
- सोनल
लेखक साहित्यकार हैं।
जब भी हम कोई फ़िल्म देखते हैं, कोई वाकई अच्छी फिल्म, तो कुछ जगहें ऐसी आतीं ही हैं कि दिल ‘धक्क’ हो जाता है। कभी-कभी कोई बात ऐसी भी होती है कि पेट में एक गड्ढा सा पड़ता है; मालवा में हम जिसे कहते हैं- ‘डबका सा पड़ता’ है। लेकिन यह फ़िल्म ‘मीट जो ब्लैक’, यह फिल्म जब मैंने कल देखी; दूसरी बार; तो वैसा ‘डबके पड़ने’ जैसा एहसास लगातार ही बना रहा। और देख चुकने के बाद लगा जैसे कोई एक कील नाभि में गड़ गई हो।
विकिपीडिया कहता है, ‘मीट जो ब्लैक’ 1998 की अमेरिकी रोमांटिक फंतासी ड्रामा फिल्म है; जिसका निर्देशन और निर्माण मार्टिन ब्रेस्ट ने किया है; जिसमें ब्रैड पिट, एंथनी हॉपकिंस और क्लेयर फोर्लानी ने अभिनय किया है। पटकथा बो गोल्डमैन, केविन वेड, रॉन ओसबोर्न और जेफ रेनो द्वारा लिखी गई थी। यह फिल्म ‘डेथ टेक्स ए हॉलिडे’ पर आधारित है, जो इतालवी नाटक ला मोर्टे इन वेकेंज़ा का अंग्रेजी रूपांतरण है।
वो जो भी हो! बात यह है कि बहुत ही विचित्र कहानी है इसकी। विचित्र!
मृत्यु किसी को लेने आ पहुँची है साक्षात। हाँ, साक्षात यम। या यमदूत, जो कह लो। वही है, जो ब्लैक, जो कहता है बिल पैरिश को, कि बिल मैं तुम्हें लेने आया हूँ। लेकिन मैं कुछ दिन ठहरूंगा क्योंकि मैं दुनिया देखना चाहता हूँ। आदमी होने का अनुभव लेना चाहता हूँ। काम करता रहा हूँ लगातार तो समझो कि छुट्टी के कुछ दिन बिताना चाहता हूँ। जितने दिन मेरी छुट्टी उतने दिन तुम्हारा जीवन शेष…।
आदमी क्या करेगा ऐसे में! क्या कर सकता है!!
बिल पैरिश कोई मामूली आदमी नहीं है। वह है अमेरिका का एक बड़ा धनपति, प्रतिभाशाली सफल बिजनेस मैन। किसी आयलैंड पर निवास, हैलीकॉप्टर से जो ऑफिस आता जाता है। लेकिन कुछ बात है उसमें भी कि वह इस विचित्र प्रयोग के लिए चुना गया है। जो एक सुबह उठकर यह कह सकता है, मैंने सब पा लिया; मैं जीवन से संतुष्ट हूँ। मुझे कठोपनिषद की याद आई। कोई नचिकेता ही हो जो यम के पास जाए चलकर!
जो ब्लैक अब पैरिश के साथ है। हरदम साथ। यह प्रयोग चल पड़ा है और पैरिश का परिवार, मित्र और कामकाजी संसार में कोई नहीं जानता कि पैरिश के साथ ऐसा कुछ हो रहा है। जान सकता नहीं। जो ब्लैक के साथ ने, पैरिश की पारिवारिक-व्यवसायिक दुनिया को हिला दिया है; प्राणों को कँपा दिया है। यह उसी की कहानी है।
लेकिन साथ ही यह कहानी मृत्यु के प्रेम में पड जाने की भी है। और यही उस आदमी की, पैरिश की, सबसे बड़ी परीक्षा है।
आदमी जो संसार में जीने के किए करता है उसमें वह जो भीतर से है वह झलकता है। उसका स्वधर्म। जैसे, अर्जुन भीतर से योद्धा है, उसका बाहरी जीवन का युद्ध-कौशल उस भीतर वाले का प्रकटन भर है। इसी से कृष्ण उसे मिले हैं। शायद इसीलिए जो ब्लैक ने पैरिश को चुना है।
हममें से अधिकांश तो अपने स्वधर्म में जीने का साहस कर ही कहाँ पाते हैं? वह तो सामान्यतया एक सा जीवन जीने के दबाव में खो सा जाता है। लेकिन अप्रत्याशित से जब आपका मिलना होता है, तब जो आप भीतर से हैं, उससे आपका साक्षात्कार हो जाता है। ओशो कहते हैं:
मृत्यु के समय तुम एकाएक बदल नहीं सकते। जैसा जीवन भर जिए, वही हो सकोगे।
यह आदमी पैरिश साहसी है, चाहे उसका प्रकटन व्यवसाय में हुआ है। तो जो उसका संसार को ‘डील’ करने का अपना तरीका है, जिसमें कौशल है, निर्भयता है, प्रतिभा है और आत्म संयम है– वही उसका मृत्यु को डील करने का तरीका है।
दूसरा, इस फिल्म में एक अल्टीमेट पैराडोक्स रचा गया है- मृत्यु और प्रेम! जिसके कारण इस फिल्म को देखते हुए एक पल को भी होश नहीं खो सकते।
यहाँ एक प्रेम है पिता-पुत्री का और एक प्रेम है प्रेमी-प्रेमिका का।
जो कहानी है, सो तो है ही, लेकिन इसके कलाकार ग़ज़ब हैं।
ब्रेड पिट, बाप रे! उसका चेहरा, उसकी आँखें जैसे सूखा कुँआ। उसका पूरा होना ही जैसे एक अनजाना रास्ता, अज्ञात को जाता हुआ।
और एंथनी हॉपकिन्स उनकी तो मैं फैन हो गई जिन्होंने बिल पैरिश नाम के उस पैंसठ वर्षीय व्यवसायी की भूमिका निभाई। एक ऐसे आदमी की भूमिका, जो सफल है, सुखी भी, और जिसके पैसठवें जन्मदिन की भव्य पार्टी की तैयारियों के बीच कुछ ऐसा घट गया है जो इतना अविश्वसनीय है कि वह किसी से, किसी से भी कह ही नहीं सकता।
एक पिता (माँ भी शायद) अपने सभी बच्चों को प्रेम करता है लेकिन कभी किसी बच्चे में वह ख़ुद को देखता है। इसे कोई पक्षपात कहे, भेदभाव कहे, इस दबाव में वह संतुलन बनाता चलता है जीवन भर। समानता के मूल्य के दबाव में वह प्रामाणिक नहीं हो पाता। नियम क़ानून और अच्छा होने का दबाव आदमी को बेईमान बना देता है। इस कथा का सबसे सुंदर हिस्सा है पैरिश का अपनी छोटी बेटी से प्रेम। और इसमें उस आदमी का प्रामाणिक होना। एक वही बात है जिसके लिए वह मृत्यु से भी लड़ सकता है।
अहा! उसकी वे स्नेह भरी आँखें! आँखे भर क्यों? चेहरा, देह, देह का रोम-रोम जिस स्नेह से, जिस प्रेम से भरा है। खासकर तब, जब वह अपनी बेटी को गले लगा रहा है! पीछे ही वह दूत प्रतीक्षा में है जिसके साथ उसे ज्ञात और अज्ञात के बीच जो पुल है, उसपर चलकर, उस पार चले जाना है।
यह फिल्म मृत्यु से बातचीत शुरू होती है और वही इस फिल्म का केन्द्रीय तत्व है।

‘मीट जो ब्लैक’ देखते हुए मुझे गीतांजलि की कवितायें याद आ रहीं थीं –
हे मेरे जीवन की अंतिम साध
हे मेरे जीवन की अंतिम साथ
हे मेरे मरण! आ और मुझसे बात कर!
मैं जन्म भर तेरे लिए जागता रहा, जन्म भर तेरे लिए ही
सुख दुख का भार अपने कंधों पर उठाकर घूमता रहा हूं
हे मेरे मरण, आ और मुझसे बात कर
जो कुछ मैं हूं- जो कुछ मेरा है
मेरी आशा अनजाने में तेरे प्यार से आकर्षित
तेरी दिशा में ही बढ़ रही है
मेरे चित्त में वरमाला बन चुकी
तू कब वर का सुंदर वेश पहन, शांत मुस्कान के साथ आएगा
उस दिन से मेरा कोई घर नहीं होगा
रात्रि के एकांत में पति के साथ पतिव्रता की भेंट होगी
तब मैं तू का भेद नहीं रहेगा
हे मेरे मरण, आ और मुझसे बात कर!
मृत्यु को;जो यमदूत की तरह; चाहे देवदूत की तरह; कोई कोई पहचान भी लेता है। डरता है उससे, लेकिन फिर उसे पुकारता भी है; कहता है मुझे ले चलो साथ! चकित है उससे मिलकर मृत्यु भी। ऐसी एक प्यारी सी उपकथा भी है इस फिल्म में। और सुन्दरता देखिये उसकी, जहां उस ‘सिस्टर’ कहलाने वाली महिला ने मृत्यु को पुकारा है और उसे जीवन के सौन्दर्य का रहस्य कहा है। कहती है, नहीं हम खाली हाथ नहीं जाते। जाते समय जो सुन्दर अनुभव हुए उनकी तस्वीरें साथ ले जा सकते हैं।
मुझे कविता याद आती है:
जाने के दिन मैं यही बात कहता जाऊं कि
जो कुछ मैंने देख पाया उसकी उपमा नहीं थी
इस प्रकाश में सरोवर के कमल का मधुर मधु मैंने चखा है
मैं उसे पीकर धन हुआ हूं
विश्व के क्रीड़ागृह में मैंने कितने खेल खेले हैं
दोनों नेत्रों से मैंनें अमित सौंदर्य का पान किया है
जिसका स्पर्श संभव है उसने मेरे शरीर में समाकर
मेरे प्राणों को पुलकित किया है
अब यहीं मेरा अंत करना चाहते हैं तो कर दें
जाने के दिन में यही घोषित करूं कि
जो कुछ मैंने देखा व पाया है वह अतुल्य है।
Bahut sundar