मंडी से कंगना रनौत… और पोल खुलती गई  

नारीवाद से दिक्कत ही असल दिक्कत है

पूजा सिंह, स्‍वतंत्र पत्रकार

चित्रांकन: आशु चौधरी

आपने यह खबर पढ़ ही ली होगी कि अभिनेत्री कंगना रनौत को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हिमाचल प्रदेश की मंडी लोक सभा सीट से उम्मीदवार बनाया है। आपने यह भी पढ़ लिया होगा कि कैसे उनको टिकट मिलने की खबर सामने आते ही पत्रकार, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता आदि तमाम वर्गों के लोगों ने उन पर नकारात्मक टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। टिप्पणियां भी ऐसी जो द्विअर्थी और अशालीन हैं।

इस मामले में कांग्रेस नेता और पूर्व पत्रकार सुप्रिया श्रीनेता और वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे के ट्वीट खासे चर्चा में रहे। हालांकि उन्होंने अपने ट्वीट डिलीट कर दिए। श्रीनेत ने कहा कि आपत्तिजनक टिप्पणी उन्होंने नहीं किया बल्कि उनकी सोशल मीडिया टीम के किसी सदस्य ने कर दिया था जबकि मृणाल पांडे ने ट्वीट भर हटाया। अभी मामला थमा भी नहीं था कि कंगना का एक पुराना वीडियो वायरल हो गया जिसमें वह कांग्रेस से चुनाव लड़ चुकी अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर को सॉफ्ट पोर्न स्टार कह रही थीं।

यह तो हुई पृष्ठभूमि लेकिन अब इसके आगे बात करेंगे तो बात पितृसत्ता की आयेगी और जब उसकी बात आयेगी तो एक चालू वाक्य कहीं से भी उड़ता हुआ आ सकता है- ‘‘अरे ये तो नारीवादी हैं भाई। इनको हर चीज से दिक्कत है। थोड़ा सा हंसी मजाक नहीं झेल सकतीं।’’

बहरहाल बात पर वापस लौटते हैं। पितृसत्ता एक ऐसी विराट सोच है जिससे पार पाना फिलहाल तो मुश्किल ही नजर आ रहा है। यह इतनी बड़ी सत्ता है कि आप इसकी चपेट में होते हैं और आपको पता ही नहीं चलता।

‘‘क्या लड़कियों की तरह शरमा रहा है?’’

‘‘हाथों में मेंहदी लगी है क्या?’’

‘‘क्या बात-बात पर लड़कियों की तरह रोता है?’’

‘‘औरतों की तरह तेरे भी पेट में कोई बात नहीं पचती न?’’

‘‘औरतें ही औरतों की दुश्मन होती हैं।’’

ये मानवीय व्यवहार के कुछ सामान्य उदाहरण हैं। इन्हें महिलाओं के साथ किसने और क्यों जोड़ दिया? इसका उत्तर आसान है लेकिन उसका विश्लेषण कठिन।

भक्ति काल के महान कवि तुलसीदास भी तो लिख गए हैं- ‘‘महा वृष्टि चलि फूटि कियारी, जिमि स्वतंत्र भए बिगरहीं नारी।’’ अर्थात जिस प्रकार अत्यधिक बारिश से खेत की क्यारियां फूट जाती हैं वैसे ही अत्यधिक स्वतंत्रता औरतों को बिगाड़ देती है। यह दोहा इस बात की वकालत कर रहा है कि औरतों को पुरुषों के नियंत्रण में रखना चाहिए, रहना चाहिए। कथित संस्कृति और सीमाओं का पालन करने वाली महिला अच्छी है और उसके खिलाफ जाने वाली खराब।

विषय पर वापस लौटते हैं: हमारे देश में पितृसत्तात्मक सोच महिलाओं तक के दिमाग में इतनी गहरी घुसी हुई है कि उसे निकाल पाना बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि सुप्रिया श्रीनेत और मृणाल पांडे जैसी विदुषी महिलाएं भी कई दफा ऐसा कर जाती हैं जो अनुचित होते हुए भी उन्हें अनुचित नहीं प्रतीत होता। हमारे देश में स्त्रीवाद की लड़ाई भी समता और समानता के अधिकार के बजाय पुरुषों के कुलीन क्लब की सदस्यता पाने की कोशिश तक सिमट गयी है।

समाज के हर वर्ग में परिवारों पर पुरुषों का दबदबा है। यही वजह है कि समाज उनकी जरूरतों के इर्दगिर्द घूमता है, सच को उनकी नजर से देखने की कोशिश की जाती है, राजनीति और यहां तक कि सिने जगत में भी उनका ही दबदबा है। आश्चर्य नहीं कि बड़ी संख्या में महिलाओं की सोच भी इस बात से संचालित होती है कि अगर वे उनके साथ रहेंगी तो उन्हें भी वही तवज्जो मिलेगी जो उन पुरुषों को मिलती है। समाजशास्त्री मानते हैं कि पितृसत्ता भय और आशंका से संचालित होती है। यानी उसके टूटने या उसमें दरार पड़ने का खतरा जितना अधिक होता है वह उतनी ही एकजुट और मजबूत होती जाती है। इस सत्ता में स्त्री-पुरुष दोनों हिस्सेदार होते हैं।

यह सत्ता महिलाओं को ट्रॉफी की तरह इस्तेमाल करती है। यह ट्रॉफी खूबसूरती का प्रतीक भी हो सकती है और बुद्धिमता की भी लेकिन उसके सामने अंतिम कसौटी एक पुरुष की होती है जिससे उसकी तुलना होती है या जिसके उसे अधीन माना जाता है।

सुप्रिया श्रीनेत, मृणाल पांडे और कंगना रनौत ने जो टिप्पणियां कीं उसमें उन्हें तत्काल कुछ भी गलत नहीं लगा। टोके जाने पर जरूर किसी ने समझदारी दिखाते हुए माफी मांग ली तो कोई अपनी बात पर अड़ा रहा लेकिन यहां असल चुनौती यह है कि ऐसी सोच को किस प्रकार समाप्त किया जाए? यह एक बड़ी मांग है और इससे निपटने के लिए समाज को अभी बहुत लंबा सफर तय करना है। इस सफर के पहले कदम के रूप में हमें पितृसत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा और दूसरे कदम के रूप में महिलाओं को इसके चंगुल से निकालने की कोशिश करनी होगी।

जब तक हमारे समाज की बहुसंख्यक महिलाएं एकजुट होकर पितृसत्ता जैसे चालाक शत्रु की पहचान नहीं करेंगी तब तक वे यूं ही भटकी-बिखरी रहेंगी। महिलाओं को कदम-कदम पर आदमियों के ताने सुनने की आदत डाल लेनी चाहिए। इंसल्टप्रूफ होकर ही वे अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में बढ़ सकती हैं।

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