
- आशीष दशोत्तर
साहित्यकार एवं स्तंभकार
मां को गुज़रे एक माह हो चुका है। मां के साथ जीवन की बहुत सी बातें चली गई। जो विश्वास मां के रहने पर क़ायम था, वह घर से अचानक कहीं चला गया। उसके रहने पर मन में जो सुरक्षा भाव था, वह असुरक्षा में तब्दील हो गया। मां के पास बैठकर दो घड़ी बतियाने और उसके जीवन के बेहतरीन लम्हे अपने भीतर उतारने का सुख भी मां के साथ जाता रहा। इतना सब कुछ और इससे भी अधिक जो हमने महसूस किया क्या बस वही कुछ कम हुआ?
मां के न रहने पर और भी बहुत सा कुछ ऐसा घटित हुआ, जिसने यह एहसास करवाया कि मां सिर्फ़ अपने बच्चों की ही मां नहीं होती, वह अपने पूरे परिवेश की मां होती है। वह अपने आसपास फलती-फूलती खुशियों की मां होती है। वह अपने घर में बिखरे हर पल की मां होती है। वह मां होती है प्रकृति की, पेड़-पौधों की भी।
इस बात पर शायद कोई यक़ीन करें कि मां के न रहने पर बहुत सी चीज़ें ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाया करती हैं। तेरह वर्ष पूर्व जब नए घर की नींव रखी तब मां ने यह सीख दी थी कि अपने घर को हरा-भरा रखना है तो घर के बाहर एक पेड़ ज़रूर लगाना। घर के बनते ही घर के बाहर अशोक का एक पौधा लगाया। उस पौधे को तेज़ हवाओं से बचाने, पशुओं से उसकी रक्षा करने और उसे ज़मीन से जोड़ने में हर लम्हा मां ने अर्पित किया। देखते ही देखते वह पौधा बड़ा होता गया और घर से भी ऊपर निकल गया। पेड़ बन चुका वह पौधा जब हवा में लहराता तो मां बड़ी खुश होती। कई बार उसकी अनावश्यक शाखों की छंटनी की जाती तो मां ख़ुद खड़े रहकर हिदायत देती कि धीरे-धीरे तोड़ो ,पेड़ों को भी तकलीफ़ होती है।
पेड़ को मां ने बहुत प्यार दिया। अब मां को गुज़रे एक माह ही हुआ है और देखते ही देखते वह हरा-भरा अशोक का पेड़ अचानक सूखने लगा है। उसके पूरे पत्ते सूख चुके हैं। कमाल यह कि उसकी जड़ों के नज़दीक तुलसी और फूलों के दो पौधे आज भी खिले हुए हैं, मगर वह अशोक का पेड़ सूखी पत्तियों में तब्दील हो गया है। यह सब देख महसूस होता है कि क्या मां के न रहने का ग़म उस पेड़ को भी हुआ? या फिर मां की प्रकृति और प्रकृति की मां के बीच क़ायम संबंध टूट गया? एक हरे भरे पेड़ का अचानक इस तरह सूख जाना क्या यह अहसास नहीं कराता कि उस पेड़ को भी मां के न रहने का उतना ही दुःख है, जितना हम बच्चों को। हम मां की कमी को जितना महसूस कर रहे हैं, उससे कहीं अधिक मां की कमी उस पेड़ को महसूस हो रही है। तभी तो वह पेड़ मां के जाते ही सूख गया।
प्रकृति और मनुष्य का संबंध तो विज्ञान भी स्वीकारता है। मां और पेड़ के बीच के इस रिश्ते को महसूस करते हुए मुझे ओशो के एक संस्मरण का ख़याल आया। ओशो ने अपने जीवन के एक संस्मरण में मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बखूबी समझाया है। उन्होंने संस्मरण में लिखा-
विश्वविद्यालय में मेरा संबंध सिर्फ़ एक पेड़ से हुआ, एक गुलमोहर का पेड़। बस, यही मेरा मित्र था। वर्षों तक मैं अपनी गाडी को उसके नीचे खड़ी करता था। धीरे-धीरे सब लोग जान गए कि यह मेरी जगह है। इसलिए वे अपनी गाड़ी वहीं नहीं रखते थे। मुझे किसी से कुछ कहना नहीं पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे सबने यह मान लिया। उस पेड़ से कोई छेड़छाड़ नहीं करता था। अगर मैं वहां न जाता तो वह पेड़ मेरी प्रतीक्षा करता रहता। वर्षो तक मैंने उस पेड़ के नीचे गाड़ी पार्क की। जब मैंने विश्वविद्यालय छोड़ा तो मैं उप कुलपति से विदा लेने गया। इसके बाद मैंने उनसे कहा- अब मुझे जाना चाहिए। अंधेरा हो रहा है, सूर्यास्त के पहले मेरा पेड़ कहीं सो न जाए। मुझे उससे विदा लेनी है।
उप कुलपति ने मेरी और देखा, जैसे कि मैं पागल हूं, पर कोई और भी ऐसे ही देखता। मिस फिट को इसी प्रकार देखा जाता है। उनको मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए जब मैं गुलमोहर से विदा ले रहा तो वे अपनी खिड़की से देख रहे थे।
मैंने पेड़ का आलिंगन किया और एक क्षण के लिए हम इसी प्रकार गले मिलते रहे। यह देख कर उप कुलपति दौड़े हुए वहां आए और उन्होंने मुझसे कहा- क्षमा करना। मैंने कभी किसी को पेड़ से आलिंगन करते हुए नहीं देखा, लेकिन अब मुझे समझ आया कि सब लोग कितना कुछ चूक रहे हैं। मैंने कभी किसी को पेड़ से इस प्रकार विदा लेते या सुबह उसका अभिवादन करते नहीं देखा है।
दो महीने बाद उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि यह दुखद और बड़ी अजीब बात है कि जिस दिन से तुम यहां से गए हो, उस दिन से ही तुम्हारे पेड़ को कुछ हो गया है।
मैंने पूछा- क्या हुआ?
उन्होंने कहा- वह मरने लगा है। अब अगर तुम आओ तो सिर्फ़ मृत पेड़ को देखोगे, न उस पर पत्ते हैं, न फूल हैं।
उन्होंने फोन रख दिया। मैं हँसा, लेकिन दूसरे दिन सुबह, विश्वविद्यालय के किसी मूर्ख के पहुंचने से पहले मैं पेड़ को देखने गया। उस समय उसके फूलने का मौसम था, लेकिन उस पर एक भी फूल न था। सिर्फ़ फूल ही नहीं, पत्ते भी नहीं थे। फूल और पत्तेविहीन सिर्फ उसकी नंगी शाखाएं वहां खड़ी थी। मैंने उस पेड़ का फिर आलिंगन किया और मुझे मालूम हो गया कि वह मर गया है। पहली बार जब उसको गले लगाया था तो उसकी और से मुझे उत्तर मिला था। लेकिन अब उसकी और से मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। पेड़ का शरीर तो खड़ा था लेकिन उसके प्राण निकल गए थे।

मां के गुज़रते ही सूखते इस पेड़ को देख यह विश्वास और भी पुख्ता होता है कि प्रकृति और मनुष्य आपस में जुड़े हैं। प्रकृति मनुष्य को हर वक़्त आवाज़ देती है। मनुष्य की खुशियों के साथ ख़ुश होती है और उसके दुःख के साथ दु:खी। अपने प्रिय के न रहने पर पेड़-पौधे भी सूख जाया करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे मां के नए रहने पर हरा-भरा पेड़ अचानक सूख गया। उसकी जड़ों में मुस्कुराते पौधे मां की मुस्कुराती ज़िन्दगी की गवाही भी दे रहे हैं।
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