पंकज शुक्ला, पत्रकार-स्तंभकार
मध्यप्रदेश में एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम की स्क्रिप्ट लिख दी गई है… एक सप्ताह से यही लग रहा था। बीते दो दिन तो लगभग हर कोई लिफाफे में बंद इस स्क्रिप्ट की इबारत पढ़ कर समझ गया था कि इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे कहे जाने वाले कमलनाथ ‘कांग्रेस परिवार’ को छोड़ कर कुनबा बदल रहे हैं। यह इबारत समझने में किसी ने गलती नहीं की क्योंकि कमलनाथ का व्यवहार ही यह संकेत नहीं दे रहा था बल्कि उसके कट्टर समर्थक नेता भी लगभग ‘चीख-चीख’ कर यह जता रहे थे कि वे अपने दल का नाम और झंडे का रंग बदलने वाले हैं। उनकी आस्था किसी विचार में नहीं बल्कि आका में हैं। जिधर कप्तान जाएंगे उधर हम जाएंगे।
मगर जैसा होता है, स्क्रिप्ट में अचानक टर्न आता है। कहा गया था रविवार शाम 5.30 बजे दिल्ली में कुछ बड़ा घटने वाला है। वह दिल्ली जहां बीजेपी का दो दिनी महासम्मेलन हो रहा था। ज्यों ही 5.30 बजे ब्रेकिंग न्यूज की तलाश की गई लेकिन कुछ ‘ब्रेक’ नहीं हुआ बल्कि बदलाव के मंसूबों पर ‘ब्रेक’ लग गया। ‘कमलनाथ बीजेपी में जाने वाले हैं’ जैसी खबरें, ‘कमलनाथ कांग्रेस में ही हैं’ जैसी सूचनाएं बन कर रह गई। कमलनाथ के खास समर्थक पूर्व मंत्री सज्जन सिंह वर्मा मीडिया में सफाई देते नजर आए कि कमलनाथ दिल्ली में जातीय समीकरण का आकलन कर रहे हैं कि लोकसभा कि 29 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार कैसे तय होंगे। ये वही सज्जन सिंह वर्मा हैं जो कुछ घंटों पहले सोशल मीडिया पर कुछ ओर ही परचम लहरा रहे थे।
सज्जन सिंह वर्मा की बातें बच्चों को बहलाने का जतन जैसी लगीं। वे सफाई दे जरूर रहे थे लेकिन भीतर ही भीतर खुद भी जानते थे कि उनके शब्दों में जान नहीं है लेकिन मंझे हुए राजनेता की तरह उन्होंने अपने भीतर के भाव को बाहर नहीं आने देने की भरपूर कोशिश की।
इसबीच यह कयास भी लगाया गया कि कमलनाथ की ‘आस्था’ गांधी परिवार के साथ जुड़ी रही है इसलिए शायद वे बीजेपी में नहीं जाएंगे। वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेंगे और उनके सांसद पुत्र नकुलनाथ तथा समर्थक बीजेपी में शामिल हो जाएंगे।
ऐसे कई कयास लगे। कांग्रेस की ओर से भी कहा गया कि कमलनाथ कहीं नहीं जाने वाले हैं लेकिन इन शब्दों में ताकत नहीं थी। बयान दिए जा रहे थे, कमलनाथ में भरोसा जताया जा रहा था लेकिन सारे शब्द खोखले थे क्योंकि किसी को पता नहीं था आगे क्या होने वाला है। इस स्थिति पर एक टिप्पणी एकदम सटीक साबित होती है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है लेकिन कांग्रेस तो पानी से जली है। जब ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी का हाथ थाम सकते हैं तो कमलनाथ भी जा ही सकते हैं और जब ये दो नेता हाथ का साथ छोड़ सकते हैं तो राजनीति में किसी का भी विश्वास करना नादानी होगी।
शाम होते-होते इबारतें बदली तो आकलन भी बदलने लगे। खबर आई कि बीजेपी ने उन्हें उतना ‘भाव’ नहीं दिया जितना वे उम्मीद कर रहे थे। यह भी कहा गया कि छिंदवाड़ा जिला इकाई ने सहमति नहीं दी। दिल्ली के बीजेपी नेता तजिंदर पाल सिंह बग्गा ने कहा है कि कमलनाथ की भाजपा में शामिल होने की खबरें फर्जी हैं। उन्होंने ट्वीट किया था कि 1984 के सिख विरोधी के आरोपी कमलनाथ के लिए बीजेपी में कोई जगह नहीं है। मध्यप्रदेश बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने कमलनाथ के आने पर स्वागत की बात कही तो नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने सख्ती से कहा कि उनके लिए पार्टी के दरवाजे बंद हैं। कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह ने अपनी 50 सालों की दोस्ती का हवाला देते हुए कहा कि कमलनाथ कहीं नहीं जाएंगे। ईडी और सीबीआई से मिल कर निपटेंगे।
मतलब इस संभावित दल बदल का एक कारण सिख विरोधी दंगों पर जल्द आने वाला कोर्ट का फैसला और ईडी व सीबीआई की कार्रवाई का भय भी है! बीजेपी में जा कर सारे पाप धुल जाते हैं वाला मुहावरा याद है न आपको?
बीजेपी के प्रवक्ता रविवार शाम तक कुछ भी खुल कर नहीं कह पा रहे थे। जिन्हें कपटनाथ कह कर निशाने पर लिया जाता रहा वे ही यदि पार्टी में आ गए तो कैसे मुंह छिपाएंगे और कैसे अपने शब्दों को चाशनी में डुबोएंगे? अब बीजेपी की ओर से कहा जा रहा है कि कमलनाथ कांग्रेस में बने रहने के लिए पार्टी हाईकमान से मोलभाव कर रहे हैं।
दूसरी तरफ, सूत्र बताते हैं कि बीजेपी का बड़ा वर्ग कमलनाथ को पार्टी में शामिल करने पर सहमत नहीं था। बीजेपी नेतृत्व ने सारे समीकरणों का विश्लेषण किया तो कमलनाथ का आना बहुत लाभकारी महसूस नहीं हुआ होगा। एक लोकसभा सीट और क्षेत्र की आधा दर्जन विधानसभा सीट पर कब्जा उनकी ताकत है और कांग्रेस को उनसे आर्थिक संबल की आस रहती है। जबकि बीजेपी बीते तीन सालों से छिंदवाड़ा में जमकर मैदानी काम कर रही है। संघ सहित अन्य संगठन भी वोट बैंक बढ़ाने में जुटे हैं। नगरीय निकाय चुनाव में बीजेपी की इस ताकत का अंदाजा हो भी चुका है। ऐसे में बीजेपी का यह आकलन सही भी है कि कमलनाथ आएं न आएं बीजेपी की राजनीतिक ताकत पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ना है। सिंधिया के आने से तो सरकार बनी थी, कमलनाथ के आने से क्या ही असर होगा? यूं भी बीजेपी को उनके आर्थिक सामर्थ्य में कुछ रूचि नहीं है। लिहाजा, फिलहाल कमलनाथ के राजनीति कदम पर कोहरा ही है।
मध्य प्रदेश में घट रहे इस घटनाक्रम का एक पहलू यह है कि कमलनाथ ‘हिट विकेट’ हो गए हैं। कुशल राजनेता खुद अपने ही खेमे में गोल कर बैठे। बीजेपी में उनका जाना रूक गया मतलब फिलहाल बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें हाथोंहाथ नहीं लिया है। उनके आने के नफे-नुकसान को तोला जा रहा है। और, इधर कांग्रेस में जहां उनका एकछत्र राज था, उनके कद के आगे कई नेता बौने थे, गांधी परिवार भी उनकी मांग पर इंकार करने में विचार करता था, वे कद्दावर नेता कमलनाथ संदिग्ध हो गए। दो दिन तक वे खुद भी छिंदवाड़ा से दिल्ली तक घूमते रहे और बातों को घूमाते रहे। उन्होंने बीजेपी में शामिल होने के सवाल पर हां नहीं कहा तो दृढ़ता से इंकार भी नहीं किया।
मतलब, उनके मन में कुछ तो ऐसा था जो सब जान गए। और जब समीकरण बिखरते दिखा तो अपने समर्थक सज्जन सिंह वर्मा को आगे कर दिया। वे पार्टी के नेताओं का कितना विश्वास पाएंगे यह तो नहीं पता लेकिन आम कार्यकर्ता तो उनके बीजेपी में जाने की खबरों पर खुशी जता रहा था। कहा जा रहा था, उनके जैसे कुछ और नेता चले जाएं तो कांग्रेस गंगा नहाए। ये राय कांग्रेस प्रवक्ता रहे आलोक शर्मा के बयान से सहमति की तरह है। विधानसभा चुनाव में हार के बाद एक चैनल को दिए इंटरव्यू में आलोक शर्मा ने कहा था कि पिछले पांच-छह सालों में कमलनाथ के जैसे क्रियाकलाप रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि कहीं उनके बीजेपी से सांठ-गांठ तो नहीं हैं। कहीं वो चाहते तो नहीं थे कि कांग्रेस की सरकार आए।
जो बातें कमलनाथ के कद को देखते हुए दबे छिपे होती थी वे खुल कर कही जाने लगी। यहां तक कि सिंधिया से तुलना करते हुए कहा गया कि कमलनाथ के जाने से पार्टी कब्जे से मुक्त होगी। ये बातें पूरी पार्टी की राय नहीं है। कई लोग इससे असहमत हो सकते हैं लेकिन कमलनाथ के अंदाज से कई लोग खफा रहे हैं वे खुल कर बोल रहे हैं। खासकर वह ‘चलो, चलो’ वाला अंदाज जिसके कारण पार्टी टूटी और मुश्किल से हाथ में आई सत्ता चली गई।
कमलनाथ का अगला कदम चाहे जो हो लेकिन उनकी और उनके समर्थक नेताओं की मंशा उजागर हो गई है कि वे कभी भी ‘हाथ’ को छोड़ सकते हैं। यानी कमलनाथ कुनबा हमेशा संदेह के घेरे में रहेगा। जैसे, ख्यात आईएएस भागीरथ प्रसाद कांग्रेस से लोकसभा का टिकट मिलने के बाद पलटी मार कर बीजेपी में चले गए थे। क्या खबर इधर पद दिया जाए और कमलनाथ के साथ उनके समर्थक पार्टी ही छोड़ कर चले जाएं। कैसे होगा भरोसा?
कमलनाथ ने यह भरोसा खोया है। राजनीति करने के उनके तौर तरीकों की आलोचना करने वाले भी सीधे उनकी निष्ठा पर सवाल नहीं उठा सकते थे मगर अब खुद कमलनाथ ने यह मौका दिया है कि उनके हर कदम पर शंका की जाए। ऐसे कांग्रेस कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो कह रहे हैं कि आधे मन से रहने से तो अच्छा है फूलछाप कांग्रेस नेता बीजेपी में चले ही जाएं। कम से कम वहां तो रहेंगे जहां के हैं। और यहां पार्टी के नवीनीकरण की गति छोड़ी तेज हो पाएगी।