Diary from the Himalayan foothills, written on a mist-laced morning in October

- अनुजीत इकबाल, लखनऊ
पहाड़ों में जन्मदिन- भवाली से आगे, तितोली की शांति में
इस साल हमने तय किया कि बेटी का जन्मदिन शहर की भागदौड़, रेस्तराँ और मोमबत्तियों के बीच नहीं, बल्कि पहाड़ों की गोद में मनाएंगे, जहां समय धीमा चलता है और हवा में जंगल की खुशबू घुली रहती है। यात्रा का गंतव्य तय हुआ, भवाली से लगभग सात किलोमीटर आगे, चीड़ के गहरे जंगलों के बीच छिपा एक शांत घर, ‘माँ गंगा होमस्टे’।
भवाली से आगे की सड़क थोड़ी अधूरी, कहीं ताज़ा कटी हुई चट्टानों के निशान लिए, लेकिन यात्रा में कोई कठिनाई नहीं थी। हर मोड़ पर हवा ठंडी होती जाती और चीड़ों की कतारें किसी पुराने पहाड़ी गीत पर नृत्यरत थीं, सूरज की किरणें जब बादलों से छनकर आतीं, तो सारा रास्ता सुनहरी धूल से भर उठता।
लखनऊ से लगभग 445 किलोमीटर सफर तय करके, शाम ढलने से पहले हम ‘माँ गंगा होमस्टे’ पहुँचे। यह एक सुंदर पहाड़ी घर था। दरवाज़े पर बिष्ट परिवार के सब लोग मिले, बातों में ऐसा अपनापन था कि जैसे बरसों से जानते हों। कमरे खुले और साफ़-सुथरे थे, हर खिड़की से हिमालय की बर्फ़ीली चोटियाँ दिख रही थीं। जब चूल्हे पर गरम चाय की खुशबू फैली, तो लगा कि यही सच्ची विलासिता है, सादगी में भरा स्वाद और प्रेमयहाँ समय ठहरकर मुस्कुरा रहा था। रात को उन्हीं के खेत की सब्जी खाने को मिली, ऑर्गेनिक फूड। कद्दू, आलू की सब्जी और रायता, स्वाद बहुत अच्छा और साधारण।
अगली सुबह जब नींद खुली तो खिड़की से बाहर फैला दृश्य कुछ अलौकिक था, त्रिशूल, नंदा देवी और पंचाचूली की चोटियाँ, सुनहरी रोशनी में नहाई हुईं… हवा में चीड़ की सुगंध थी और पहाड़ी पक्षियों का कलरव। हम सब बरामदे में बैठ गए, गरम चाय हाथों में थी, सामने हिमालय, बस यही क्षण था जिसे कोई कैमरा कैद नहीं कर सकता। ऐसे दृश्य में कोई शब्द नहीं सूझते, सिर्फ़ मौन, जो प्रार्थना बन जाता है। मैं सुबह पांच से नौ बजे तक बाहर बैठी हिमालय को देख मन में बातें करती रही।
‘माँ गंगे होमस्टे’ में खाना किसी फार्म-टू-टेबल रेस्तराँ से कहीं ज़्यादा सच्चा है। सुबह नाश्ते में आलू के परांठे और प्रेमा आंटी के हाथ का रायता और आम का अचार, सब कुछ ताज़ा और प्रेम से बना।दोपहर तक धूप जब बरामदे में उतरती, तो वहां का हर कोना हल्की गरमाहट से भर जाता। होम स्टे के लोगों ने कहा, “यहाँ कोई मेहमान नहीं, सब अपने हैं।” और सच में, कुछ ही घंटों में हमें भी ऐसा लगा मानो हम किसी रिश्तेदार के घर आए हों, जहां कोई औपचारिकता नहीं थी, बस अपनापन था। जिस दिन बेटी का जन्मदिन था उस दिन कैंची धाम दर्शन को गए। होमस्टे से सिर्फ 20 मिनट का फासला था। कैंची से आए तो देखा प्रेमा आंटी के परिवार के बच्चों ने बेटी के जन्मदिन की पूरी तैयारी खुद कर रखी थी। किसी ने जंगल से जंगली फूल तोड़े, किसी ने कार्ड बनाया और किसी ने पूरी दीवार सजा दी। हम भवाली से केक ले गए थे लेकिन सबसे मीठा उत्सव बच्चों का प्यार था। उन्होंने उसे “हैप्पी बर्थडे” गाते हुए उपहार दिए, फिर सबने पार्टी की और नाचते रहे। बेटी की आँखों में जो चमक थी, वह किसी शहर की रोशनी से कहीं ज़्यादा उजली थी।

उस पल मैंने सोचा, शायद पहाड़ों में जन्मदिन मनाना सिर्फ़ एक फैसला नहीं, एक अनुभव था, एक स्मृति, जो हमेशा जीवित रहेगी। बेटी बड़ी होकर भी याद रखेगी कि वहां कितने प्यारे बच्चे थे जिन्होंने बिना कहे उसका दिन बना दिया।
अगले दिन हम उधर की एक ऊंची चोटी पर ट्रैक करने निकल पड़े। चारों ओर बुरांश के पेड़, जंगली गुलाब की झाड़ियां और नाशपाती, आडू, सेब के बाग़ फैले थे। हवा में देवदार की सुइयों की खुशबू घुली थी, ठंडी, नम, और पहाड़ी फूलों की मिठास से भरी हुई। रास्ते में कहीं कोई तीतर झाड़ियों से फुदक कर निकल जाता, कहीं किसी डाल से लटकती गिलहरी झूलती दिखती। ऊपर कहीं से काफल के पौधे भी दिख रहे थे, और दूर बादलों के बीच से हिमालय की चोटियाँ झाँक रही थीं। हर कदम, हर मोड़ किसी कविता-सा लगा जैसे धरती खुद कोई गीत गुनगुना रही हो।हम सब पुराने देवदार और चीड़ के जंगलों से गुजरते हुए उस ऊँची चोटी तक पहुँचे, जहाँ से पूरा भवाली नीचे फैला था, उसकी सड़कें, उसकी छतों पर रखे पानी की टंकियां और दूर-दूर तक फैली धुंध। बहुत नीचे कैंची धाम चमक रहा था और सामने की ओर धूप में नहाया रानीखेत दिखाई दे रहा था मानो पहाड़ की गोद में शान से कोई बैठा हो। बच्चों ने पेड़ों से गिरे पत्ते और जंगली फूल समेटे। उनकी यह मासूमियत शायद वही वजह है जिसके लिए शायद अब मैं बार-बार पहाड़ लौटूंगी, खुद को फिर से खोजने।
रात ढली तो आसमान तारों से भरा था। सब बच्चे नीचे के तल पर खेल रहे थे। चारों बच्चों की हँसी की गूँज फैली हुई थी और सच मानिए, उस समय अपने बच्चों की खुशी देखकर, मुझ में पूरे पहाड़ की खुशी समा गई। चार दिन बिताए वहां। तीनों वक्त के भोजन के अलावा भी प्रेमा आंटी कुछ न कुछ खाने का भेजती रहती थीं। बार बार कमरा साफ करवा देती थीं और चाय पिलाती रहती थीं। एक दिन कढ़ी भी खाई।
अंततः, विदा लेने का दिन आ गया। मन नहीं था वापस आने का लेकिन, रुका भी कब तक जाए। होमस्टे के सब लोग हमारा सामान उठा कर कार तक ले आए, मैं मना करती रही, लेकिन यह उनका प्यार था। उस दिन हिमालय धुँध में ढंका था, जैसे हमें चुपचाप आशीर्वाद दे रहा हो।
प्रेमा आंटी ने मुस्कुराते हुए कहा कि “सड़क भी बन जाएगी जल्दी।”
मैंने कहा, “रास्ते तो पहले ही बन गए हैं, हमारे दिलों में।”

उन्होंने विदा लेते हुए खेत की ओस-भीगी पत्तियों में से कुछ ताज़ी सब्जियाँ तोड़ कर दीं जैसे हरियाली का कोई छोटा आशीर्वाद साथ बाँध लिया हो।फिर घर के बड़े जिस सहजता से बच्चों को सिक्के थमा देते हैं, वैसे ही उन्होंने भी कुछ नोट बढ़ा दिए जन्मदिन के आशीर्वाद के रूप में, बिना दिखावे, बिना औपचारिकता के। क्षणभर को लगा,सादगी भी कितनी सम्पन्न हो सकती है।
भवाली की ओर उतरते हुए गाड़ी धीमे-धीमे मोड़ों से गुज़री। पीछे रह गए चीड़ के जंगल, और साथ रह गई एक शांति, जो उस घर में मिली थी।
यह यात्रा सिर्फ़ एक जन्मदिन की नहीं थी। यह एक स्मरण था कि सच्चा सुख विलासिता में नहीं, सादगी और अपनापन में छिपा होता है। माँ गंगा होमस्टे जैसे ठिकाने हमें याद दिलाते हैं कि हॉस्पिटैलिटी का अर्थ महँगे कमरे नहीं, बल्कि प्यार और आशीर्वाद से भरे हाथ और मुस्कुराती आँखें हैं।
आप भी कर सकते हैं यह अनुभव:
स्थान: गांव तितोली, भवाली से 7 किमी दूर, चीड़ के जंगलों के बीच (उत्तराखंड)
कैसे पहुँचे: नैनीताल या हल्द्वानी से टैक्सी लेकर भवाली होते हुए तितोली
क्या खास: हिमालय के दृश्य, स्थानीय घर का शुद्ध भोजन और असली पहाड़ी जीवन की झलक।
सबसे उपयुक्त मौसम: सारा साल, लेकिन अक्टूबर से मार्च, जब आसमान साफ़ और बर्फ़ की चोटियाँ दूर तक दिखती हैं।


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