इस तरह मैं जिया-15 : वो बेताल, मैनड्रैक, और राजन-इकबाल के दिन थे दोस्तों!
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
माना कैंप (रायपुर): 1975–1977
माना कैंप क्यूंकि बांग्लादेशी शर्णार्थियो तथा पश्चिम बंगाल के कर्मचारियों से आबाद था, अतः गैर बंगाली लोगों में बंगाल के काले जादू को लेकर भी बातें होतीं, जो मुझे बहुत रोमांचित करती थीं।
मेरे दूसरे नंबर की दीदी, बहुत जिज्ञासु और बहादुर है। माना कैंप के अथवा रायपुर के स्कूल की सहेलियों से उसने एक नई विद्या सीखी। ‘आत्मा बुलाना’ और उस से अपने भविष्य (इस साल परीक्षा में कौन सा रैंक आएगा? कितने प्रतिशत से पास होंगे? बायोलॉजी निकल जाएगी या नहीं आदि) के बारे में प्रश्न पूछना। मम्मी जो स्नातकोत्तर थी, उनकी जागृत अवस्था में यह विधान सम्पन्न करना असंभव था। दूसरी तरफ बड़ी दीदी भी दिक्कत खड़ी करने के लिए कुख्यात थीं।
पहली समस्या का हल आसान था, जब मां दोपहर की नींद लेती हैं, अनुकूल समय पाया गया। बड़ी दीदी भारी मान-मनुहार के बाद बोली, “जो करना है करो। मैं इसमें शामिल नहीं। मुझे खलल नहीं होना चाहिए।” ये बात अलग है कि वो बाद में होने वाले अनुष्ठानों में कौतूहलवश शामिल होती रही।
तरीका बहुत आसान था। मम्मी की सिलाई मशीन से कैंची निकालो। उसे एक मोटी किताब अथवा कॉपी के मध्य में चुन्नी से कस कर बांध दो। फिर सारे बहन–भाई एक कमरे में बंद हो जाओ। रोशनी कम। अगरबत्ती चालू। फर्श पर एक गोलाई में बैठे हुए दो तांत्रिक (क्रमशः मेरी दूसरे और तीसरे नंबर की दीदीयां) और कुछ डरे हुए सब। दीदी पहले ही घोषणा करती, “जिसको भी डर लग रहा है, अभी बाहर चला जाए। एक बार अनुष्ठान शुरू हुआ, फिर किसी को उठना, हँसना, डरना सख्त मना है। अगर आत्मा गुस्सा हो गई तो भगवान ही बचा पाएंगे।”
अब भला, कौन अपने को डरपोक बताते हुए कमरा छोड़ता? और भला कौन था जिसे भगवान पर विश्वास ना हो? तब हम किताब अथवा समाचार-पत्र पर गलती से पैर छू जाए तो उस किताब के पैर छू कर माफी मांगते थे ताकि विद्या देवी नाराज होकर हमें फेल ना कर दें।
प्रक्रिया कुछ यूं शुरू होती कि मुख्य तांत्रिक अपने सहायक के साथ उस किताब में कसी कैंची के दोनों कानों को अपनी एक-एक ऊंगली पर साधते और दीदी कुछ मोटी आवाज में शुरू होती, “अगर कोई पवित्र आत्मा यहां से गुजर रही है तो कृपया इसमें प्रवेश कर जाए। क्या आप आ गई हैं, अगर आ गईं हैं तो कृपया घूम जाइए…” ऐसा आमंत्रण तीन-चार बार होता। कुछ प्रयासों के बाद कैंची उनकी उंगलियों पर घूमने लगती, जो प्रमाण मानी जाती, कि आत्मा का आगमन हो गया है।
आत्मा से पूछे जाने वाले सारे प्रश्न वस्तुनिष्ठ होते। जैसे, वो आत्मा गंभीर है या मजाकिया ये जानने के लिए पहला प्रश्न होता, “बताएं कि इस कमरे में कितने लोग हैं? क्या 1 है, अगर हां तो कृपया घूम जाइये। क्या दो? क्या तीन?”
जब तक सही संख्या न आती, आत्मा उस कैंची को नहीं घुमाती। फिर गंभीर प्रश्न जैसे, मेरे कितने नंबर आएंगे आदि का नंबर आता। जातक की आकांक्षा अनुसार कैंची घूमती। जितना रोमांचक, उतना ही नाटकीय आयोजन बहुत लुभाता।
डर का भूत
जब उपरोक्त आत्मा के आयोजन होते तो मेरी सबसे छोटी दीदी अक्सर डरती और इसलिए वो कमरा भी नहीं छोडती। मुझे उसको और डराने में खूब मजा आता। एक शाम मैं अपने किचन-गार्डन से पतंग उड़ा रहा था। वो एक शैतान गहरी नीली पतंग थी, इसलिए उसको साधने के लिए, उसमें लंबी सी सफ़ेद पूंछ जोड़ी गई थी। अंधेरा घिरने लगा था। घर की और सड़क की लाइट्स जल चुकीं थीं, अतः मैंने पतंग उतारी, जो मुझ से कुछ दूर लैंड हूई। मैं चरखी (बांग्ला में लटाई) में धागा लपेट रहा था।
उसी समय मेरी छोटी दीदी खिड़कियों के पल्ले बंद करने आई। वो रोशनी में थी, और बाहर अंधेरा। मुझे देख नहीं पाई। उसे दिखा कि जमीन पर एक सफेद सांप सा कुछ चल रहा है और सरसराहट की आवाज भी है। वो थोड़ी डर गई और बुदबुदाई, “ओह! क्या है?” मैंने अपना मौका ताड़ा और कुछ डरावनी आवाज निकाली। फिर क्या था, वो पलट के भागी और बैठक खाने में औंधे मुंह गिर पड़ी, और बेहोश हो गई। उसका एक हाथ ऐसे हिल रहा था, मानो डमरू बजा रही हो।
घर में हल्ला हो गया। मम्मी भाग कर आई और उसका सर अपने गोद में रख कुछ निर्देश दिए। मुझे काटो तो खून नहीं। खैर, मै भी उसे होश में लाने की भाग-दौड़ में शामिल हो गया। राम-राम करके कुछ देर में उसे होश आया।
वो डर गई है, ये तो सब समझ गए, पर किस से, इस चर्चा में मैंने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। अकेले में कान भी पकड़े और प्रतिज्ञा की कि अब ऐसा नहीं करूंगा।
वो बेताल, मैनड्रैक, और राजन-इकबाल के दिन थे दोस्तों!
इस तरह मैं जिया-1: आखिर मैं साबित कर पाया कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’
इस तरह मैं जिया-2: लगता था ड्राइवर से अच्छी जिंदगी किसी की नहीं…
इस तरह मैं जिया-3: हम लखपति होते-होते बाल-बाल बचे…
इस तरह मैं जिया-4: एक बैरियर बनाओ और आने-जाने वालों से टैक्स वसूलो
इस तरह मैं जिया-5: वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
इस तरह मैं जिया-6: पानी भर कर छागल को खिड़की के बाहर लटकाया…
इस तरह मैं जिया-7: पानी भरे खेत, घास के गुच्छे, झुके लोग… मैं मंत्रमुग्ध देखता रहा
इस तरह मैं जिया-8 : मेरे प्रेम करने के सपने उस घटना के साथ चूर-चूर हो गए
इस तरह मैं जिया-9 : हमने मान लिया, वो आंखें बंद कर सपने देख रहे हैं
इस तरह मैं जिया-10 : हमारे लिए ये एक बड़ा सदमा था …
इस तरह मैं जिया-11: संगीत की तरह सुनाई देती साइकिल के टायरों की आवाज
इस तरह मैं जिया-12: मैसेज साफ था, जान-पैचान होने का मतलब यह नहीं कि तू घुस्ताई चला आएगा
इस तरह मैं जिया-13 : एक चाय की प्याली और ‘दीमाग खोराब से ठोंडा’ हो जाता
इस तरह मैं जिया-14 : तस्वीर संग जिसका जन्मदिन मनाया था वह 40 साल बाद यूं मिला …