अपनी गलियों में अपने गुलमोहर की छांंह

शशि तिवारी

गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसम ए गुल को हंसाना भी हमारा काम होता…

यह गाना जाने कब मेरे पसंदीदा गीतों की सूची में शुमार हो गया पता नहीं चला। वैसे ही जैसे गुलमोहर मेरे प्रिय पेड़ों में शामिल हुआ होगा। गुलमोहर से मेरी पहचान वैसे ही है जैसी मेरे शहर इलाहाबाद से नाता। इसके साथ बचपन की गुलाबी यादें जुड़ी हैं और जो माद्दा रखता है कि देखकर ‘कुछ-कुछ होता है’ टाइप फीलिंग हो जाए। फिर लगा, जहां मैं रहूं वहां रहे गुलमोहर भी।

तभी तो गुलमोहर उगाने के जतन के बीच यूं ही पूछ लिया था मैंने, “मेरा गुलमोहर कब बड़ा होगा?”
“हो जाएगा। ऊसर मिट्टी है। जड़ें पकड़ ली हैं यही क्या कम है। बड़ा भी हो ही जाएगा।”
हां का जवाब बहुत धीमे स्‍वर में था मगर भीतर तो उतावली थी, मुझे उस पर फूल खिलते हुए देखने हैं। जल्दी।

ऐसा है गुलमोहर से लगाव। गर्मियों में जब सूरज तपता है। अतिशय। जब सड़क पर कोई और निकलने का साहस नहीं जुटाता है। सबकुछ झुलसता है। हरियाली भूरे सूखे में तब्‍दील हो चुकी होती है तब धधकते सूर्य से आंख मिलाने की हिम्‍मत यदि कोई दिखाता है तो वह है गुलमोहर। लाल सुर्ख रंग। एकदम सूरज की टक्‍कर का लेकिन सुकून भरा। गर्मियों में जब हमें हल्के रंग भाते हैं, जब लाल, काले, गहरे रंग की ओर देखने का मन भी नहीं होता, ऐसे में वह गुलमोहर ही है जिसकी दहक शीतलता देती है। बाहर निराली रंगत, भीतर अनूठी ठंडक।

दो साल पहले कार्यस्थल पर पौधारोपण की योजना बन रही थी। बरसात आने वाली है…पौधे रोपने का मुफीद समय…कौन-कौन से पौधे लाए जाएं…। सभी अपनी पसंद और प्राथमिकता के आधार पर नाम सुझा रहे थे। आती सर्दियों तक रंग-बिरंगे फूलों से भर जाएं ऐसे पौधे…। कुछ घनी छांव देने वाले पेड़ बन जाएं ऐसे पौधे…। मेरे मन में सिर्फ़ एक ही नाम था। सो कहा कि अपनी मर्जी से जितने पौधे लाने हों, आप लोग लाइए…बस एक गुलमोहर जरूर हो उनमें। फूल भी होंगे, छांह भी।

पौधे लाने वाले साथियों ने मेरी इच्छा का विशेष मान रखा और एक नहीं तीन पौधे लाए। दो नन्हे-मुन्ने और मेरे गहरे लगाव को देखते हुए एक थोड़ा बड़ा पौधा। बड़ा इसलिए कि पौधे से पेड़ बनने तक की प्रक्रिया कुछ तो कम लंबी हो। शायद मेरी अधीरता भांप ली होगी उन लोगों ने। फिर यह पौधा ऐसी जगह रोपा गया जहां गेट से प्रविष्ट होने के बाद दस कदम चलते ही दूर रक्ताभ छत्र ताने खड़ा दिखेगा यह। मुस्कुराता हुआ…अपने अलबेलेपन पर इतराता हुआ… स्वागतोत्सुक। बस… कुछ बरसों की देर है।
मजे की बात यह कि विविध रूप रंग और नाम वाले पौधों की भरमार में जब कभी ‘गुलमोहर’ नाम जुबान पर न चढ़े तो ‘मैम वाला पौधा’ कह कर बात कर लेते वे लोग।

गुलमोहर हमें बताता है कि सबके साथ रहकर भी सबसे अलग रहना, सबमें अलग होना क्या होता है। कैसे सबके बीच रहकर भी अपनी विशिष्टता के कारण अलग से पहचाने जाते हैं हम।

विशिष्ट! हां, विशिष्ट तो है यह। रूप के साथ कितने औषधीय गुण समेटे हुए है अपने आप में। और अपनी विशिष्टता का पूरा भान भी है इसे। हमेशा से यह अतिशय सुंदर होने के साथ मुझे कुछ दर्प से भरा हुआ भी लगता रहा है। ज्‍यादा कुछ नहीं… बस… सुंदरता है तो जरा आत्ममुग्धता भी होगी ही। ध्यान दीजिएगा, इसे सुंदरता का दर्प है, दंभ नहीं। तभी तो आस-पास के साथी पेड़-पौधों से घुलता-मिलता, उनकी सराहना करता, उनसे हँसता-बतियाता सा नजर आता है। सबसे अपनापा जोड़ता हुआ सा।
इधर भी गुलमोहर से यह अपनापा यूं ही नहीं पनपा। इसके लाल-हरे वर्ण में कुछ तो मेरे बचपन का रंग भी घुला-मिला सा है। अपनापा इतना कि कुछ अजीज लोगों से साधिकार कह दिया गया है, ‘एक गुलमोहर लगा लेना न।’

इससे न जाने कैसा जुड़ाव है कि सुबह रास्तों पर इसे देखने का मतलब है मन हरिया जाना। इसे देखना सिर्फ़ देखना नहीं, आंखों में भर लेना होता है…जितना हो सके,भरपूर।

इसे देखना मतलब मन के मौसम का महक उठना। इसे देखना मतलब पूरा दिन खुशनुमा हो जाना। इसे देखना मतलब अनायास गुनगुना उठना..”गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता मौसम-ए-गुल को हंसाना भी हमारा काम होता…।” इसे देखना मतलब दुष्यंत कुमार को याद कर लेना:

जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

न जाने कैसा जादू तारी है इसका कि कभी-कभी लगता है पिछले जन्म में कोई चिरैया रही होऊंगी क्या जिसका बसेरा गुलमोहर और सिर्फ गुलमोहर पर ही रहा होगा?

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