एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता

मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता

माना कैंप (रायपुर): 1975–1977

हमारी स्‍कूल बस (जो पैदाइशी एक ट्रक था) में बैठने के लिए दो संकरी लंबी बैंचें उसकी दोनों तरफ की दीवारों में कसी हुई थीं। एक चौड़ी लंबर बैंच बस के बीचों बीच थी। बस के हुड-फ्रेम से दो कतारों में रस्सियां लटकी हुईं थीं। दचके लगने तथा अन्य गाड़ियों के गुजरने के दौरान संतुलन बनाने के लिए इन लटकती रस्सियों का ही सहारा था। एक–दो सप्ताह में ही सवारियां तूफान में भी अपनी कश्ती को संभालने के अभ्यस्त हो जाती और साल भर काफी होता इस तरह के दैनिक सफर का आनंद लेने के लिए। भारत के छह राज्यों की ग्रामीण सड़कों पर 27 साल यात्रा करने और उसका आनंद लेने में यह ट्रेनिंग मेरे काफी काम आई।

माना कैंप की दुर्गा पूजा इस अध्याय को समाप्त करने के लिए सर्वाधिक अनुकूल होगी। परंतु उसके पहले उन लोगों का जिक्र करना चाहूंगा जो मेरी याद में 4 दशक बाद अब भी जीवित हैं।

मामुनी: हमारे स्टॉप से अगला स्टॉप एक तिराहा था जहां सरकारी अस्पताल, हाई स्कूल आदि थे। जैसे ही बस का डाला बच्चों को चढाने के लिए खुलता, एक महिला नर्स (जो अपनी यूनिफार्म में होती) का सुरीला लेकिन चिंतित स्वर गूंजता, “मामुनी, आछे नी?” बस के दूसरे सिरे पर बैठी नन्ही मामुनी खड़ी होती, अपना हाथ उठाती और जवाब देती, “ये…।” उस संभवतः 4 वर्षीय लड़की के लिए स्कूल जाने का यह पहला वर्ष था, जिसके लिए 43 किलोमीटर की यात्रा और 9 घंटे घर से दूर रहने का भगीरथ प्रयास वह प्रतिदिन करती थी। मामुनी और उसकी मां का बिछोह प्रतिदिन 18 घंटे होता होगा। उसकी मां अस्पताल में स्टाफ नर्स थी, जिसकी अक्सर रात्रि पारी रहती थी। मामुनी को संभवतः उसके पिता तैयार कर बस में बैठाते और चिंतित मां एक स्टॉप बाद उसकी हाजरी लेतीं। सरकारी नौकरी करने वाले तमाम कर्मचारियों और उनके बच्चों को इस दौर से कभी-न-कभी गुजरना होता।

संतोष जैन: एक संपन्न व्यापारी का पुत्र मेरा सहपाठी संतोष जैन। उसके पास बहुत पैसे रहते थे। हमारे घर पर बच्चों को जेब खर्च देने का रिवाज नहीं था क्योंकि इसकी गुंजाइश भी नहीं होगी। स्कूल के अहाते में एक ही चाट का ठेला लगता था। जिसका मालिक बुजुर्ग खुशमिजाज व्यक्ति था। वहां खस्ता और समोसा मिसिल मिलती थी। हॉफ प्लेट 25 पैसे और फुल प्लेट 50 पैसे। खाने की छुट्टी होने पर संतोष मुझे भी अपने साथ ले जाता और मेरी चाट का भी प्रबंध होता। कुछ अन्य साथियों ने मेरी इस आदत का मजाक भी उड़ाया। मुझे संतोष का चमचा कहा पर मुफ्त की खस्ता या समोसा मिसिल के सामने उनके तंजों ने मुझे कतई प्रभावित नहीं किया।

विश्वनाथ कौशिक: जनता पार्टी सरकार के केंद्रीय कैबिनेट संचार मंत्री पुरूषोत्तम कौशिक का पुत्र विश्वनाथ कौशिक भी हमारी क्लास में था। वह बहुत ही शांत और चुप रहने वाला लड़का था। आज विश्‍वास करना मुश्किल है कि एक केंद्रीय मंत्री का लड़का कोई लटका-झटका दिखाए बिना स्कूल आता जाता हो।

संजीव धारीवाल: संजीव के पिता फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर थे। उसके पास नई फिल्मों के पोस्टर और चमचमाते फोल्डर रहते, जो बड़े शान से प्रदर्शित किए जाते। मुझे याद है कि ‘फकीरा’ फिल्म का एक चमचमाता फोल्डर उसने मुझे भेंट में दिया, जिसमें फिल्म के गानों के बोल तथा कुछ स्थिर चित्र आदि थे।

अरविंद गोस्वामी: ये सज्जन हमारे घर पर काम करते थे। उनका मुख्य कार्य परिवार के लिए खाना बनाने में मां की मदद करना और छोटे-मोटे सौदा-सुल्‍फ लाना था। उनकी उम्र 50 वर्ष के आसपास होगी। आठ व्यक्तियों के चाय, नाश्ता, टिफिन और दोपहर और रात का भोजन बनाना कोई आसान तो न होता होगा। इसलिए अरविंद जी कभी-कभी हत्ते से उखड जाते और चिल्लाते, “ ऊफ शाळा दीमाग खोराब, एक्ला माणूस कीतना काम! किम-किम करूंगा माता जी?”

मेरी मां उन्‍हें एक गरम चाय की प्याली पकड़ाती और उनका ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता। अच्छे मूड में वो रोबिन्द्र सोंगीत की तान भी छेड़ देते।

शर्मा जी, यंग्तैय्या गौरैया तथा कोंडैया: शर्मा जी सिक्यूरिटी गार्ड थे। हम बच्चों की यही तमन्ना रहती थी कि हमारे बंगले पर रात की ड्यूटी उनकी ही लगे, क्योंकि वे एक बहुत प्रभावशाली किस्सागो थे। वो मेरे सहपाठी विमल के पिता थे। उनका मुस्कुराता चेहरा हम कभी ना भूलेंगे। रात के खाने के बाद हम सब उनको घेर लेते और उनकी महाभारत की कहानियां शुरू हो जातीं। उनके श्रोताओं में हम बच्चों के अलावा, यंग्तैय्या, गौरैया तथा कोंडैया भी शामिल हो जाते। ये तीनो सज्जन कैंप के सफाईकर्मी थे तथा तेलगु भाषी थे। हिंदी में सुनाई जा रही कथाओं का मजा बच्चे-बड़े, तेलगु, बांग्ला और हिंदी भाषी एक साथ उठाते। एक दिन कोंडैया ने पूछ ही लिया कि कहानी कब खत्‍म होगी?

शर्मा जी उठते हुए बोले, “बहुत लंबी कहानी है रे कोंडैया!” एक दिन गौरैय्या ने भी कहानी सुनाई, “सिंग वाला सित्ता” उर्फ सींग वाला चीता। वह भी मस्त थी। हमारी ये सभा मां की पुकार से ही विसर्जित होती।

मुझे विश्‍वास हुआ कि संचार के लिए भाषा कोई रोड़ा नहीं होती। बतियाने के लिए सिर्फ आपसी विश्‍वास और बतियाने की इच्छा ही काफी है।

इस तरह मैं जिया-1:  आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’

इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…

इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…

इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो

इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!

इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…

इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्‍ध देखता रहा

इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए

इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं

इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …

इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज

इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा

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