फोटो: सब्जीवालियां, दूधवाले सौदा देने के बाद, ऊपर से कुछ अतिरिक्त मात्रा डालते थे, जिसे पुरौनी कहा जाता था। क्रेता इसे अपना हक और विक्रेता अपना कर्त्तव्य समझते थे। वे कभी यह भूल जाते तो उलाहना दे कर याद दिलाया जाता।
इस तरह मैं जिया-5: विदा पन्ना कहा तो जैसे प्राणनाथ के गजर ने दिया सुखद सफर का आशीष
हर जीवन की ऐसी ही कथा होती है जिसे सुनना उसे जीने जितना ही दिलचस्प होता है। जीवन की लंबी अवधि सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में गुजारने वाले इस शृंखला के लेखक मनीष माथुर के जीवन की कथा को सुनना-पढ़ना साहित्य कृति को पढ़ने जितना ही दिलचस्प और उतना ही सरस अनुभव है। यह वर्णन इतना आत्मीय है कि इसमें पाठक को अपने जीवन के रंग और अक्स दिखाई देना तय है।
मनीष माथुर, सामाजिक कार्यकर्ता
पन्ना: 1973-75
मुझे वो शाम याद है, जब पापा ने ऑफिस से लौटकर मम्मी से कहा, ‘चलो, रायपुर चलें?’ ये संदेश था कि उनका तबादला रायपुर के माना कैंप में, ‘कैम्पस कमांडेंट’ के पद पर हो गया है। पता चला कि भारत-सरकार के ‘रक्षा मंत्रालय’ तथा ‘पुनर्वास मंत्रालय’ द्वारा बांग्लादेशी शरणार्थियों के पुनर्वास हेतु रायपुर के पास विशाल कैंप बनाया गया था, जहां सरकार द्वारा उन्हें मुफ्त में रहने, खाने, कपड़े, पढ़ने, स्वास्थ, एवं तकनीकी कौशल विकास की समस्त सुविधाएं उपलब्ध थीं। साथ ही, जेब खर्च हेतु, परिवारों को प्रत्येक पखवाड़े नकद रूपए भी बांटे जाते थे। अब इन हजारों परिवारों को भारत की मुख्य धारा से जोड़ने का समय आ गया था। भारत सरकार ने इस काम के लिए, राज्य सरकार के दो अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर लिया था। पापा उनमें से एक थे।
आखिर हमारा अपने मित्रों, सखियों से जुदा होने का वक्त आ गया। पन्ना ने मुझे काफी कुछ सिखाया। आम पन्नावासी लगभग हर सप्ताह कोई न कोई त्यौहार धूमधाम से मनाते थे, जहां परशाद की थालियों का पडोसियों और परिचितों से आदान प्रदान होता। कभी वट-सावित्री, तो कभी सोमवती अमावस्या, तो कभी मामुलिया जैसा स्थानीय पर्व, तो कभी सावन सोमवार। आम नर-नारी सुबह-सुबह मंदिर की ओर जाते दिखते और दोपहर में पड़ोस में से ही कहीं ढ़ोलक पर स्थानीय भजनों के स्वर गूंजते। वहां काफी महिलाएं, बच्चे, इक्कठे होते। उनमें से ही कोई बाजे पर गाना शुरू करता और ढोलक की थाप पे धीरे-धीरे महिलाएं उसी में अपनी लाइन जोड़ते जातीं। मेरे जैसे इन उत्सवों से उदासीन बच्चे, बाहर कहीं खेलते हुए अंदाज लगाते कि अब गुप्ता आंटी गा रहीं हैं या कुमकुम दीदी? समाप्ति पर कसार या पंजीरी की पुडिया आदि प्रसाद के तौर पर बंटती। एक घर का छोटा (पर समझदार) लड़का आमतौर पर इसके लिए करियर का काम करता। लोगों, उनके विभिन्न रहन-सहन, खान-पान आदि से बड़ा प्राकृतिक परिचय होता। अगर लड़का अपेक्षित रूप से समझदार नहीं है तो उसकी बड़ी बहन उसके साथ जाती। पन्ना ने इस तरह ‘कम समझदार’ से, कम से कम औसत-बुद्धि की पदोन्नति दी।
मोहर्रम का जुलुस भी धूम से निकलता। उसके आगे चलते ढोल, धम–धम-धम की गंभीर और शोक भरी आवाज में दूर से ही, ताजियों के आगमन की सूचना देते। शाम ढले यह कारवां हमारे घर के सामने से गुजरता। ढोल, लेझम और डम्बल पर करतब दिखाते युवा, गूंजते नारे, गम-जदा अपने सीने से लहू बहाते युवा, बड़ा सनसनीखेज सा माहौल खींच देते।
मोहल्ले के बच्चों में कौतूहल, दर्द, डर और डर के आगे जीत है के भाव एक साथ आते जाते। बच्चों को अपने सीनियर्स से यह ज्ञान संप्रेषित होता था कि (1) ताजिया कभी नहीं झुकता… (2) ताजिये के नीचे से निकलो तो परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर आते हैं। ज्ञान के हितग्राहियों द्वारा ज्ञान नंबर 1 का वेलिडेशन तो इस बात से हो जाता कि जुलुस में सबसे आगे कुछ जवान, अपने–अपने हाथ में लंबे बांस लेके चलते, जिसके सिरे पर तीन-चार छोटे बांस के टुकड़े बंधे होते थे। रास्ते में पड़ने वाले टेलीफोन और बिजली के तारों को वे ऊंचा करते चलते और ताजिए बिला-झुके गुजरते।
अब ज्ञान नंबर 2 पर संदेह का सवाल कहां? पर संकट ये रहता कि उन ढोल, झांझ, नारों के कोलाहल और भीड़ के बीच में घुसना एक चुनौती था और सबसे बड़ी चुनौती थी, खून से नहाए, जोश-ए-गम से भरे जवानों के इतने करीब से निकलना। सीनियर्स ने चेतावनी दी थी, कि इन लड़कों के ऊपर माई चढ़ती है, अभी तो दर्द नही होता। ऐसे में अगर उनमें कोई तुम पर गिर जाए, तो ध्यान रखना उनके हाथ में बिलेड होती है। सम्भालना! जिगरा चाहिए बेटा जिगरा! एक ने डराते हुए कहा।
सारे बहादुर बच्चे, उस माहौल में जान हथेली पर लेके, उस प्रक्रिया से गुजरते। मैं कैसे पीछे रहता? आखिर, जुलुस मेरे घर के सामने से जा रहा है। मेरा परिवार छत से तथा कल्लू भैया और दीन दयाल शर्मा जी मेरे पास ही खड़े थे। शर्मा जी बोले, काहे डर रहे हो, बड़ा ताजिया है, निकलो। मैं निकल पड़ा, तथा बृजेश भैया के सामने प्रकट हुआ जो उनके घर के ओटले पर बैंच पर आसीन, जुलुस देख रहे थे। पंछी हमेशा की तरह उनके चरणों में बिराजे थे। मुझे पक्का विश्वास हो गया था कि मुझे इस बार अनिल अम्बस्ट से ज्यादा नंबर मिलेंगे। ये जुलुस तो उसके घर के आगे से गुजरता भी नहीं। बचपन भोला ही नहीं, खुला भी होता है। अपनी बाहें और दिमाग खोले, सब कुछ जानने को, तथा हर कुछ मानने को।
पन्ना से आज्ञा लूंगा पर दो बात और नहीं भूलती।
(1) सब्जीवालियां, दूधवाले सौदा देने के बाद, ऊपर से कुछ अतिरिक्त मात्रा डालते थे, जिसे पुरौनी कहा जाता था। क्रेता इसे अपना हक और विक्रेता अपना कर्त्तव्य समझते थे। दूधवाले ने यदि एक लीटर दूध भागौनी में डाल दिया और डब्बा बंद करने का जतन करने लगे तो उसे याद दिलाया जाता, वाह भइया, पुरौनी का तो डाला ही नहीं!
(2) जब दीदीयों ने अपनी सखियों को तबादले की बात बताई तो उनकी करीबी दोस्तों द्वारा चिन्हारी की मांग की गई। कुछ तो देके जाओ, जो तुम्हारी याद दिलाए। और यकीन मानिए, उन सबने return चिन्हारिया भी दीं। डाक हेतु पतों का आदान–प्रदान हुआ।
पन्ना से रायपुर जाने को हम, उत्कल एक्सप्रेस पकड़ने, कटनी के लिए रवाना हुए। सुबह के 11 बज रहे थे और प्राणनाथ का गजर टन्न, टन्न, टन्न बज कर शायद, सुखद सफर का आशीष दे रहा था।
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