जीना तो दुश्वार ही है, मरना तो फिर क्या तरीका
कितना भयावह है कहीं भी प्रेम में पड़ना किसी का।
(3)
अस्ताचल को देख गौर से कवि क्या सोच रहा है मन में
लाल रंग का मटका फूटा, युद्ध हुआ या घोर गगन में
सूरज डूबा साँझ हो गई अँधकार यूँ फैल गया
कोई कुमारी रो बैठी और सुरमा न सम्भला लोचन में
सारे शब्द निरर्थक हैं जो संयम का संधान न हो
पुनः मेनका रिझा रही है ऋषि जो बैठा ध्यान मगन में
नभ के कागज पर नक्षत्रों के अगनित आकार बने
जीव अलौकिक विचर रहे हों चन्द्रलोक के शुभ उपवन में
नियति जैसे आखेट हृदय का शब्दबाण से करती हो
मन जैसे कि मन्दिर के पट खुले रह गए सूर्य ग्रहन में।
(4)
हम तड़प रहे सो तड़पेंगे
कोई हमको दे दिलासे क्यों?
हम खो रहे सो खो जाएं
कोई हमको भला तलाशे क्यों?
हम डूब रहे सो डूबेंगे
कोई लेके आए किनारे क्यों?
धड़ टूटे है सो बिखर पड़े
कोई आके इसे सँवारे क्यों?
जो कर्ज़ा है मेरे सर है
कोई आके इसे उतारे क्यों?
हम मरते हैं सो मर जाएं
कोई रोए बाद हमारे क्यों?
(5)
चिंगारी को भड़काकर के, रह-रह करके हवा भी देगा।
ले जाकर के अगन गगन तक, डाल के पानी दबा भी देगा।
उसकी ओर निहारो न यूँ, बिन कारण टकटकी बिठा के,
दर्द दिया है क्या लगता है अब वो तुमको दवा भी देगा?
Sundar
सुन्दर