फैंड्री: सिर्फ सिनेमा नहीं, समाज का आईना

पूजा सिंह, स्‍वतंत्र पत्रकार

फिल्मकार नागराज मंजुले की तकरीबन डेढ़ दशक की फिल्म यात्रा में 2015 में आयी ‘सैराट’ ने उन्हें सितारा हैसियत बख्शी और अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘झुंड’ (2022) ने उन्हें पहली बार मराठी के बाहर सीधे हिंदी सिनेमा से जोड़ा लेकिन उन्होंने बड़े पैमाने पर अपने आगमन की घोषणा की थी 2013 में आयी फिल्म: ‘फैंड्री’ से।

‘फैंड्री’ फिल्म ने एक बार फिर याद दिलाया कि जिंदगी अमर चित्रकथा जैसी बिल्कुल नहीं है। चूंकि यह एक गांव की कहानी है इसलिए हिंदी सिनेमा में गांवों के चित्रण की बात भी आयेगी। हिंदी फिल्मों में गांव को लेकर एक अलग तरह का नॉस्टेल्जिया दिखाई देता है: हरे-भरे गांव, पहाड़ों की बर्फीली चोटियां, झील, नदी का किनारा, भोले भाले गांव वाले, कोई शहरी बाबू जिसके प्यार में माासूम नायिका पड़ जाती है वगैरह…वगैरह।

शहरों और महानगरों में पले बढ़े युवाओं को ‘फैंड्री’ के गांव को देखकर झटका सा लगता है। वह फिल्मों में नजर आने वाला कोई यूटोपियन गांव नहीं है। वह सचमुच का गांव है। एक ऐसा गांव जहां क्रूर सामाजिक यथार्थ पूरी तरह बेपर्दा है। जहां जाति व्यवस्था, इंसानी क्रूरताएं और विद्रूपताएं एकदम नग्न अवस्था में आंखों के सामने आती हैं और इंसान होने का तकाजा है कि आंखें शर्म से झुक जाती हैं, एक अनजाने पश्चाताप में रोने लगती हैं।

‘फैंड्री’ फिल्म की कहानी का जिक्र शायद बात को आगे खोलने में मददगार साबित होगा। कहानी महाराष्ट्र के एक गांव की है जहां जब्या (सोमनाथ अवघड़े द्वारा निभाया गया किरदार) गांव की ही पाठशाला में सातवीं कक्षा का विद्यार्थी है। जब्या का परिवार बहुत गरीब और मेहनतकश दलित परिवार है। अक्सर जब्या को भी स्कूल जाने के बजाय परिवार के काम में हाथ बंटाना पड़ता है। जब्या अपनी ही कक्षा में पढ़ने वाली एक सवर्ण लड़की शालू को मन ही मन पसंद करता है। उसे लगता है कि अगर वह वशीकरण सिद्ध कर सके तो शालू भी उसे पसंद करने लगेगी। वह हमेशा इस प्रयास में रहता है कि उसे कहीं से एक काली गौरैया मिल जाए। उसे लगता है कि काली गौरैया को जलाकर अगर वह शालू पर छिड़क देगा तो वह भी उसकी ओर आकर्षित हो जाएगी।

निर्देशक मंजुले ने काली गौरैया के रूप में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था के लिए तगड़ा रूपक रचा है। इस गौरैया को मारने और उसी राख शालू पर छिड़कने की प्रक्रिया वास्तव में जाति व्यवस्था को नकारने की कल्पना है।
जब्या दलित परिवार से आता है और सदियों से चली आ रही अपमानजनक परंपराओं ने पूरे परिवार को ही उनके प्रति इतना निस्पृह बना दिया है कि उन्हें कुछ भी अपमानजनक महसूस नहीं होता। परंतु जब्या पर यह बात लागू नहीं होती है। वह स्कूल में पढ़ता है और अपने मान-अपमान को लेकर पूरी तरह सचेत है। गांव की सोशल लोकेशन को इस बात से समझा जा सकता है कि जिस गांव में एक सुअर से छू जाने पर शालू अपनी सहेली का मजाक उड़ाती है और उन्हें गोमूत्र छिड़कर पवित्र किया जाता है। इस दृश्य में बैकग्राउंड में बाबा साहेब अम्बेडकर और सावित्री बाई फुले की तस्वीरें नजर आती हैं जो यह दिखाती हैं कि जाति कितनी सर्वव्यापी है और संविधान निर्माता और स्त्री शिक्षा की अगुआ के सपनों का देश वास्तव में दशकों बाद भी किस तरह जाति के गर्त में गिरा हुआ है।

फिल्म का अंतिम दृश्य अत्यंत प्रभावशाली है और वहां नागराज मंजुले एक निर्देशक के रूप में शिखर पर नजर आते हैं। गांव में होने वाले एक आयोजन के पहले सुअर पवित्र पालकी को स्पर्श कर देते हैं जिससे वह अपवित्र हो जाती है। गांव का पंडित इस घटना को अशुभ करार देता है। इसके बाद गांव की पंचायत का सर्वण मुखिया जब्या के पिता कचरू से कहता है कि वह उस सुअर को पकड़े। इस प्रकार दबाव डालकर कचरू को वह काम करने पर विवश किया जाता है जिसे वह बहुत पहले त्याग चुका था। यह दृश्य दिखाता है कि सर्वण और ब्राह्मणवादी परिवार एक दलित परिवार को चाहकर भी बुरी स्मृतियों से बाहर नहीं आने देता। आखिरकार, कचरू सपरिवार सुअर को पकड़ने की कोशिश में लग जाता है इस दौरान पास ही स्कूल में राष्ट्रगान बज उठता है और जब्या और कचरू को सुअर पकड़ना छोड़कर राष्ट्रगान के लिए खड़ा होना पड़ता है। यह दृश्य बताता है कि सवर्णों का राष्ट्रवाद जाति विशेष के लोगों पर किस-किस तरह से भारी पड़ता है। जब्या और कचरू जैसे लोगों को तो राष्ट्र गान की परवाह है लेकिन क्या राष्ट्र गान को राष्ट्र प्रेम का पर्याय बना देने वालों को भी जब्या और कचरू की परवाह है? यह प्रश्न मन में उठता है।

ताबूत में आखिरी कील तब ठुकती है जब जब्या देखता है कि पूरा स्कूल उसे सुअर पकड़ता देखकर हंस रहा है और हंसने वालों में एक चेहरा शालू का भी है। इस पूरे वाकये में कचरू और जब्या के चेहरों की बेबसी और अनिश्चितता ने कमाल का प्रभाव उत्पन्न किया है।

फिल्म इतनी सादगी से बनायी गयी है कि लगता है मानो किसी ने कैमरा लेकर महाराष्ट्र के किसी गांव में घट रही रोज की घटनाओं को दर्ज भर कर लिया है। कैमरे ने वे प्रभाव उत्पन्न किए हैं जो शायद बड़े-बड़े उपदेशात्मक संवाद भी नहीं कर पाते।
जब्या द्वारा उछाला गया पत्थर दरअसल उसके उस प्रतिरोध का चरम रूप है जिस प्रतिरोध के चलते वह फिल्म में एक दृश्य में एक सवर्ण व्यक्ति द्वारा बार-बार एक सुअर को निकालने के आदेशात्मक आग्रह को ठुकरा देता है।

जब्या द्वारा उछाला गया पत्थर मानो अंतरिक्ष में चला गया है और वह एक दिन शोषक समाज पर जलते हुए तारों की तरह बरसेगा और वंचित समुदायों के आत्मसम्मान के लिए खाद बनकर उतरेगा। तब शायद वह समाज बदलेगा जो इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भी अम्बेडकर और फुले को केवल तस्वीरों में कैद रखता है, संविधान और संवैधानिक मूल्यों को एक पवित्र किताब में कैद रखता है और सामाजिक जीवन में जातिवाद, गैर बराबरी और तमाम नकारात्मक मूल्यों को तमगे सा पहने रहता है।

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