
- कविता वर्मा
लेखक साहित्यकार हैं।
संस्कृति बचाने की जिम्मेदारी उठाती फिल्में
वैश्वीकरण के इस दौर में जब रहन-सहन खानपान रीति-रिवाज सभी संक्रमित हो रहे हैं ऐसे समय में कभी-कभी इन्हें इनके मूल स्वरूप में बचाये रखने की आवश्यकता होती है। हमारे देश में पारंपरिक खानपान अब सिर्फ घरों में बचा है वह भी अपने शुद्ध रूप में कम ही है। रेस्तरां और बड़े होटल पारंपरिक खाने के फेस्ट जरूर आयोजित करते हैं लेकिन वे कितने पारंपरिक होते हैं यह बड़ा प्रश्न है।
2025 में आई फिल्म ‘नोनाज्’ (Nonnas) जोडी जो स्कारावेला की सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म है जो न्यूयार्क सिटी के स्टेंटन आयरलैंड के एनोटेका मारिया रेस्टोरेंट के बनने उसके आइडिया को जमीन पर उतारने के संघर्ष की कहानी है। फिल्म के मुख्य कलाकार हैं; विंस वाघेन, सूजन सरान्डोन, लॉरेन ब्रेक्को, लिंडा कार्डेलिनी तालिया शियर और जो मेंगेलिएनो। इस बायोग्राफिकल कॉमेडी ड्रामा को डायरेक्ट किया है स्टीफन चबोस्की ने और लिखा है लिज मैक्की ने।
नोनाज् यानी कि नानी। उनके हाथ का खाना किसे नहीं पसंद है? फिल्म की कहानी चालीस साल पहले शुरू होती है, जब एक पार्टी में एक छोटे बच्चे की मम्मी और नानी खाना बनाती हैं और वह छोटा बच्चा बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखता है। मम्मी और नानी के हाथ का खाना उसे बहुत प्रिय है। वह उसे बनते देखता है, उसमें पड़ने वाली सामग्री और मसालों के बारे में पूछता है। यह सीन दिल में उतर जाता है, जब बच्चा पूछता है, “कौन सा मसाला कितना डालना है, यह कैसे पता चलता है?”
नानी सीने पर हाथ रख कर कहती है, “दिल से।”
यही बच्चा बड़ा होकर एक फैक्ट्री में काम करता है। खुद खाना बनाकर खाता है और खाना बनाते नानी वाले स्वाद के लिए तरह-तरह के प्रयोग करता है। एक दिन पैदल घूमते हुए उसे एक बंद रेस्तरां दिखता है जो बिकाऊ है और उसका सपना अचानक आँखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है कि वह हमेशा से एक रेस्तरां खोलना चाहता था। वह अपनी जीवन भर की जमा पूंजी देकर उसे खरीद लेता है और कहानी में रोचक घटनाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। वह इटली की उम्र दराज महिलाओं को शैफ रखना चाहता है। मैन्यू के लिए उनसे डिश बनवाकर उनका चुनाव करना, फैक्ट्री में काम से गायब होकर अपना काम करना, रेस्तरां के रिनोवेशन में पुराने मालिक के नाम को हटाने पर उसके मित्रों का नाराज होना। हर घटना अपनी संस्कृति से प्रेम, मानवीय सम्बंधों, सहयोग और शुभचिंतकों की फिक्र के आयामों के साथ हौले-हौले आगे बढ़ती है। नायक के बचपन का मित्र उसे इस जुनून में अपना जीवन बर्बाद होते देख नाराज होता है लेकिन उसे पूरा करने के लिए वह कर जाता है जो कोई सोच भी नहीं सकता।

फिल्म रोलरकोस्टर राइड जैसे खुशी, प्रेम, गर्व, मित्रता, शत्रुता, उत्सुकता के भावनात्मक अहसासों के साथ दिल में उतरती जाती है। पारिवारिक रिश्तों के इतर हमारे आस-पास इतने प्यारे रिश्ते होते हैं और वे जीवन के नाजुक मोड़ पर कैसे आपको संभाल सकते हैं यह देखना सुखद है। आज जब जीवन बस भाग रहा है वैश्वीकरण ने संस्कृति, संस्कार, त्योहार, उत्सव, पर्व, खानपान संबंधों को विकृत कर दिया है ऐसे समय में कुछ लोग हैं जो उन्हें उनके मूल स्वरूप में बनाए रखने की कोशिश में लगे हैं।
ऐसे प्रयास किस तरह और किन क्षेत्रों में किये जा रहे हैं यही जानने के लिए एक और इटैलियन फिल्म है ला डोल्से विला (La Dolce villa)। ला डोल्से विला 2025 की अमेरिकी रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है, जो मार्क वाटर्स द्वारा निर्देशित है। इसमें स्कॉट फोले, वायलेंटे प्लासीडो और माइया रेफिको जैसे कलाकार हैं। इसे 13 फरवरी, 2025 को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ किया गया था।
इटली एक छोटा सा देश है जो अपनी विरासत के प्रति बेहद सचेत है। यहाँ के लोग अपनी संस्कृति अपने खाने ही नहीं ऐतिहासिक इमारतों से भी प्यार करते हैं, उन पर गर्व करते हैं और उन्हें अपनी अगली पीढ़ी के लिए सहेजना भी चाहते हैं। जबसे वैश्वीकरण का विचार सामने आया है, दुनिया ने सभी के लिए अपनी बाहें फैलाई हैं। नौकरी और व्यापार के लिए लोग अपने गाँव, कस्बों, शहरों से बाहर निकले हैं। कोई वापस लौट आने के लिए तो अधिकांश कभी न लौटने के लिए। ऐसी स्थिति में गाँव खाली होते जा रहे हैं। कभी जिन गाँवों में संस्कृति की खनक थी, वे अब सूनी आँखों से बिना किसी उम्मीद के रास्ता तकते बुजुर्गों के आश्रय भर रह गए हैं।
ऐसे ही एक छोटे से गाँव मांटेजारा की मेयर अपने गाँव के खाली पड़े मकानों को मात्र एक रुपये की लीज पर देकर उन्हें दोबारा बसाना चाहती है। वहीं एक पिता अपनी बेटी को लेकर चिंतित है जो अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर यहाँ-वहाँ भटक रही है। तभी उसे बेटी का पत्र मिलता है कि वह इटली के एक छोटे से गाँव में एक मकान खरीद रही है। पिता इस फैसले से बहुत अपसेट होता है और अचानक बेटी के पास पहुँच जाता है। बेटी पिता को देखकर बहुत अपसेट होती है वह जानती है अब फिर उसके फैसले को गलत ठहराया जाएगा, उसे नसीहतें दी जाएगी, जिसके लिए वह तैयार नहीं है। युवा होते बच्चे माता-पिता की आकांक्षा का बोझ ढोते हुए उनसे दूर हो जाते हैं। ये हर समाज की आम समस्या है जिसे चटपटे अंदाज में बिना शोर-शराबे के फिल्माया गया है। बेटी उसे मिले मकान का पुनर्निर्माण करवाती है। पिता अब भी चिंतित है और बेटी को इस सबसे बाहर निकालने की तिकड़म करता है।
पुनर्निमाण के दौरान उस पुराने मकान की चिमनी देखकर एक रहस्य उद्घाटित होता है और एक नई योजना आकार लेने लगती है जिसमें पिता भी शामिल हो जाता है। बेटी पिता के साथ अपने लंबे अनुभव के आधार पर उससे छुपाकर कुछ ऐसा करने के लिए तैयार हो जाती है जो पिता को चौंकाता है।
इन सबके बीच गाँव के मुख्य चौराहे पर सारे दिन बैठी रहने वाली वे तीन बुजुर्ग महिलाएँ जो अपने आसपास होती चीजों को देखती हैं, उनके परिणाम को लेकर शर्त लगाती हैं, एक दूसरे की टांग खींचती हैं और कहानी के आगे बढ़ने के साथ अपना महत्व स्थापित करती हैं। दरअसल, वे सिर्फ अपना ही नहीं, हर बुजुर्ग का महत्व स्थापित करती हैं जो आज हमारे घर समाज और देश में उपेक्षित पड़े हैं। उनके पास अपने अनुभव हैं, जिनमें हमारी संस्कृति, खानपान, रीति-रिवाज और समय की जानकारी है। यह बात इतने खूबसूरत तरीके से व्यक्त की जा सकती है यह जानना रोचक है।

कहानी में सादगी है। एक खूबसूरत रिश्ता हौले से अंकुरित होता है। एक उम्मीद जागती है। विरासत के राज उद्घाटित होते हैं। योजना बनती, बिगड़ती है, नए आकार लेती हैं और अचानक सब कुछ बदलता है। फिल्म अपनी सरलता के साथ कदम-कदम पर मोड़ लेती है, आश्वस्त करती और चौंकाती है। बाँधे भी रखती है।
अद्भुत बात यह है कि फिल्म सच्ची कहानी पर आधारित है और इसके पात्रों की कहानी भी सच्चाई के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म का सेट खूबसूरत है। सूने होते जा रहे गाँव को बेहतरीन तरीके से दर्शाता है। फिल्मांकन के लिए फिक्शन का सहारा लिया गया है। सन् साठ में मिलते जुलते नाम वाली ‘ला डोल्से वीटा’ नामक फिल्म भी बनी है जो काफी चर्चित रही लेकिन दोनों फिल्मों की कथावस्तु अलग है।
फिल्म एक सुमधुर संगीत सी बहती है, जो आधुनिक समय की होते हुए भी ठहरे हुए गाँव के थमे हुए समय को हौले से उकेरती है। यहाँ शहरी जीवन की आपाधापी नहीं है, लोगों को एक-दूसरे की चिंता है, उनकी अच्छाइयों-बुराइयों की जानकारी है, चीजों को होने देने के इंतजार का धैर्य है और उन पर खामोश नजर है।
नेटफ्लिक्स पर दो घंटे से भी कम समय की यह फिल्म देर तक मन के भीतर चलती है। आजकल लगभग फिल्में हिंदी के साथ कई भारतीय भाषाओं में डब होकर आ रही हैं और कहना होगा कि इनकी भाषा भारतीय फिल्मों की भाषा से कई गुना बेहतर है। वह हिंदी है तो शुद्ध हिन्दी है, इसलिए देखने का आनंद बढ़ जाता है।